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पैसे वाले डॉक्टर खतरे जान

२७ जुलाई २०१३

भारत में डॉक्टरों की बढ़ती मांग को ध्यान में रखते हुए यहां तेजी से नए निजी मेडिकल कालेज खुल रहे हैं. इन कालेजों में मैनेजमेंट कोटे के तहत पैसों के दम पर बिना परीक्षा दिए ही दाखिला मिल रहा है.

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तस्वीर: AP

भारत के सुप्रीम ने हाल में देश के मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए साझा प्रवेश परीक्षा को रद्द कर दिया है. इस साल पहली बार ज्यादातर कालेजों में इसी प्रवेश परीक्षा के जरिए दाखिले हुए लेकिन कई कालेजों की याचिकाओं के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जरूरत खत्म कर दी है. अब इस बात का अंदेशा है कि ज्यादातर निजी मेडिकल कालेज मैनेजमेंट कोटे के तहत मोटी रकम लेकर ऐसे छात्रों को दाखिला दे देंगे जो पढ़ाई में बेहद कमजोर हैं. ऐसे कालेजों में न तो कोई आधारभूत ढांचा होता है और न ही बेहतर अध्यापक. ऐसे छात्रों को डाक्टरी की डिग्री हासिल करने के लिए कोई केंद्रीय परीक्षा नहीं देनी होती. ज्यादातर ऐसे कालेज या तो डीम्ड यूनिवर्सिटी होते हैं या फिर किसी ऐरे-गैरे विश्वविद्यालय से संबद्ध होते हैं. परीक्षाओं का आयोजन भी कालेज स्तर पर ही होता है. पैसों के बल पर परीक्षा के नतीजों में घालमेल की भी पूरी संभावना रहती है.

तेजी से खुलते कालेज

देश में सरकारी मेडिकल कालेजों में सीटों की सीमित तादाद और छात्रों में डाक्टरी पढ़ने की बढ़ती ललक की वजह से देश के तकरीबन सभी राज्यों में हर साल कुकुरमुत्ते की तरह ऐसे कालेज उग रहे हैं. मौजूदा नियमों के मुताबिक, कोई भी निजी मेडिकल कालेज कुल सीटों में से 15 फीसदी ही मैनेजमेंट कोटे के तहत रख सकता है. लेकिन यह नियम कागजों पर ही रहता है. कालेज के लोकेशन और उसकी ख्याति के आधार पर एमबीबीएस की एक-एक सीट 30 से 90 लाख तक के पैकेज पर बिक जाती है. देश में फिलहाल निजी कालेजों में 25 हजार सीटें हैं. इनमें से 15 फीसदी के हिसाब से 3,750 सीटें पैकेज में बिक जाती हैं. लेकिन हकीकत में कहीं इससे ज्यादा सीटों पर पैसों का लेन-देन होता है. कुछ कालेजों में एक तिहाई तो कुछ में आधी सीटें मैनेजमेंट कोटा के तहत पैकेज में बेच दी जाती हैं. एक तिहाई का हिसाब भी लें तो हर साल कोई आठ हजार लोग बिना किसी प्रतिभा के महज पैसों के बल पर डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर देते हैं. सबसे ज्यादा निजी मेडिकल कालेज कर्नाटक में हैं. वहां 32 ऐसे कालेजों में 4,655 सीटें हैं. दूसरे नंबर पर है आंध्र प्रदेश जहां 26 कालेजों में साढ़े तीन हजार सीटें हैं. तमिलनाडु में साढ़े तीन हजार और महाराष्ट्र में तीन हजार ऐसी सीटें हैं. देश में फिलहाल 194 निजी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की 25 हजार 55 सीटें हैं. केवल पिछले साल 20 नए मेडिकल कालेजों को मंजूरी मिली थी. उनमें से नौ सरकारी हैं और 11 निजी. उनमें कुल 24 सौ सीटें हैं.

