पिछड़े इलाकों में शिक्षा की निजी कोशिश
१० अगस्त २०१८भारत में गरीबी बच्चों को स्कूल छोड़ने पर मजबूर करती है. किताबें, फीस, यूनिफॉर्म, स्कूल आने-जाने के खर्च के बोझ तला परिवार बच्चों को स्कूल भेजने के उलट काम कराना पसंद करता है. लेकिन समाज में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो निस्वार्थ भाव से गरीब बच्चों को पढ़ा रहे हैं, इसके लिए भले ही क्यों ना उन्हें कई सौ किलोमीटर का सफर तय करना पड़े. दिल्ली से सटे गुड़गांव के रहने वाले 35 वर्षीय आशीष डबराल पिछले चार साल से हर सप्ताहांत में करीब 400 किलोमीटर का फासला तय कर ऐसे बच्चों को पढ़ाने जाते हैं जो शिक्षा के मोहताज हैं.
गुड़गांव में एक मल्टीनेशनल कंपनी में बतौर आईटी प्रोफेशनल काम करने वाले आशीष हर शुक्रवार शाम दफ्तर का काम पूरा करने के बाद उत्तराखंड के लिए बस पकड़ते हैं और अगले दिन पौड़ी गढ़वाल के तिमली गांव पहुंचकर बच्चों को पढ़ाते हैं. शनिवार और रविवार को आशीष बच्चों को पढ़ाते हैं, कंप्यूटर की ट्रेनिंग देते हैं और उन्हें एक काबिल इंसान बनाने की कोशिश करते हैं. आशीष डबराल डॉयचे वेले से कहते हैं, "हर हफ्ते मैं करीब 20 घंटे सफर कर अपने गांव तिमली जाता हूं और वहां बच्चों को पढ़ाता हूं और उन्हें कंप्यूटर की ट्रेनिंग देता हूं. गरीब और वंचित बच्चों को पढ़ाकर और उनकी ऊर्जा देख मेरी थकावट पूरी तरह से गायब हो जाती है.”
आशीष की प्रेरणा
भारत में 2009 में सभी बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार लागू है, लेकिन सरकारी स्कूल इसकी गारंटी करने के स्थिति में नहीं हैं. शिक्षा व्यवस्था में कमजोरियां विभिन्न राज्यों के बीच अंतर के अलावा शहरों और गांवों तथा सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में भी दिखती है. 2014 में उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के तिमली गांव में आशीष ने पहले तो एक कंप्यूटर सेंटर खोला और फिर गांव के बच्चों के लिए 2015 में प्राइमरी स्कूल खोला. आशीष कहते हैं, "उत्तराखंड के गांवों में पलायन बड़ी समस्या है, लोग रोजगार, शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए शहरों की तरफ जा रहे हैं, ऐसे में गांव के स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता वैसी नहीं है जैसी शहरों में होती है.”
तिमली गांव के 100 किलोमीटर के दायरे में एक भी स्कूल नहीं है, यही वजह है कि 26 गांव के 31 बच्चे उनके स्कूल में पढ़ने आते हैं. स्कूल आने के लिए बच्चों को करीब 4-5 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है. भारत में स्कूली शिक्षा दिन ब दिन महंगी होती जा रही है. परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण अक्सर बच्चे स्कूलों तक नहीं पहुंच पाते हैं, जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं तो स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं. भारत के पास सबसे बड़ा स्कूली ढांचा है इसके बावजूद गरीब शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने के अनेक कारण होते हैं, ये कारण परिवार की माली हालत, समाज व परिवार में चेतना का अभाव, परिवार में पढ़ाई के लिए बुनियादी सुविधा जैसे स्थान या किताब-कॉपी आदि का अभाव, ऐसे में लड़कियों के लिए शिक्षा पाना और कठिन हो जाता है. जागरुकता की कमी के चलते भी कई बार लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाती है.
ड्रॉप आउट है बड़ी समस्या
इसी साल जनवरी 2018 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने लोकसभा को जानकारी दी कि देश में स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने वाले बच्चों में मुस्लिम, अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के छात्रों की संख्या ज्यादा होती है. हाल के सालों में उत्तराखंड में सबसे ज्यादा स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने के सर्वाधिक मामले सामने आए हैं. आशीष के मुताबिक, "उत्तराखंड में अच्छी शिक्षा के लिए लोग गांव से शहरों की तरफ पलायन कर रहे है, गांवों में सरकारी स्कूलों की हालत ऐसी नहीं होती है कि लोग लंबे अरसे तक अपने बच्चों को वहां पढ़ा पाएं. इसलिए मैं गांव में ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना चाहता हूं जिससे यहां के बच्चे देश के अन्य भागों के छात्रों के साथ मुकाबला कर सकें.”
आशीष कंप्यूटर ट्रेनिंग के अलावा बच्चों को रोबोटिक्स की भी ट्रेनिंग देते हैं. कई बार उन्हें इस काम के लिए उनके दोस्त और वॉलंटियर मदद करते हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र गांव में जाकर गर्मी और जाड़े की छुट्टियों में बच्चों के लिए कैंप लगाते हैं. भले ही आशीष जिन बच्चों को पढ़ाते हैं उनकी संख्या कम है लेकिन वो चाहते हैं कि उनके स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे बाकी देशों के बच्चों जितने स्मार्ट बने, इसके लिए वे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए ब्रिटिश स्कूलों के बच्चों से बातचीत करवाते हैं.
रोबोटिक्स पर भी जोर
आशीष का परिवार लंबे समय से शिक्षा के क्षेत्र में काम करता आया है यही वजह है कि वो भी शहर से हर हफ्ते गांव जाकर बच्चों को पढ़ाते हैं. आशीष के परदादा ने 1882 में तिमली गांव में संस्कृत स्कूल की स्थापना की थी. श्री तिमली संस्कृत पाठशाला उस समय एक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था हुआ करती थी. हालांकि बाद में 1969 में राज्य सरकार ने इस स्कूल को अपने अधीन ले लिया.
आशीष कहते हैं कि वे भविष्य में इसी स्कूल के तर्ज पर संस्कृत स्कूल की स्थापना करेंगे और संस्कृत मूल्यों को समाज में शिक्षा के जरिए बांटने की कोशिश करेंगे. आशीष कहते हैं, "पहले के जमाने में पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल समाज की भलाई के लिए होता था, आजकल शहरों में हर चीज का व्यवसायीकरण हो रहा है. हमें पुराने विचारों को दोबारा अपनाना होगा जिससे समाज में सामंजस्य पैदा हो सके.”