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पूर्वोत्तर भारत की 21 सीटों पर बीजेपी की नजर

२७ मार्च २०१९

आजादी के बाद से उपेक्षा झेल रहे पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को मोदी सरकार ने विकास की स्वाद तो चखाया लेकिन नागरिकता विधेयक और एनआरसी जैसे मुद्दों ने चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं.

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Modi eröffnet längste Brahmputra-Brücke in Assam
तस्वीर: UNI

पूर्वोत्तर इलाका देश की आजादी के बाद से ही सबसे पिछड़ा और उपेक्षित रहा है. इलाके के सात में से ज्यादातर राज्यों में उग्रवाद और अलगाववाद के सिर उठाने के पीछे भी यही वजहें रही हैं. लेकिन वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से ही बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार इलाके के लोगों को विकास के सपने दिखाती रही है. अब उन सपनों के सहारे ही पार्टी पूर्वोत्तर में परचम लहरा कर अधिक से अधिक सीटें जीतने के अपने सपने को साकार करने में जुटी है. बीजेपी फिलहाल इलाके के आठ राज्यों (सिक्किम को मिला कर) की 25 में से 21 सीटें जीतने के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है. लेकिन नागरिकता (संशोधन) विधेयक और नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) के अलावा खास कर अरुणाचल प्रदेश में स्थानीय निवास प्रमाणपत्र (पीएरसी) जैसे मुद्दे उसकी मंजिल की राह में बाधा बन सकते हैं.

उपेक्षा और पिछड़ापन

पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में सड़कों, पुलों और दूसरे आधारभूत ढांचे का भारी अभाव है. इसके अलावा केंद्र की उपेक्षा से इलाके में उद्योग-धंधे भी नहीं पनप सके हैं. प्राकृतिक सौंदर्य और जल संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद अब तक पर्यटन को बढ़ावा देने या पनबिजली परियोजनाओं की स्थापना पर खास ध्यान नहीं दिया गया है. नतीजतन इलाके में बेरोजगारी लगातार बढ़ती रही है. इस उपेक्षा, पिछड़ेपन और बेरोजगारी के चलते ही इलाके उग्रवाद की फसल आज तक लहलहा रही है. एकाध राज्यों को छोड़ दें तो तमाम राज्य इसकी चपेट में हैं. केंद्र सरकार और उसके मंत्री इलाके के विकास का वादा तो करते रहे लेकिन किसी ने उसे अमली जामा पहनाने की पहल नहीं की.

Modi eröffnet längste Brahmputra-Brücke in Assam
पूर्वोत्तर में शुरू हुई कई परियोनाएंतस्वीर: UNI

लंबे अरसे से उग्रवाद झेलने की वजह से इलाके में विकास तो लगभग ठप है. इसलिए हर चुनाव में विकास एक प्रमुख मुद्दा होता है और इस बार भी अपवाद नहीं है. तमाम राजनीतिक दल शुरू से ही कहते रहे हैं कि उग्रवाद की समस्या खत्म हुए बिना विकास संभव नहीं है. वह कहते हैं कि इलाके में विकास नहीं होने से ही उग्रवाद की समस्या गंभीर हो गई है. यानी उग्रवाद और पिछड़ापन ही एक-दूसरे के लिए और इलाके की तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेवार हैं. यह गुत्थी इस कदर उलझी है कि इसका कोई ओर-छोर अब तक नहीं निकल सका है. और उग्रवाद की समस्या है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है.

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद केंद्र में सरकार बनाने के बाद बीजेपी ने इलाके पर ध्यान देना शुरू किया. उसने इलाके के लिए हजारों करोड़ की विकास परियोजनाएं शुरू कीं और कई अन्य परियोजनाओं का उद्घाटन किया. उस समय पूर्वोत्तर में बीजेपी की कोई खास पैठ नहीं थी. लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे इलाके के लोगो को विकास के सपने दिखा कर बीजेपी एक के बाद एक राज्यों की सत्ता हासिल करती रही. नतीजतन आज की तारीख में असम समेत चार राज्यों में उसकी सरकार है और नागालैंड के अलावा बाकी जगहों पर वह सत्तारुढ़ मोर्चे में साझीदार है. वर्ष 2014 तक जिस कांग्रेस की इलाके में तूती बोलती थी वह अब राजनीतिक हाशिए पर पहुंच गई है.

