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समाजएशिया

बस्तर के सिलगेर में क्यों नहीं रुक रहा संघर्ष

हृदयेश जोशी
८ जून २०२१

बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सड़कों का बनना माओवादियों के लिए सिरदर्द है और वह हर हाल में ये काम रोकना चाहते हैं. इसलिए सिलगेर में चल रहे ग्रामीणों के विरोध के पीछे माओवादियों के समर्थन से भी इनकार नहीं किया जा सकता.

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Indien  Ureinwohner in Chattisgarh  Protest
तस्वीर: Hridayesh Joshi/DW

दक्षिण बस्तर के सिलगेर गांव में एक महीने से आदिवासी धरने पर बैठे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार की ओर से कोई बड़ी पहल होती नहीं दिख रही. मंगलवार को सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रायपुर में मुख्यमंत्री और राज्यपाल से मुलाकात की और मामले में दखल देने की मांग की. राज्य सरकार पहले ही कह चुकी है कि सिलगेर में सड़क और पुलिस कैंप बनाने के अभियान पर वह अडिग है.

पिछली 17 मई को विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई पुलिस फायरिंग में कम से कम 3 लोग मारे गए और 18 घायल हो गए. बस्तर के इस गांव में ग्रामीण सीआरपीएफ कैंप लगाने का विरोध कर रहे हैं. पुलिस कहती है कि ग्रामीणों की आड़ में नक्सलियों की ओर से की गई फायरिंग का जवाब दिया गया जिसमें ये लोग मारे गए.

ग्रामीण क्यों कर रहे हैं कैंप का विरोध? 

आदिवासी उस सीआरपीएफ कैंप का विरोध कर रहे हैं जो पिछले महीने सुकमा जिले के सिलगेर गांव में लगाया गया. ग्रामीणों का कहना है कि सीआरपीएफ के जवान जंगल में वन उपज बटोरने के लिए आने-जाने वाले लोगों से पूछताछ करते हैं, उन्हें रोकते हैं और परेशान करते हैं. उनके मुताबिक यहां कैंप लगने से उनकी यह समस्या और बढ़ेगी जबकि सीआरपीएफ और पुलिस का कहना है कि वह सिर्फ माओवादियों को खदेड़ने के लिए कैंप लगा रही है और आम ग्रामीणों से उसे कोई दिक्कत नहीं है.

एक और विवाद इस इलाके बन रही सड़क को लेकर है जिसका ग्रामीण विरोध कर रहे हैं. वह नहीं चाहते कि सरकार यहां कोई बहुत चौड़ी सड़क बनाए. मौके पर पहुंचे पत्रकारों से बातचीत में कई आदिवासियों ने कहा कि वह सड़क बनाने में सरकार का सहयोग करेंगे अगर वह उनके साथ मशविरा कर बने और केवल ग्रामीणों की जरूरत के हिसाब से बनायी जाए. आखिर इसका मतलब क्या है?

माओवादियों का "लिबरेटेड जोन”

सुकमा और बीजापुर जिले की सीमा पर बसा ये गांव माओवादियों के प्रभाव वाला "लिबरेटेड जोन” है और यहां उन्हीं की "जनताना सरकार” चलती है यानी आदिवासी और ग्रामीण नक्सलियों की ही बात मानते हैं. यहां काम करने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को माओवादियों को लेवी देनी पड़ती है और उनके मुखबिर हर ओर फैले होते हैं. ऐसे में इस इलाके रिपोर्टिंग के लिए जाने वाले पत्रकारों या एनजीओ से जुड़े स्वास्थ्य कर्मियों पर भी माओवादियों के मुखबिर नजर रखते हैं और भीतर जाने से पहले पूछताछ करते हैं.

जनताना सरकार में संघम, दलम और जन मिलिशिया के साथ सुरक्षा की कई परतें हैं जिनमें सशस्त्र काडर शामिल है. जाहिर है इन सबकी भर्ती के लिए ग्रामीणों के बीच से ही लड़के लड़कियों को चुना जाता है. इसका मतलब ये नहीं कि सभी ग्रामीण आदिवासी नक्सलियों के साथ हैं लेकिन उन पर माओवादियों का साथ देने का दबाव जरूर होता है. इसमें से ज्यादातर मजबूरी में ये काम करते हैं और पुलिस के शक के दायरे में रहते हैं.

Indien  Ureinwohner in Chattisgarh  Protest
आदिवासियों की चिंतातस्वीर: Hridayesh Joshi/DW

"सड़क आने से फोर्स बढ़ेगी”

यह महत्वपूर्ण है कि आदिवासी सड़क का नहीं पुलिस कैंप का विरोध कर रहे हैं और सड़क अपनी जरूरत मुताबिक ही चाहते हैं. वह साफ कहते हैं कि सड़क आने से फोर्स (सीआरपीफ और पुलिस बल) आएगी और वह पुलिस को यहां नहीं चाहते. वजह पूछने पर ग्रामीणों को माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष तेज होने का डर है जिसमें वह फंस जाते हैं.

