प्रासंगिक हो कथ्य और संदर्भ: अदिति
२८ फ़रवरी २०१४अदिति मंगलदास ने प्रसिद्ध नृत्यांगना कुमुदिनी लाखिया और शीर्षस्थ गुरु पंडित बिरजू महाराज से इस नृत्यशैली की शिक्षा प्राप्त की. अदिति की विशिष्टता इस बात में है कि उन्होंने कथक जैसी पारंपरिक नृत्यशैली को आधुनिक भावबोध से जोड़कर उसमें अनेक सफल प्रयोग किए और एकल कलाकार एवं कोरियोग्राफर दोनों के ही रूप में ख्याति अर्जित की. प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश:
कुछ अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताइये. कथक की तरफ कैसे रुझान हुआ? शुरुआत इसी नृत्य शैली से की या इसके पहले कोई और नृत्य भी सीखा?
मैंने पांच साल की उम्र में नृत्य करना शुरू किया लेकिन मेरे माता-पिता ने इसमें मेरी रुचि को इसके काफी पहले ही भांप लिया था. हम सब संयुक्त परिवार में दादी के साथ रहते थे और शाम को उनके इर्द-गिर्द बैठते थे. मुझे तो याद नहीं है पर मेरे माता-पिता बताते हैं कि मैं एक मेज पर चढ़ कर तरह-तरह की मुद्राएं और भाव-भंगिमाएं बनाया करती थी और सबसे उम्मीद करती थी कि वे मेरी सराहना करें और ताली बजाएं. इसी से मेरे माता-पिता ने मुझमें कुछ संभावनाएं देखीं और मुझे नृत्य, संगीत और यहां तक कि विज्ञान की सिखवाना शुरू कर दिया. लेकिन धीरे-धीरे और सब चीजें पीछे छूट गईं और केवल नृत्य रह गया. मुझे नहीं याद कि मैंने कभी खुद से कहा कि मुझे नृत्यांगना बनना है. यह तो मेरे विकास के क्रम में स्वयं ही होता गया. मेरे माता-पिता ने मुझे पहले भरतनाट्यम सीखने भेजा लेकिन मेरी सहेलियां कथक सीख रही थीं, तो मैं भी कथक ही सीखने लगी. कुछ दिन मैंने मणिपुरी शैली जरूर सीखी थी लेकिन मेरे व्यक्तित्व के लिए कथक की संरचना ही सबसे ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि इसमें प्रस्तुति के दौरान उसी क्षण कुछ नया करने की गुंजाइश अधिक है.
कथक में अक्सर रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों के प्रसंगों या फिर पौराणिक प्रसंगों को आधार बना कर प्रस्तुति की जाती है. क्या इसमें समकालीन विषयों को समाहित करने की क्षमता है? आपने तो इस दिशा में काफी प्रयास भी किए हैं. आपका अभी तक का अनुभव कैसा रहा?
यह सही है कि पहले कथक में मुख्यतः कृष्णलीला और पौराणिक प्रसंगों को ही प्रस्तुति का आधार बनाया जाता था. इस शैली का जन्म गंगा घाटी के मंदिरों में हुआ. कथक यानि कथा कहने वाले विभिन्न भंगिमाओं, मुद्राओं, संगीत, नृत्य और साहित्य के माध्यम से पौराणिक आख्यानों को प्रस्तुत करते थे. यह एक सामाजिक-धार्मिक घटना थी जिसमें दर्शकों की भी भागीदारी होती थी. फिर मुगलों का आक्रमण हुआ. वे कलाप्रेमी थे इसलिए इस नृत्यशैली को दरबारों में भी स्थान मिला. यहां शैली तो वही रही लेकिन उसका लक्ष्य शासकों का मनोरंजन बन गया और उसमें दैहिकता और नजाकत का समावेश हुआ. दैहिकता से आशय है बेहद जटिल ताल पैटर्न और लयकारी, ऐसा अंग संचालन जो एक ही साथ बहुत ही गत्यात्मक एवं लालित्यपूर्ण हो. इसके साथ ही उसमें नजाकत भी बहुत आ गई. आज जो कथक हम देखते हैं, वह इन्हीं सबसे मिलकर बना है. कथक हमेशा समकालीन रहा है, इसलिए यह कहना कि उसमें सिर्फ पौराणिक कथाओं को ही किया जा सकता है, ठीक नहीं है. हां, नये साहित्य या कथानक का इस्तेमाल बहुत सूझ-बूझ के साथ करना होगा. मैंने और दूसरे कलाकारों ने भी आधुनिक साहित्य का इस्तेमाल किया है और पुराने का भी. मैंने मीराबाई के अलावा भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा, अज्ञेय आदि की कविताओं पर कथक किया है तो अन्य कलाकारों ने तमिल कवियों, लालडेड वगैरह की कृतियों को लिया है. अंतरराष्ट्रीय साहित्य भी हमसे अनछुआ नहीं रह गया है. मैंने पाब्लो नेरुदा की कविताओं के अलावा ओरियाना फेलाची के “कभी न जन्मे बच्चे के नाम पत्र” को भी अपने नृत्य का विषय बनाया है. देखिये, कोई वर्जना नहीं होनी चाहिए. केवल यह देखना चाहिए कि जो विषय लिया जा रहा है, चाहे वह क्लासिकल हो या आधुनिक, भारतीय साहित्य से हो या विश्व साहित्य से, उसे कथक की शैली में रूपांतरित किया जा सकता है या नहीं.
