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समाज

बिहार में नहीं रुक रहे बाल विवाह

मनीष कुमार, पटना
२८ दिसम्बर २०२०

बिहार में तमाम प्रयासों के बावजूद बाल विवाह पर पूरी तरह लगाम नहीं लगा है. अभी भी 41 प्रतिशत लड़कियां शादी की वैध उम्र से पहले ब्याही जा रहीं हैं. शहरों की तुलना में देहातों में बाल विवाह व यौन हिंसा के मामले ज्यादा हैं.

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प्रतीकात्मक तस्वीर तस्वीर: picture-alliance/dpa/D. Solanki

आजादी के 73 साल बाद भी बिहार में बाल विवाह का प्रचलन जारी है. करीब 41 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष से पहले हो जा रही है. इनमें ग्रामीण इलाकों की 43 से ज्यादा और शहरी क्षेत्रों की 28 प्रतिशत लड़कियां शामिल हैं. अहम यह है कि इनमें से 11 प्रतिशत लड़कियां 15-19 वर्ष की आयु में ही मां बन गई थीं. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की पांचवीं रिपोर्ट से साफ है कि बाल विवाह की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है. हां, इतना जरूर है कि 2015-16 की पिछली रिपोर्ट की तुलना में थोड़ी कमी जरूर आई है. बाल विवाह का आंकड़ा 42.5 प्रतिशत से घटकर 41 प्रतिशत पर आ गया है. वहीं पुरुषों की बात करें तो 30.5 फीसद लड़कों की शादी 21 साल की उम्र से पहले हो चुकी थी. पिछले रिपोर्ट में यह आंकड़ा 35.3 प्रतिशत था.

बाल विवाह के आंकड़ों में जो भी थोड़ा बहुत सुधार दिख रहा है वह सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों के कार्यक्रमों का असर हो सकता है. जानकार बताते हैं कि बाल विवाह के अधिकतर मामलों का सीधा जुड़ाव बच्चों के माता-पिता की आय से होता है. इसकी वजह है कि बच्चियों को वे बोझ मानते हैं. आर्थिक रूप से सुदृढ़ परिवारों में बाल विवाह के मामले नहीं के बराबर दिखते हैं. बिहार राज्य महिला आयोग की निवर्तमान अध्यक्ष दिलमणि मिश्रा कहती हैं, "बाल विवाह को रोकने का सबसे बड़ा साधन जागरूकता है. निचले तबके के लोगों में शैक्षिक व सामाजिक स्तर पर सुधार की वजह से ऐसे मामलों में एक हद तक कमी आई है. शिकायत आने पर आयोग द्वारा बच्ची के माता-पिता की काउंसिलिंग कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि भविष्य में उस लड़की के साथ ऐसा न हो."

सरकार सक्रिय पर नतीजे निराशाजनक

ऐसा नहीं है कि बिहार सरकार इस दिशा में सक्रिय नहीं है. सरकार की ओर से महिला विकास निगम जनवरी 2020 से बाल विवाह व दहेज प्रथा की रोकथाम के लिए "बाल विवाह एवं दहेजमुक्त हमारा बिहार” नामक अभियान चला रही है. निगम के प्रोजेक्ट डायरेक्टर अजय कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, "समाज जागरूक हुआ है और इसी वजह से ऐसे मामलों में कमी आई है. यही वजह है कि बीते साल बाल विवाह के 37 मामलों को रोका गया." वैसे भी खासकर ग्रामीण इलाकों में आंगनबाड़ी सेविकाएं, एएनएम व आशा कार्यकर्ता इन पर कड़ी नजर रखती है. ऐसी किसी सूचना को नजरअंदाज नहीं किया जाता है.

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प्रतीकात्मक तस्वीरतस्वीर: Getty Images/AFP

बाल विवाह का एक प्रमुख कारण विवाह होने तक लड़कियों को परिवार में मेहमान माना जाना है. समाजशास्त्र के व्याख्याता एलबी सिंह कहते हैं, "दरअसल समाज में आज भी लड़कियों को बोझ माना जाता है. बच्चियों का विवाह माता-पिता के लिए सदैव एक समस्या के तौर पर उनके समक्ष खड़ा होता है. पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण लड़कियों का दर्जा लड़कों से नीचे ही है. सोच यह रहती है कि जितनी जल्दी हो सके, इसे निपटाया जाए. सामाजिक दबाव भी रहता ही है. आर्थिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े तबके में यह धारणा ज्यादा बलवती है."

यौन हिंसा में भी पहले की ही तरह जारी

बाल विवाह की तरह ही यौन हिंसा भी जारी है, हालांकि पिछले पांच साल में इनमें कमी जरूर आई है. 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार 18 से 29 आयु वर्ग की महिलाओं में 14.2 प्रतिशत यौन हिंसा का शिकार हुईं थीं वहीं 2019-20 की रिपोर्ट में यह आंकड़ा 8.3 प्रतिशत पर आ गया है. इनमें शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में यौन हिंसा के ज्यादा मामले दर्ज किए गए. 18 से 29 आयु वर्ग में शहरी इलाके में 7 प्रतिशत तो गांवों में 8.5 फीसद महिलाएं यौन हिंसा की शिकार हुईं. वहीं पतियों द्वारा शारीरिक प्रताड़ना या यौन हिंसा की बात करें तो 18 से 49 आयु वर्ग की 40 प्रतिशत महिलाएं उत्पीड़न की शिकार हुईं. वहीं गर्भावस्था के दौरान 2.8 फीसद शारीरिक प्रताड़ना की शिकार हुईं.

पत्रकार एसके पांडेय कहते हैं, "महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों में जितनी ही कमी आई है, उसमें सर्वाधिक योगदान शराबबंदी का है. जो पुरुष शराब से दूर हुए, वे परिवार पर ध्यान देने लगे. आर्थिक कलह उत्पीड़न का सबसे कारण माना जा सकता है. जहां तक गांवों में यौन हिंसा की बात है, उसमें शहरी बुराइयों का बड़ा योगदान है जो इंटरनेट या फिर अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के सहारे वहां तक पहुंच गईं हैं."

कोरोना के दौरान घरेलू हिंसा भी बढ़ी

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट से इतर कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा में खासा इजाफा हुआ. महिला थाने की प्रभारी आरती कुमारी जायसवाल कहतीं हैं, "लॉकडाउन के कारण घरेलू हिंसा के मामलों में दो से तीन फीसद का इजाफा हुआ. यही वजह है इस साल यहां 142 ऐसे मामले दर्ज किए गए."

मनोचिकित्सक रमण कुमार कहते हैं, "लॉकडाउन के कारण आर्थिक तंगी, धैर्य की कमी और फिर सेक्सुअल डिमांड पति-पत्नी के बीच विवाद का कारण बना जिसकी परिणति अंतत: उत्पीड़न के तौर पर सामने आई." वजह चाहे जो भी हो समाज का नजरिया महिलाओं के प्रति आज भी उतना उदार नहीं है. जबतक दृष्टिकोण परिवर्तित नहीं होगा, तबतक ऐसी कुरीतियों का अस्तित्व समाज में बरकरार ही रहेगा.

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