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राजनीतिसंयुक्त राज्य अमेरिका

बड़े देशों की होड़ के कारण दुनिया में बढ़ी सहयोग की दिक्कतें

विलियम यांग
१६ मई २०२२

पश्चिमी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों और चीन के नेतृत्व में कुछ निरंकुश देशों के बीच बढ़ती होड़, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के सामने एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है.

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चीन और अमेरिका की होड़ से मुश्किलें बढ़ी हैं
चीन और अमेरिका की होड़ से मुश्किलें बढ़ी हैंतस्वीर: Dwi Anoraganingrum/Geisler-Fotopress/picture alliance

पिछले कुछ महीनों में अमेरिका के नेतृत्व में कई लोकतांत्रिक देश एक संयुक्त मंच बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि रूसी आक्रमण झेल रहे यूक्रेन की मदद की जा सके. 

ये देश रूस पर सामूहिक दबाव बनाने की कोशिशों के अलावा चीन की कूटनीतिक कोशिशों पर भी नजर बनाए हुए हैं. खासकर चीन की उन कोशिशों पर, जिसके जरिए वो अपनी ही तरह के प्रभुत्ववादी देशों के साथ संबंधों को मजबूत बनाने में लगा है.

इस साल फरवरी में जब से रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण किया है, पश्चिमी देश रूस को सैन्य सहायता देने को लेकर चीन को लगातार चेतावनी दे रहे हैं.

इस हफ्ते, कुछ वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों ने रॉयटर्स न्यूज एजेंसी को बताया कि उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा है कि चीन ने रूस को किसी तरह की कोई सैन्य या आर्थिक सहायता दी है.

इसके बावजूद, चीन की सरकार यूक्रेन में रूसी गतिविधियों की निंदा करने को तैयार नहीं है.

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तस्वीर: Rod Lamkey/CNP/picture alliance--Shen Hong/picture alliance/Xinhua

चीन के आदर्श भागीदार

पिछले दो महीनों में चीन ने म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ भी कई क्षेत्रों में सहयोग और लेन देन के मकसद से कई उच्च स्तरीय बैठकें कीं. इसके अलावा अफगानिस्तान में चल रहे मानवीय और आर्थिक संकट पर चर्चा के लिए भी एक बहुराष्ट्रीय बैठक की थी.

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इन इलाकों में स्थिरता सुनिश्चित करना चीन के हित में है क्योंकि इन सभी देशों की सीमाएं चीन से लगती हैं. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में राजनीति शास्त्र के विशेषज्ञ इयान चोंग कहते हैं, "इन देशों से चीन के संपर्क करने के पीछे एक स्वाभाविक वजह है.”

ऐसा नहीं है कि चीन सिर्फ प्रभुत्ववादी देशों तक ही अपनी पहुंच बढ़ाना चाहता है, लेकिन इनसे जुड़ने की एक बड़ी वजह यह है कि ये देश उसके लिए आदर्श सहयोगी हैं. इन देशों के साथ वो जो भी सौदे करता है, उन्हें बहुत ज्यादा जांच और निगरानी के दायरे में नहीं रहना पड़ता.

चोंग कहते हैं, "ऐसी स्थिति में जबकि चीन कई देशों तक अपनी पहुंच बना रहा है, तो ऐसे में उन देशों के प्रतिरोध को भी संभाला जा सकता है जो ऐसे सौदों की जांच-परख करने की कोशिश करते हैं. ये आसानी से सौदों पर बिना किसी राजनीतिक दबाव के टिके रह सकते हैं.”

रूस और चीन की करीबी से भी मामला उलझ रहा है
रूस और चीन की करीबी से भी मामला उलझ रहा हैतस्वीर: DW

अमेरिकी नेतृत्व वाले आदेश को चीन की चुनौती

हेलसिंकी विश्वविद्यालय में विजिटिंग रिसर्चर आर्हो हैवरेन कहती हैं कि चीन अपनी हालिया कार्रवाइयों के साथ, यह संकेत दे रहा है कि वह अमेरिकी नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अब वैध नहीं मानता.

डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अभिजात्य वर्ग का मानना है कि वह स्थिरता और आर्थिक विकास के साथ शासन के एक बेहतरीन स्वरूप का उदाहरण पेश कर रहा है, खासकर हाल ही में जिस तरीके से उसने कोविड महामारी से निपटने की कोशिश की.”

हैवरेन आगे कहती हैं, "चीन के विकास और दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के तौर पर अमेरिका को चुनौती देने की गूंज सबसे ज्यादा दुनिया के दक्षिणी हिस्से में सुनाई पड़ती है. चूंकि चीन मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को नहीं स्वीकार करता, और ऐसा करके वो उसे चुनौती दे रहा है जिससे उसे बहुत ज्यादा नुकसान भी नहीं है.”

