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अमेरिका से पंगा ले पाएगा चीन?

वेस्ली रान
१ दिसम्बर २०१८

चीन ने एशिया प्रशांत महासागर में अपना प्रभाव मजबूत करने के लिए हाल में कई बड़े कदम उठाए हैं. लेकिन इस सागर में चीन की बढ़ती ताकत का मतलब है कि उसे अमेरिका से टकराना होगा.

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Hongkong Flugzeugträger USS Ronald Reagan
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Kin Cheung

पिछले दिनों इंडो पेसेफिक में अमेरिकी बलों के कमांडर एडमिरल फिलिप डेविडसन ने हेलीफेक्स इंटरनेशनल सिक्योरिटी फोरम को बताया कि अमेरिका मुक्त और खुले "इंडो पेसेफिक" की संभावना की रक्षा करेगा. इस क्षेत्र को अमेरिका इंडो पेसेफिक ही कहता है. डेविडसन ने कहा, "अमेरिका प्रशांत क्षेत्र में एक स्थायी शक्ति है, और इसमें कोई बदलाव नहीं होगा. हम चाह कर भी इसे अकेला नहीं छोड़ सकते हैं."

इसी साल एडमिरल डेविडसन ने अपनी नियुक्ति की सुनवाई के दौरान कहा था कि चीन 'युद्ध की किसी भी स्थिति में' दक्षिण चीन सागर में दबदबा कायम करने में सक्षम है. प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और चीन के बीच राजनीतिक और नौसैनिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ रही है. इसकी वजह दक्षिणी चीन सागर क्षेत्र, सागरीय नेविगेशन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय सीमा विवादों को लेकर तनाव है.

हाल में उच्च स्तरीय शिखर सम्मेलनों और द्विपक्षीय बैठकों से साफ होता जा रहा है कि चीन इस क्षेत्र में आर्थिक और रणनीतिक एजेंडे के निर्धारण में अग्रणी भूमिका निभाना चाहता है. इसी वजह से चीन और अमेरिका के बीच क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता उभर रही है.

वॉशिंगटन के सेंटर फॉर स्ट्रैटिजक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में एशिया मैरीटाइम ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इनीशिएटिव के निदेशक ग्रेगोरी पोलिंग कहते हैं कि चीन क्षेत्र के बाकी देशों को भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहा है कि चीन का विरोध करने की बजाय उसके साथ सहयोग कहीं ज्यादा फायदेमंद है. वह कहते हैं, "अगर चीन उन देशों का भरोसा जीतने में कायमाब रहता है जिन्हें अमेरिका खो चुका है, तो फिर एशिया के देश चीन की तरफ आएंगे क्योंकि फिर उन्हें कोई और विकल्प नहीं दिखाई देगा."

चीन लगातार ऐसी कोशिशों में जुटा है. वह एशियाई देशों को ऋण दे रहा है, उनके यहां बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए करार किए जा रहे हैं और सैन्य सहयोग बढ़ाया जा रहा है.

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चीन दक्षिणी चीन सागर के ज्यादातर हिस्से पर अपना संप्रभु अधिकार समझता है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक इस पर विवाद है. इस सागर में कभी निर्जन पड़े रहे वाले टापूओं पर चीन बड़ी सैन्य तैनातियां कर रहा है.

अमेरिकी नौसेना दक्षिणी चीन सागर में अकसर 'फ्रीडम ऑफ नेविगेशन' नाम के अभियान चलाती है. इस दौरान, अमेरिकी नौसैनिकों की समंदर में गश्त करने वाली चीनी नौकाओं से तनातनी भी हुई है. चीन ने बार बार मांग की है कि अमेरिकी नेवी ऐसी अभियानों को रोके. सितंबर में ऐसे ही एक अभियान के दौरान एक अमेरिकी डेस्ट्रोयर नौका चीनी डेस्ट्रॉयर से लगभग टकरा गई थी, जिसे 'आक्रामक करतब' करार दिया गया था.

दक्षिणी चीन सागर में चीनी और अमेरिकी पोतों के बीच लगातार संपर्क होता रहता है. अमेरिकी रीयर एडमिरल कार्ल थॉमस ने समाचार एजेंसी एपी के साथ बातचीत में कहा कि यह संपर्क बहुत ही 'पेशेवर तरीके से' होता है और नौकाओं के टकराने की घटना बहुत ही दुर्लभ बात है.

पोलिंग का कहना है, "मैं नहीं समझता कि कोई भी दक्षिणी चीन सागर में एक दूसरे से टकराना चाहता है. मुझे लगता है कि चीन के सामने बहुत अच्छा मौका है कि बिना एक भी कारतूस दागे वह अपना दबदबा कायम कर सकता है. इसे रोकने के लिए अमेरिका को जिस तरह का निवेश करना चाहिए था, वह उसने नहीं किया." वह कहते हैं कि चीन अपना दबदबा कायम करने के लिए लगातार कोशिशें कर रहा है और उसने दुनिया को संदेश भी दे दिया है कि उसका इरादा दक्षिणी चीन सागर को नियंत्रित करने का है.

अमेरिका के राष्ट्रीय रक्षा रणनीति आयोग ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा कि अमेरिकी सेना की सर्वोच्चता को 'खतरनाक हद' तक नुकसान हुआ है. पोलिंग कहते हैं कि अमेरिका और चीन की सेना के बीच अंतर लगातार कम हो रहा है. उनके मुताबिक चंद दशकों में चीन अमेरिका के बराबर आ जाएगा.

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ऐसे में सवाल यह है कि क्या अमेरिका इंडो पेसेफिक क्षेत्र में अपने सहयोगियों के हितों की रक्षा के लिए चीन से उलझने के बारे में सोचेगा? अमेरिकी जनता चीनी आक्रमण से सहयोगी देशों को बचाने का तो समर्थन जताती है, लेकिन दक्षिणी चीन सागर में सिर्फ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए चीन से उलझने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होगी.

पोलिंग कहते हैं, "ऐसा लगता है कि अमेरिकी लोग चीनी हमले की स्थिति में जापान और कोरिया का समर्थन करेंगे, लेकिन दक्षिणी चीन सागर का मतलब टोक्यो में चीनी टैंकों को उतारना नहीं है, इसलिए वहां अमेरिकी हितों की अहमियत को समझाना मुश्किल होगा."

अगर अमेरिका दक्षिणी चीन सागर के आसपास के देशों के बीच नेतृत्व करने वाली अपनी भूमिका को बनाए रखना चाहता है तो उसे मजबूत गठबंधन बनाने होंगे, जो अभी चीन के पास नहीं हैं लेकिन वह इनके लिए कोशिश कर रहा है.

जब से डॉनल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने हैं तब से अमेरिकी प्रशासन की तरफ से क्षेत्र के देशों को विरोधाभासी संदेश मिल रहे हैं. ऐसे में उनके लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि किधर जाएं. आसियान देशों के हालिया शिखर सम्मेलन में सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली ह्साइन लूंग ने कहा कि अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता के चलते दोनों देशों के सहयोगी किसी एक की तरफ होने के लिए मजबूर हैं.पोलिंग कहते हैं, "अमेरिकी हितों की रक्षा गठबंधनों और साझेदारियों से ही होती है और अमेरिका की यही ताकत है कि चीन के पास ऐसे गठबंधन और साझेदारियां नहीं हैं."

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