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फिर आया साल का वह वक्त

३० नवम्बर २०१३

क्रिसमस का वक्त धीरे धीरे आ रहा है. लेकिन मैं सोच रही हूं कि कहीं यह वही वक्त तो नहीं, जब "बलात्कार और छेड़छाड़" की घटनाएं तेज हो जाती हैं.

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तस्वीर: AFP/Getty Images

आज जो मैं सवाल खुद से पूछने जा रही हूं कि क्या बलात्कार और बलात्कार का विरोध हमारे लिए समय काटने का जरिया बनता जा रहा है. जैसे ही मेरे आईफोन के ऐप ने एक और बलात्कार की खबर को फ्लैश किया, उसकी आवाज सुनते ही मैं कह उठी, "नहीं, अब नहीं."

इस बार असम की 31 साल की एक महिला की बारी थी. वह अपनी छह साल की बेटी के साथ स्कूल से लौट रही थी. तभी चार लोगों ने उसका बलात्कार किया और बाद में चलती गाड़ी से बाहर फेंक दिया. अब अगर मैं यह देखने की कोशिश करूं की बलात्कारियों ने क्या कुछ किया, तो मुझे खुद को ही कष्ट होगा. हो सकता है कि सामाजिक कार्यकर्ता इसके लिए सामाजिक असंतुलन को जिम्मेदार ठहराएं, हो सकता है कि शहरों की बढ़ रही संख्या को दोषी माना जाए, हो सकता है कि बाहर से आ रहे मजदूर कसूरवार बता दिए जाएं. लेकिन इनमें से कोई भी वजह यह नहीं बता पाएगी कि महिलाओं के खिलाफ यह जुल्म क्यों हो रहा है.

पिछले साल दिल्ली बलात्कार कांड के बाद देश ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन देखा. इस साल भी प्रदर्शन हुए. महिलाओं के संगठन ने असमपुर में लखीमपुर के पास राजमार्ग को जाम कर दिया, जहां बलात्कार की घटना हुई. बाद में उन्हें दिलासा दिया गया कि दोषियों को सजा दी जाएगी और वे हट गईं. हो सकता है कि इसके बाद शहर में धीरे धीरे हालात भी सामान्य हो जाएं.

Deutschland Bummel über den Weihnachtsmarkt in Bonn 2012 Weihnachts-Fantasie
बॉन में क्रिसमस की चहल पहलतस्वीर: DW

लेकिन पुरुषों के दिमाग में क्या चल रहा होता है कि वे ऐसी हरकत करते हैं. मैंने अपने साथ काम करने वाले साथी से पूछा कि आखिर क्या वजह होती है की मर्द औरतों को छेड़ बैठते हैं.

एक का कहना है कि मर्दों को अपनी सीमा का पता नहीं होता. जब भारत में पुरुष गुट बना कर कहीं जाते हैं, तो वे आसानी से अपनी सीमा भूल जाते हैं. उन्हें पता ही नहीं होता है कि फ्लर्टिंग कब छेड़छाड़ में बदल जाती है. अब हम ऐसे वाकये की बात कर रहे हैं, जहां एक ट्रेन में 93 लड़कियों के साथ छेड़खानी हुई. यह मामला बिहार का है, जो वैसे भी अपराध की वजह से बदनाम राज्य है.

मेरे एक साथी का तो कहना है कि कई मर्दों की मानसिकता ऐसी भी होती है कि अगर वे महिलाओं के साथ ऐसा करेंगे, तो वे "ताकतवर" कहलाएंगे. लेकिन यह भी है कि इन सबके पीछे सामाजिक परिवेश और परवरिश के तरीके छिपे हैं.

हिन्दी फिल्मों में अक्सर हीरो सड़क के बीच में अपनी मोटरसाइकिल पार्क करके हीरोइन का स्कार्फ खींच लेता है. यह उनके प्यार के इजहार का तरीका होता है. जहां तक हम महिलाओं का सवाल है, हमें पता नहीं होता कि ये कैसा प्यार है. हालांकि हमें अच्छा लगता है कि कोई लड़का किसी बाजार में चुपके से हमें देखने की कोशिश करता है, हमें अच्छा लगता है कि अगर उसका आकर्षण हमारी तरफ होता है. यह भी तो हिन्दी फिल्मों की ही तरह है.

लेकिन इसके लिए फिल्मों को क्यों दोष देना है. अगर हकीकत में देखा जाए, तो प्यार में पड़ा एक लड़का शायद ही इसका इजहार कर पाता है. न तो वह अपनी खुशी साझा कर पाता है और ना ही बाद में दिल टूटने का गम. भारतीय परिवारों में ऐसी बातें नहीं की जा सकती हैं. भारतीय समाज में किसी पुरुष को यूं ही किसी महिला से मिलने का अधिकार नहीं होता है.

और प्यार में जले हुए भारतीय पुरुषों के सामने दो विकल्प होते हैं. या तो वह उस महिला से बदला ले, जिसने उसे ठुकरा दिया है और उसके चेहरे पर तेजाब फेंक दे. या फिर वह खुद को शराब के नशे में डुबा दे और फौरन दूसरी औरत की तलाश शुरू कर दे. या फिर वह स्कूल जाती लड़कियों के साथ छेड़खानी करे.

मुझे लगता है कि हम असभ्य हैं. बलात्कार की वजह के लिए दूसरी कोई व्याख्या भी तो दिमाग में नहीं आती. हम सड़क पर कचरा फेंकते हैं और घरों में काम करने वालों की पिटाई करते हैं. हम अपनी औरतों और यहां तक कि बच्चों को भी सेक्स के लिए मजबूर करते हैं. देह व्यापार के लिए उनका सौदा कर लेते हैं.

आखिर इसकी क्या वजह है, क्या चांद के घटने बढ़ने का इससे संबंध है. क्या इसलिए बलात्कार की बुरी घटनाएं सिर्फ साल के आखिर में होती हैं. हो सकता है कि हम सामूहिक मानसिक बीमारी से गुजर रहे हों. हो सकता है कि इस सवाल के जवाब खोजते खोजते मेरे सिर में दर्द हो जाए और मुझे संयम के लिए ध्यान करना पड़े.

मैं तो यह भी नहीं सोचना चाहती कि रेप की पीड़ितों पर क्या बीतती होगी. मैं तो अपने किस्मत का शुक्रिया अदा करूंगी कि नई दिल्ली में पढ़ते वक्त मुझे कभी ऐसे मौके का सामना नहीं करना पड़ा. और ना ही बॉन में रहते हुए. अच्छा है कि नवंबर खत्म हो रहा है. गुलाबी सर्दी आ चुकी है, बाजार क्रिसमस की रौनक से सजा है, बलात्कार की मनहूस खबरों से नहीं.

ब्लॉगः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः अनवर जे अशरफ

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