अभिनय और भाव प्रदर्शन की कथक की अपनी रूढ़ियां हैं. क्या उसकी व्याकरण में किसी तरह का फेरबदल किया जा सकता है ? आप कुछ अपने प्रयोगों के बारे में बताइये.
सभी क्लासिकल नृत्यशैलियों का अभिनय एक अनिवार्य हिस्सा है. कथक में यह अन्य शैलियों की तुलना में अधिक सूक्ष्म एवं स्वाभाविक है क्योंकि इसमें चेहरे के भाव और हस्तमुद्राओं आदि का इस्तेमाल काफी लचीले ढंग से किया जाता है. हमारी सबसे ताजा प्रस्तुति थी “विदिन” (भीतर) जिसमें हमने अन्तर्मन के भीतर के द्वैत को, अच्छाई और बुराई को, नृत्य के माध्यम से व्यक्त किया था ताकि हिंसा हमारे जीवन पर हावी न हो जाए. यह अभिव्यक्ति न केवल चेहरे के भावों, आंखों और शब्दों के जरिये बल्कि संगीत, प्रकाश संयोजन, मंच सज्जा, पृष्ठभूमि आदि की संरचना के जरिये की गई थी.
युवा लोगों में कथक के प्रति कितनी रूचि है ? क्या यह नृत्य शैली अपने स्तर को आगे बरकरार रख पाएगी?
अगर हम अपनी सांस्कृतिक परंपरा को तालाब समझेंगे तो यह सूख जाएगी लेकिन यदि इसे नदी समझेंगे तो यह निरंतर अपना पुराविष्कार करती रहेगी. कुछ समय पहले मैं कुछ युवाओं से मिली जो बहुत ही ऊर्जावान और जागरूक थे. उन्हें हर चीज में दिलचस्पी थी, राजनीति, विश्व अर्थव्यवस्था, यहां तक कि पश्चिमी ऑपेरा में भी. लेकिन भारतीय शास्त्रीय नृत्य में नहीं. हमारा देश लगातार युवा होते जाने वाला देश है. हमें नृत्य को इस तरह प्रस्तुत करना सीखना होगा जो उनके मस्तिष्क को चुनौती दे सके, अपनी ओर खींच सके. उसका कथ्य और संदर्भ उनके लिए प्रासंगिक होना चाहिए, तभी वे उसके साथ जुड़ेंगे.
आपकी भावी योजनाएं क्या हैं?
बहुत-सी हैं. जनवरी और फरवरी में हम बहुत व्यस्त रहे. हमने “विदिन” का प्रीमियर सितंबर में दिल्ली में किया था. अब उसे लेकर मार्च में हम मुंबई तथा कई अन्य जगह जाएंगे. ब्रिटेन में कई जगह उसे प्रस्तुत करना है जिसकी शुरुआत लंदन के एलकेमि समारोह से होगी. बाद में जर्मनी जाने की भी संभावना है.
इंटरव्यू: कुलदीप कुमार
संपादन: महेश झा