बीते पांच वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और दूसरे केंद्रीय नेताओं ने इलाके का जितना दौरा किया है, वह एक रिकार्ड है. प्रधानमंत्री मोदी ने पहले की लुक ईस्ट की जगह एक्ट ईस्ट का नया नारा गढ़ते हुए आठ राज्यों में 10 हजार किमी से ज्यादा लंबी सडकों के निर्माण के लिए 1.66 लाख करोड़ रुपये मंजूर किए हैं. इसके अलावा 850 किमी लंबे हाइवे के निर्माण के लिए 7,000 करोड़ की अतिरिक्त रकम मंजूर की गई है.

चौदह सीटों वाला असम पार्टी के लिए सबसे अहम है. बीते चुनावों में उसने यहां सात सीटें जीती थीं अबकी वह कम से कम 12 सीटों के लक्ष्य के साथ मैदान में है. पार्टी के वरिष्ठ नेता व असम के वित्त मंत्री हिमंत विश्व शर्मा कहते हैं, "हमारा लक्ष्य अपने सहयोगियों के साथ मिल कर इलाके की 25 में से कम से कम 21 सीटें जीतना है.”

पूर्वोत्तर के मुद्दे

बीजेपी के नेता भले ही इलाके में सीटों की तादाद बढ़ाने का दावा करें, लेकिन उनकी राह में नागरिकता (संशोधन) विधेयक और एनआरसी जैसे कई रोड़े हैं. एआरसी की वजह से 40 लाख लोगों के राष्ट्रविहीन होने का खतरा मंडरा रहा है तो नागरिकता विधेयक ने इलाके के लोगों की पहचान पर खतरा पैदा कर दिया है. इस विधेयक का इलाके के तमाम राज्यों में भारी विरोध हुआ था और मोदी तक को काले झंडों और विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा था. उक्त विधेयक में पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से आने वाले हिंदू शरणार्थियों को छह साल तक रहने के बाद भारत की नागरिकता देने का प्रवाधान है. इलाके के लोगों और राजनीतिक संगठनों की दलील है कि इससे स्थानीय लोगों की पहचान खतरे में पड़ जेगी. लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में पेश नहीं होने की वजह से फिलहाल वह विधेयक ठंडे बस्ते में चला गया है. लेकिन विपक्षी राजनीतिक दलों ने इसे बीजेपी के खिलाफ प्रमुख मुद्दा बनाया है.

मेघालय की राजधानी शिलॉन्ग स्थित नार्थ ईस्ट हिल यूनिवर्सिटी (नेहू) में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एच श्रीकांत कहते हैं, "ब्रिटिश राज के दौरान और आजादी के बाद इलाके में इतने बड़े पैमाने पर वैध व अवैध घुसपैठ हुई है कि लोगों के मन में डर समा गया है. इसी वजह से नागरिकता विधेयक का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है.” वह कहते हैं कि कोई भी क्षेत्रीय पार्टी इस विधेयक के समर्थन का खतरा नहीं उठा सकती. यही वजह है कि बीजेपी की अगुवाई वाली राज्य सरकारों ने भी विधेयक के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए हैं. असम के हिंदूबहुल बराक घाटी इलाके में इस विधेयक को समर्थन मिला है और बीजेपी उसे भुनाने की रणनीति बना रही है. इसके अलावा एनआरसी का मुद्दा भी अहम है. एनआरसी के अंतिम मसविदे से जिन 40 लाख लोगों के नाम बाहर हैं उनको अबकी वोट देने का अधिकार मिल गया है. लेकिन उनके वोट शायद ही बीजेपी को मिलेंगे.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मोदी समेत तमाम केंद्रीय नेता बीते पांच वर्षों के दौरान इलाके और उसके लोगों को विकास के सुनहरे सपने दिखाते रहे हैं. अब देखना यह है कि क्या उन सपनों के जरिए बीजेपी इलाके की ज्यादातर सीटों पर जीत का अपना सपना पूरा कर सकेगी? या फिर नागरिकता विधेयक और एनआरसी जैसे मुद्दे उन सपनों पर भारी साबित होंगे?

(एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?)