बंद होने को है टाइपिंग की खट खट
३० दिसम्बर २०१७राजबाला 1998 से दिल्ली में टाइपिस्ट का काम कर रही हैं. पिछले बीस सालों से वह लोगों के लिए एफिडेविट, प्रॉपर्टी के कागजात और अन्य कानूनी दस्तावेज टाइप कर रही हैं. सालों पहले उन्होंने एक पुरानी टाइपिंग मशीन खरीदी थी. हर दिन वे इससे तीन सौ से चार सौ रुपये कमाती हैं. राजबाला बताती हैं, "मैनुअल टाइपिंग है, भारी है, कहीं गिर भी जाए, तो कोई नुकसान नहीं होता. इसमें कोई बिजली की भी परेशानी नहीं. ना तो प्रिंटर की जरूरत पड़ती है और ना ही किसी और चीज की. सिर्फ मशीन है और टेबल है, बस."
राजबाला का कहना है कि उन्होंने जिंदगी में बस एक ही काम सीखा है, वह है टाइपिंग और इसे वह किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगी. उन्होंने कहा, "देखिये, यह मेरी कमाई का जरिया है. जैसे एक बच्चे से प्यार होता है, वैसे ही इससे है. मैं जिंदगी भर टाइप करूंगी"
लेकिन इस मशीन का अंत अब नजदीक है. अब टाइपिंग सीखने में भी किसी की रुचि नहीं बची है. जैसे जैसे भारत आधुनिक हो रहा है, डिजिटल दुनिया की तरफ बढ़ रहा है, वैसे वैसे इस पुरानी तकनीक से लोग दूर होते चले जा रहे हैं.
यही वजह है कि राजेश पाल्टा जैसे लोगों की दुकानें भी अब बंद होने लगी हैं. इनका परिवार 1930 के दशक से दिल्ली में टाइपराइटर बेचता रहा है. लेकिन कंप्यूटर के आने के बाद से कारोबार मंदा हो गया और इन्हें अपनी दुकान को बचाने के लिए नयी तरकीबें सोचनी पड़ीं. राजेश कहते हैं, "मैं पिछले कुछ वक्त से बहुत परेशान था और मुझे इस कारोबार का अंत नजर आ रहा था. टाइपराइटर के ज्यादातर डीलरों ने तो अपनी दुकानें बंद कर ही दी लेकिन मैं डटा रहा क्योंकि यह मेरा पैशन है."
पुरानी तकनीक को बचाए रखने के लिए राजेश ने नयी तकनीक का सहारा लिया. अपने पास रखे टाइपराइटरों की कीमत का अंदाजा लगाने के लिए राजेश नियमित रूप से वेबसाइटों को देखते रहते हैं. मॉडर्न लुक वाले पोर्टेबल टाइपराइटर करीब दस हजार रुपये में बिकते हैं. राजेश के पास सौ दुर्लभ मशीनों का कलेक्शन भी है. इनमें से कुछ अस्सी साल से भी ज्यादा पुराने हैं. फिलहाल तो यही लगता है कि टाइपराइटर अब कुछ हुनरमंद लोगों के हाथ में ही बच पाएगा. इसकी मंजिल अब या तो म्यूजियम की शेल्फ हैं या फिर पुरानी चीजों का संग्रह बनाने वालों के घर.
बेटिना थोमा शाडे/आईबी