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फिर आई 9/11 की याद...

११ सितम्बर २०१३

आधुनिक दौर में किसी एक दिन को सिर्फ उसकी तारीख से सबसे ज्यादा जाना गया है तो वो शायद 11 सितंबर ही है. वह दिन जिसने दुनिया की छाती पर नफरत, गुबार, खून और बर्बादी की दरारों से भरी गहरी लकीर खींच दी.

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तस्वीर: AP

आज ही के दिन अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले में विमानों को अगवा कर अमेरिकी ठिकानों से टकरा दिया गया. 11 सितंबर को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के टावरों के साथ दुनिया के दिल से भरोसे की दीवार भी गिर गई और झुंझलाहट से भरे एक राष्ट्रपति ने एलान कर दिया कि आज के बाद दुनिया कभी पहले जैसी नहीं रहेगी.

तब से इस हमले की बर्बादी इंसानियत के दामन पर अपने निशान बनाती जा रही है. 12 साल बीत गए हैं और न जाने तकलीफों भरे सालों की कितनी कहानी अभी लिखी जानी बाकी है. अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का मुख्य आरोपी अल कायदा का प्रमुख ओसामा बिन लादेन मारा गया, ट्विन टावरों वाली जगह से हमले के बाद फैला मलबा हटा कर जगह धो पोंछ कर साफ कर दी गई है, अमेरिका का राष्ट्रपति बदल गया लेकिन अफगानिस्तान अब भी धूल मिट्टी और बारूद से भरा है. अनिश्चितता, असमंजस और संकट का ऐसा सिलसिला है जो उसके पहलू से हटने का नाम ही नहीं ले रहा.

तबाही की शक्लें कितनी अलग होती हैं और वो क्या क्या रूप धर कर हमारे आपकी जिंदगी में आता है 11 सितंबर के हमलों ने हम सब को यह भी सिखा दिया. हमले से हुआ नुकसान सिर्फ धमाकों और गोलियों की आवाजों में ही नहीं गूंज रहा वह एक दूसरे को अविश्वास से भरी नजरों और हवाई अड्डों पर कपड़ों के अंदर झांकती निगाहों में भी है जिसकी चुभन हर घड़ी बढ़ रही है. नफरत अब सिर्फ दिल में ही नहीं सोच में भी उभर रही है, गुस्सा केवल आंखों की लाल लकीरों में नहीं नस्लों में पल रहा है, किसी खानदानी झगड़े की तरह. उलझनों में घिरे किसी किशोर के हाथों से आए दिन अंधाधुंध चलती गोलियां और लहुलूहान होते नौनिहाल संसार का चेहरा बिगाड़ रहे हैं.

ये तबाहियां दुनिया से कह रही हैं, कहीं कुछ है जो ठीक नहीं, ठीक होने की राह पर नहीं. तालिबान, अल कायदा नहीं, आतंकवाद नहीं, तेल, समंदर, ताकत नहीं नफरत के उस रक्तबीज को पहचानना होगा, जो हर गुजरते पल के साथ दुनिया के दिलों से दूरियां बढ़ा रहा है, लोगों को पास आने से रोक रहा है.

ब्लॉगः निखिल रंजन

संपादनः अनवर जे अशरफ