Indien Gesundheitssystem Ausstellung von Rezepten Krankenhaus
तस्वीर: DW/P. Tewari

कोटा बढ़ाने का खेल

दक्षिण भारत के कुछ मेडिकल कालेजों में तो मौनेजमेंट कोटे के तहत सीटें बढ़ाने के लिए अजीब गोरखधंधा चलता है. वहां दिखावे के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं में डमी उम्मीदवार के तौर पर कोई विशेषज्ञ परीक्षा देता है और चुने जाने के बाद दाखिला नहीं लेता. नियमों के मुताबिक, ऐसी सीट मैनेजमेंट कोटे में तब्दील हो जाती है. सीटों की बुकिंग का यह खेल सात-आठ महीने पहले से ही शुरू हो जाता है. दाखिला दिलाने के नाम पर खुली कुछ शिक्षा सलाहकार कंपनियां भी इस फर्जीवाड़े में शामिल हैं. अखबारों व टीवी पर अपने विज्ञापनों में वह किसी भी मनपसंद कालेज में गारंटी के साथ दाखिला दिलाने का सरेआम दावा करती हैं. उनको कालेजों की ओर से मोटा कमीशन मिलता है. पूरी रकम का लेन-देन काले धन की शक्ल में होता है. इस कोटे के तहत दाखिले की महज एक ही शर्त होती है. वह यह कि 12वीं की परीक्षा में उम्मीदवार को 50 फीसदी अंक हासिल होना चाहिए.

Indien Gesundheitssystem Ausstellung von Rezepten Krankenhaus
तस्वीर: DW/P. Tewari

समस्या और समाधान

मोटे आंकड़ों के मुताबिक, हर साल एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने वाले पांच में से एक डाक्टर मैनेजमेंट कोटे के तहत पढ़ा होता है. विशेषज्ञों को डर है कि इससे आगे चल कर स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर गंभीर असर पड़ सकता है. आखिर इस तरह अंधाधुंध खुलने वाले कालेजों से पढ़ कर निकलने वाले डाक्टरों की वजह से क्या समस्या हो सकती है? महानगर के एक वरिष्ठ सर्जन डा. धीरेन पात्र कहते हैं, "ऐसे कालेजों में से ज्यादातर में अस्पताल नहीं होने की वजह से छात्रों को प्रैक्टिकल जानकारी नहीं होती. आधारभूत ढांचे के अभाव की वजह से ज्यादातर छात्र नीम-हकीम बन कर बाहर निकलते हैं. उसे मरीजों की जान को खतरा हो सकता है." स्त्री रोग विशेषज्ञ डा. शर्मिला हलदर भी इससे सहमत हैं. वह कहती हैं, "मोटी रकम के बल पर डाक्टर बनने वाले समाज का हित नहीं कर सकते. उनकी डिग्री महज एक कागज का टुकड़ा होती है. असल में उनको इस पेशे का कोई ज्ञान नहीं होता." उनके मुताबिक, इस कोटे के तहत कई प्रतिभावान छात्र भी दाखिला लेते हैं. लेकिन उनकी तादाद अंगुलियों पर गिनी जा सकती है. अधकचरेपन की इस समस्या का समाधान क्या है? विशेषज्ञों का कहना है कि मेडिकल काउंसिल को निजी कालेजों को मान्यता देने से पहले उसके आधारभूत ढांचे और अध्यापकों की गुणवत्ता की गहराई से जांच करनी चाहिए.

नेशनल बोर्ड आफ एग्जामिनर्स के कार्यकारी निदेशक बिपिन बत्रा कहते हैं, ‘चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता में आ रही गिरावट और मैनेजमेंट कोटे की आड़ में सीटों की खरीद-फरोख्त के घोटालों के सामने आने के बाद यह एक चिंता का विषय है.' उनका कहना है कि तमाम कालेजों से पास होने वाले छात्रों को प्रैक्टिस की अनुमित देने से पहले उनके ज्ञान व गुणवत्ता की जांच के लिए राट्रीय स्तर पर एक परीक्षा आयोजित की जानी चाहिए. यह वैसे ही होगी जैसा विदेशों से डाक्टरी की डिग्री हासिल करने वालों को देनी होती है. वह बताते हैं कि पहले भी ऐसा प्रस्ताव सामने आ चुका है. लेकिन अब इस पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर जल्दी ही इस समस्या पर अंकुश लगाने की ठोस पहल नहीं की गई तो कुछ साल बाद मरीज किसी डाक्टर को दिखाने से पहले उसकी डिग्रियों की पड़ताल शुरू कर देगा.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः एन रंजन

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