पाकिस्तान: एक कबायली महिला का आतंकवाद से संघर्ष
अफगान सीमा से लगे पाकिस्तान के मोहमंद जिले में रहने वाली बसुआलिहा का पति और बेटा आतंकी हमलों में मारे गए थे. आज जब इलाके में तालिबान के लौटने का डर फैलता जा रहा है, 55-वर्षीय बसुआलिहा किसी तरह अपने हालात से लड़ रही हैं.
एक कठिन जीवन
पाकिस्तान की कबायली महिलाओं के लिए जिंदगी कठिन है. 55 साल की विधवा बसुआलिहा के लिए आतंकवादी हमलों में 2009 में अपने बेटे और 2010 में अपने पति को खो देने के बाद जिंदगी और दर्द भरी हो गई. वो अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली जिले मोहमंद में गलनाइ नाम के शहर में रहती हैं. 2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान पर आक्रमण के बाद इस इलाके पर तालिबान के विद्रोह का बड़ा बुरा असर पड़ा था.
हर तरफ से हमले
बसुआलिहा के बड़े बेटे इमरान खान की 23 साल की उम्र में एक स्थानीय "शांति समिति" ने हत्या कर दी थी. बसुआलिहा ने डीडब्ल्यू को बताया कि वो समिति एक तालिबान-विरोधी समूह थी और उसके लोगों ने उनके बेटे को आतंकवादियों की मदद करने के शक में मार दिया था. पिछले कुछ सालों में यहां थोड़ी शांति आई है, लेकिन तालिबान के लौटने की संभावना से यहां फिर से डर का माहौल कायम हो गया है.
एक हिंसक दौर
अगले ही साल छह दिसंबर 2010 को बसुआलिहा के पति अब्दुल गुफरान की एक सरकारी इमारत पर आत्मघाती बम विस्फोट में जान चली गई. उन्होंने बताया कि उनके पति अपने बेटे की मौत का मुआवजा लेने वहां गए थे. हमले में बीसियों लोग मारे गए थे. बसुआलिहा कहती हैं कि कबायली इलाकों में पति या किसी और व्यस्क मर्द के बिना एक महिला की जिंदगी खतरों और जोखिमों से भरी हुई होती है.
उम्मीद का दामन
बसुआलिहा को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है. उनके गांव में गैस, बिजली की स्थिर आपूर्ति और इंटरनेट जैसी सुविधाएं नहीं हैं लेकिन पति और बेटे की मौत के बावजूद उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा. उन्हें सरकार से मदद के रूप में 10,000 रुपये हर महीने मिलते थे, लेकिन को सिर्फ इस पर निर्भर नहीं रहना चाहती थीं. सरकारी मदद 2014 में बंद भी हो गई.
सिलाई का काम
बसुआलिहा चाहती हैं कि उनके बाकी बच्चों को उचित शिक्षा मिले. उन्होंने बताया, "यह आसान नहीं था. एक बार तो मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरी जिंदगी बेकार है और मैं इस समाज में नहीं रह सकती हूं." आज कपड़ों की सिलाई उनकी कमाई का एक अहम जरिया है. वो महिलाओं के लिए सूट सिलती हैं और हर सूट के लिए 150-200 रुपए लेती हैं.
मर्द का साथ अनिवार्य
बसुआलिहा कहती हैं, "मेरे पति की मौत के बाद मैं रोटियां बनाती थी और मेरी छोटी बेटियां उन्हें मुख्य सड़क पर बेचा करती थीं. फिर मेरी बेटियां थोड़ी बड़ी हो गईं और हमारे इलाके में लड़कियों का 'इधर उधर घूमना' बुरा माना जाता है." वो कहती हैं कि इसके बाद उन्होंने रजाइयां और कंबल सिलना और उन्हें बेचना शुरू किया. जब भी वो बाजार जाती हैं उनके साथ एक मर्द जरूर होना चाहिए, चाहे वो किसी भी उम्र का हो.
और हिंसा होने वाली है?
पाकिस्तान के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी कबायली इलाकों में ऐसे हजारों परिवार हैं जो हिंसा के शिकार हुए हैं. बसुआलिहा के देवर अब्दुर रजाक कहते हैं उन्हें आज भी याद है जब मियां अब्दुल गुफरान तालिबान के हमले में मारे गए. वो उम्मीद कर रहे हैं कि कबायली इलाके एक बार फिर हिंसा और उथल पुथल में ना डूब जाएं. (सबा रहमान)