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पिछले महीने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक ‘वैश्विक सुरक्षा पहल' का प्रस्ताव रखा जो कि हर साल होने वाले बोआओ एशिया फोरम के दौरान ‘अविभाज्य सुरक्षा' के सिद्धांत को बनाए रखेगा. उनके मुताबिक, सभी देशों की ‘वैध' सुरक्षा चिंताओं को ध्यान में रखते हुए दुनिया को भी देशों की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करना चाहिए.

शी जिनपिंग ने कहा, "हमें अविभाज्य सुरक्षा के सिद्धांत को बनाए रखना चाहिए, एक संतुलित, प्रभावी और टिकाऊ सुरक्षा तंत्र का निर्माण करना चाहिए और दूसरे देशों में असुरक्षा के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के निर्माण का विरोध करना चाहिए.”

चीन तालिबान के साथ भी सहयोग बढ़ाने की कोशिश में है
चीन तालिबान के साथ भी सहयोग बढ़ाने की कोशिश में हैतस्वीर: Zhou Mu/Xinhua/AP/picture alliance

हालांकि शी जिनपिंग की इस पहल का विवरण अभी भी बहुत स्पष्ट नहीं है, लेकिन मध्य और पूर्वी यूरोप पर चीन और रूस के प्रभाव का अध्ययन करने वाली संस्था मैपइंफ्लुएंसईयू की संस्थापक और नेता इवाना कार्साकोवा कहती हैं कि उनका इशारा विकासशील देशों की ओर था.

वो कहती हैं, "इसका मकसद विकासशील देशों के साथ साझा विकास, औपनिवेशिक दौर के ऐतिहासिक अनुभव और संप्रभुता और गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांतों पर जोर देना है.”

अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बड़ा झटका

चीन और अमेरिका दोनों ही देश समान विचारों वाले देशों के साथ अपने संबंध मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं और इस कोशिश के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि दोनों ही देश मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं और प्रतिस्पर्धा का यही डर दोनों को ऐसा करने पर मजबूर कर रहा है.

हैवरेन कहती हैं, "अब हम एक ऐसे चरण में पहुंच गए हैं जहां भौगोलिक रूप से समान तमाम देश अपनी रणनीतिक और जरूरतों के हिसाब से जागृत हो चुके हैं और सरकारी सब्सिडी पाने वाली चीनी कंपनियों से अपनी खुली अर्थव्यवस्था को बचाने में लग गए हैं और बदले में अपनी शर्तों पर जोर देने लगे हैं.”

वो आगे कहती हैं, "उभरते हुए ये दो देश और इन दोनों की प्रतिस्पर्धा सभी क्षेत्रों में फैल जाएगी, चाहे वो रक्षा क्षेत्र हो, व्यापार हो, निवेश हो या फिर तकनीकी. इसलिए मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चीन और रूस के नेतृत्व वाले कमजोर गठबंधन की ओर से चुनौती दी जा रही है जबकि पश्चिमी लोकतांत्रिक देश इस चुनौती का डटकर सामना कर रहे हैं.”

हैवरेन का अनुमान है कि यह प्रतिद्वंद्विता अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए एक बड़ा झटका है, जो कि पहले से ही जीर्ण-शीर्ण होने के खतरे से जूझ रही हैं और यूक्रेन युद्ध जैसी ज्वलंत समस्याओं को सुलझाने में अक्षम साबित हुई हैं.

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सहयोग का स्तर बनाए रखना

दोनों खेमों के बीच बढ़ती खाई के बावजूद, पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों को अभी भी उम्मीद है कि वो चीन के साथ जलवायु परिवर्तन जैसे कुछ मुद्दों पर सहयोग के स्तर को बनाए रखेंगे. हालांकि, बढ़ती प्रतिस्पर्धा और गहराते अविश्वास को देखते हुए यह आसान नहीं दिख रहा है.

जलवायु मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष दूत जॉन केरी ने हाल ही में कहा था कि अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते मतभेदों की वजह से दोनों देशों के बीच जलवायु सहयोग काफी कठिन हो गया है. वो आगे कहते हैं कि इसकी वजह से दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध भी काफी जटिल हो गए हैं.

नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के चोंग भी कहते हैं कि चीन को जलवायु परिवर्तन रोकने संबंधी प्रयासों के करीब लाना अब मुश्किल होता जा रहा है.

वो कहते हैं, "हर कोई मानता है कि हर देश को पर्यावरण पर ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन अंतर यही है कि इस पर अमल कौन अधिक करता है और कौन कम करता है. साथ ही, जो देश पहले विकसित हुए हैं वे दूसरों को यह बताते रहते हैं कि क्या करना है और इसकी वजह से कई बार तनाव पैदा होते हैं.”

चोंग जोर देकर कहते हैं कि सभी देश इस मामले में एक साथ काम करने की जरूरत को समझते हैं लेकिन ज्यादा सक्रिय सहयोग केवल कुछ खास मुद्दों पर ही हो सकता है, सभी मुद्दों पर नहीं.