रघुराम नाम के आदिवासी ने कहा, "सरकार फोर्स को लाने के लिए सड़क बना रही है. इससे हमारी मुसीबत बढ़ेगी.” माओवादी भी यही चाहते हैं कि सड़क न बने तो क्या आदिवासी माओवादियों के साथ हैं? आदिवासियों का कहना है कि वह ऐसी सड़क चाहते हैं जो अस्पताल, स्कूल और अनाज लाने में मददगार हो लेकिन सरकार काफी चौड़ी सड़क बना रही है जो "ऑपरेशन की प्लानिंग” के लिहाज है. 

सड़क का रणनीतिक महत्व

इस बात में कोई शक नहीं कि बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सड़क माओवादियों के लिए सिरदर्द है और वह हर हाल में ये काम रोकते हैं. इसलिए सिलगेर में चल रहे विरोध के पीछे माओवादियों के समर्थन से भी इनकार नहीं किया जा सकता. पुलिस अधिकारियों के मुताबिक अगर कैंप नहीं लगेंगे तो सड़क बनाने के लिए कोई ठेकेदार या कंपनी तैयार नहीं होगी क्योंकि उन्हें सुरक्षा चाहिए. सड़कें पुलिस को नक्सलियों के खिलाफ जंग में रणनीतिक बढ़त देती हैं इसलिए माओवादी अक्सर अपने प्रभावक्षेत्र में जाने वाली सड़कें खोद देते हैं ताकि पुलिस बल वहां न पहुंच सकें.

पक्की सड़क पर पुलिस का मूवमेंट तेजी से हो सकता है और उस पर निगरानी रखना आसान होता है. दूसरी ओर माओवादियों के लिए ऐसी सड़क पर बारूदी सुरंग बिछाना कठिन होता है. छत्तीसगढ़ के सिलगेर में बन रही सड़क तर्रेम गांव से होते हुए अंदरूनी जगरगुंडा तक जाएगी. तर्रेम में पिछले साल अक्टूबर में ही सीआरपीएफ कैंप लगा जहां से सुरक्षा बलों ने कुछ महत्वपूर्ण ऑपरेशन चलाए. पुलिस कहती है कि इस क्षेत्र में अपने दबदबे को मिल रही चुनौती से माओवादी परेशान हैं और गांव वालों को उकसा रहे हैं. 

बस्तर के आई जी (पुलिस प्रमुख) पी सुंदर राज ने डीडब्ल्यू को बताया, "पिछले दो साल में हमने पूरे बस्तर में 29 नए सीआरपीएफ कैंप लगाए जिनमें से अधिकतर दक्षिण बस्तर में हैं जहां माओवादियों के गढ़ हैं. यहां जो सड़कें 1980 और 1990 के दशक में खुली थीं वह माओवादियों ने बंद कर दीं. हम इन्हें दोबारा खोल रहे हैं. माओवादी जनता की आड़ लेकर इसका विरोध कर रहे हैं."

संवाद की खाई पाटने की जरूरत

जानकार कहते रहे हैं कि बस्तर में चल रहे संघर्ष में सफल होने के लिए आम जनता यानी ग्रामीणों को अपनी ओर करना जरूरी है. यह महत्वपूर्ण है कि करीब एक महीने बाद भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से सिलगेर में चल रहे प्रदर्शन को लेकर कोई बयान नहीं आया है. आई जी सुंदरराज कहते हैं, "मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिनिधि पुलिस की कोशिशों से खुश हैं और हमारे साथ हैं लेकिन वह खुलकर बोलने से डरते हैं कि कहीं नक्सलियों के निशाने पर न आ जायें."

इस बीच बस्तर में नक्सलियों के साथ शांतिवार्ता की बातें उठती रही हैं हालांकि पिछले कुछ दिनों में माओवादियों के बयानों में वार्ता के लिए कोई खास रुचि नहीं दिखती. इसी साल 12 मार्च को नक्सलियों ने 'वक्त की मांग वार्ता नहीं आंदोलन' नाम से पर्चा जारी किया और 'शांतिमार्च' और मध्यस्थता की कोशिश कर रहे पूर्व पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी को 'कॉरपोरेट दलाल' और 'छद्म पत्रकार'  करार दिया.

हालांकि शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं कि माओवादी भले ही मुझे बुरा भला कहें लेकिन वह भी जानते हैं कि वह (नक्सली) जो कुछ कर रहे हैं उसका बहुत भविष्य नहीं है. उनके मुताबिक अगर माओवादी वार्ता नहीं चाहते तो बीच-बीच में इसके लिए शर्तें क्यों रखते हैं. चौधरी कहते हैं, "बस्तर में अभी दोनों ओर आदिवासी ही मर रहे हैं. माओवादी भी जानते हैं कि उनके संघर्ष से कोई क्रांति होने वाली नहीं और न ही जल जंगल जमीन की रक्षा होगी. सरकार और माओवादियों को समझना होगा कि शांति और संसाधनों की रक्षा के लिए वार्ता ही जरूरी है. इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व व सरकार दोनों को सक्रिय पहल करनी चाहिए."

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