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प्रणब मुखर्जी की कथनी और करनी में फर्क है

मारिया जॉन सांचेज
१९ नवम्बर २०१८

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नौकरशाही को देश के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा बताया है. क्या पद पर रहते हुए उन्होंने कभी उन बातों पर अमल करने की कोशिश की जो वे अब सुझा रहे हैं?

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तस्वीर: UNI

नेताओं और अफसरों में पद छोड़ने के बाद ही विवेक जागृत होता है. अकसर देखा गया है कि सेवानिवृत्त होने के बाद ऊंचे ओहदों पर रह चुके अधिकारी अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर नियमित रूप से लेख लिखने लगते हैं और समस्याओं के विश्लेषण और उनसे निपटने के तरीके पाठकों के सामने पेश करते हैं. पूछा जा सकता है कि पद पर रहते हुए उन्होंने क्या कभी उन बातों पर अमल करने की कोशिश की जो अब वे सुझा रहे हैं.

अब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नौकरशाही को देश के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा बताकर सबको चौंका दिया है क्योंकि राष्ट्रपति बनने से पहले उन्हें सरकार के विभिन्न मंत्रालयों को चलाने का बहुत लंबा अनुभव रहा है यानी नौकरशाही के साथ उन्होंने कई दशकों तक मंत्री के रूप में काम किया है. उन्होंने जो कहा है वह ठीक ही होगा क्योंकि यह निष्कर्ष उनके अपने अनुभवों पर आधारित है. लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि केंद्र सरकार में इतने लंबे समय तक वरिष्ठ मंत्री के रूप में काम करने के दौरान क्या उन्होंने कभी नौकरशाही के कामकाज में सुधार लाने की दिशा में स्वयं कोई पहल की.

भारत की अधिकांश संस्थाएं, मसलन नौकरशाही, पुलिस, न्यायव्यवस्था, शिक्षा और प्रशासनतंत्र, ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन हैं और इनका गठन भारत को उपनिवेश के रूप में अपनी गिरफ्त में लेकर उसका आर्थिक दोहन और शोषण करने के उद्देश्य से किया गया था. इन संस्थाओं का चरित्र जनसेवक का न होकर जनपीड़क का था.

ब्रिटेन में नौकरशाही राजनीति से असंपृक्त रहती है क्योंकि उसका काम राज्य को चलाना है और राज्य स्थाई है, जबकि सरकारें अस्थाई. आज एक पार्टी की सरकार है और एक व्यक्ति प्रधानमंत्री है, कल किसी दूसरी पार्टी की सरकार होगी और कोई दूसरा व्यक्ति प्रधानमंत्री होगा. लेकिन नौकरशाही वही रहेगी.

नौकरशाही और लोकतंत्र

आजादी के बाद सत्ता में आए नेताओं ने इन संस्थाओं से यही उम्मीद की कि ब्रिटेन की तरह ही ये भारत में भी तटस्थ रहेंगी. लेकिन उन्होंने इन्हें एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की जनता की सेवा करने लायक बनाने के लिए इनमें किसी भी प्रकार के संरचनात्मक सुधार नहीं किए. नतीजा यह हुआ कि इन संस्थाओं और जनता के बीच की खाई बढ़ती गई.

पिछले छह-सात दशकों के दौरान नौकरशाही का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया है. प्रत्येक राजनीतिक पार्टी और राजनीतिक नेता के अपने पसंदीदा अफसर हैं, जो उनके सत्ता में आने के बाद सरकारी नियमों के अनुसार नहीं, बल्कि उनकी इच्छाओं के अनुसार काम करते हैं. हर जगह व्याप्त भ्रष्टाचार में अफसर और मंत्री दोनों शामिल हैं.

सत्तासीन पार्टी के राजनीतिक विरोधियों को निशाने पर लेकर नौकरशाह और पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करते रहते हैं और बदले में अफसरों को मनपसंद जगह पर नियुक्ति और पदोन्नति प्राप्त होती है. इस कारण नौकरशाही और पुलिस विभिन्न राजनीतिक कैंपों में बंट गई है और उनका निष्पक्ष ढंग से काम करना संभव ही नहीं रह गया है.

प्रशासनिक सुधारों और पुलिस सुधारों की चर्चा भी अनेक दशकों से चली आ रही है. कई आयोग अपेक्षित सुधारों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर चुके हैं, लेकिन उनकी रिपोर्टों पर समय की गर्द जमती रहती है और कोई कार्रवाई नहीं होती.

इसलिए अब प्रणब मुखर्जी का नौकरशाही के बारे में विलाप करना अरण्यरोदन के समान है क्योंकि जब उनके पास नौकरशाही में संरचनागत बदलाव लाने और उसकी प्रकृति को बदलने का अवसर था, तब तो उन्होंने कुछ किया नहीं. अब राष्ट्रपति के पद से निवृत्त होने के बाद इन बातों की चर्चा करने का सिर्फ एक ही लाभ है कि एक बार फिर नौकरशाही के चरित्र और उसके कामकाज के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान लगने लगे हैं और शायद भविष्य में कोई सरकार उनमें सुधार करने पर ध्यान दे.

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