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समाज

पंचायतों के गैरकानूनी फैसले क्यों मानते हैं लोग?

२६ अक्टूबर २०१८

उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में एक युवक ने अपनी पत्नी के चरित्र पर शक जताया. दोनों के विवाद पर पंचायत बैठी जिसमें एक महिला तांत्रिक ने अग्निपरीक्षा कराई गई. दोनों के हाथ पर जलती आग रख दी गई, दोनों ही झुलस गए.

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Indien Dorf Geschichte
तस्वीर: DW/S.Waheed

मथुरा की घटना में तांत्रिक ने कहा था कि जो सच्चा होगा वो नहीं जलेगा लेकिन घटना के बाद वह फरार है और पुलिस अब मामले की छानबीन में जुटी है. एक और मामले में उत्तर प्रदेश के ही बरेली जिले में एक पंचायत ने अजीबोगरीब फैसला सुनाया है. एक महिला के पहले पति ने उससे उसका बेटा छीन लिया. जब मामला पंचायत में पहुंचा, तो पंचों ने समझौते के नाम पर महिला को दोनों शौहर के साथ बारी-बारी 15-15 दिन रहने का फरमान सुना दिया. बताया जा रहा है कि महिला की शिकायत के बावजूद पुलिस ने मामले में अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है.

इसी हफ्ते हुई ये दो घटनाएं पंचायतों के उन विवादित फैसलों की बानगी भर हैं जिन्हें लेकर ये अकसर चर्चाओं में रहती हैं. दूसरे, एक ऐसे समाज में आज भी अंधविश्वास की मौजूदगी चिंता का विषय भी है जो शिक्षित भी है और समाज की मुख्य धारा में भी है.

पंचायतों के इस तरह के विवादित फैसले अकसर सामने आते हैं और ज्यादातर ये हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में देखे जाते हैं. प्रेमी जोड़ों की हत्या कर देना या फिर उन्हें समाज से बहिष्कृत कर देना, अजीबोगरीब सजाएं सुनाना और ऐसे फैसलों को मानने के लिए बाध्य कर देना बहुत आम है. बावजूद इसके कि पंचायतों के इस तरह के फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट न सिर्फ रोक लगा चुका है बल्कि एक गाइडलाइन भी बनाकर दे रखी है.

देखा जाए तो ऐसे मामलों में कार्रवाई भी होती है लेकिन ज्यादातर मामले सामने आ ही नहीं पाते हैं और अगर आ भी गए तो स्थानीय स्तर पर ही दबा दिए जाते हैं. दूसरा पहलू ये भी है कि वो कौन से लोग हैं जो इनकी जकड़ में आ जाते हैं? आदिवासी समुदाय में तो मौजूद अंधविश्वास को उनकी सामाजिक विवशता, पिछड़ापन, एकाकीपन को माना जा सकता है लेकिन उस समाज में ऐसी कौन सी वजहें हैं जो न सिर्फ शिक्षित है बल्कि समाज की मुख्यधारा से भी जुड़ा है और विवाद के निपटारों के लिए उसके सामने पूरी अदालती श्रृंखला मौजूद है.

चप्पलों से पीटने, थूक चटवाने, सिर मुंड़ाकर घुमाने, कोड़े लगवाने जैसे पंचायतों के फरमान न सिर्फ समाज के सामने एक बड़ी चुनौती हैं बल्कि विकास और सभ्य होने के तमाम दावों पर सवालिया निशान भी लगाते हैं.

जानकारों के मुताबिक ऐसी किसी भी संस्था को सजा सुनाने और उस पर अमल करने का अधिकार नहीं है जो संविधान सम्मत न हो. यही नहीं, ऐसी स्वयंभू संस्थाएं यदि इस तरह के काम करती हैं तो वो खुद ही अपराध के दायरे में आती हैं, बावजूद इसके ऐसी घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता डॉक्टर सूरत सिंह कहते हैं, "भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी और दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी में हर तरह के अपराध के लिए सजा का प्रावधान है. इससे अलग हटकर कोई व्यक्ति या संस्था किसी को दोषी ठहराने या फिर किसी अपराध में उसे दंडित करने का अधिकार नहीं रखती है. इन पंचायतों की तरफ से यदि किसी व्यक्ति को यदि सजा सुनाई जाती है तो पंचायत में सजा सुनाने में शामिल लोग खुद अपराधी माना जाएंगे.”

हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पंचायतों के ऐसे फैसले ज्यादातर प्रेम-प्रसंग और कुछ आपसी झगड़ों के संदर्भ में सामने आते हैं. प्रेम प्रसंग को लेकर होने वाली ऑनर किलिंग का मुद्दा जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो इसी साल मार्च में ऑनर किलिंग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायत के खिलाफ एक बड़ा फैसला सुनाया.

सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायत के उस फैसले को गैरकानूनी करार दिया, जिसमें उसने दो वयस्कों की शादी को रोक दिया था. इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक गाइड लाइन भी जारी की है और कोर्ट ने कहा है कि यह गाइडलाइन तब तक जारी रहेगी जब तक इस पर कोई कानून नहीं आ जाता.

इससे पहले जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान कहा था कि बालिग लड़का या लड़की अपनी मर्जी से शादी कर सकते हैं और इस मामले में पंचायत, खाप पंचायत और अभिभावक भी इस पर सवाल नहीं उठा सकते. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर सरकार खाप पंचायत पर बैन नहीं लगाएगी तो फिर कोर्ट सख्त एक्शन लेगा.

दिलचस्प बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ कई खाप पंचायतें मुखर होकर सामने आ गईं और सैकड़ों पंचायतों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से साफ इनकार कर दिया. हालांकि मामला पुलिस में आने के बाद कार्रवाई होती है लेकिन सवाल यही है कि कितने मामले पुलिस के सामने आते हैं.

यूं तो पश्चिमी यूपी और हरियाणा की खाप पंचायतें अपने इन असंवैधानिक और डरावने फैसलों के लिए कुख्यात हैं लेकिन दूसरे राज्यों में भी इनकी कोई कमी नहीं है. हालांकि बहुत से मामलों में इन स्थानीय पंचायतों की भूमिका काफी सकारात्मक भी होती है, छोटे-मोटे झगड़ों का निपटारा आपस में मिलकर हो जाता है और गांवों में विकास के कार्य भी होते हैं लेकिन जब ये कानून को अपने हाथ में लेने लगती हैं, समस्या तभी आती है.

जानकारों का मानना है कि पंचायतों का अस्तित्व बनाए रखने में कोई बुराई नहीं है और ग्राम पंचायतों द्वारा स्थानीय छोटे-मोटे विवादों का निपटारा किया जा सकता है लेकिन कोई भी पंचायत सजा नहीं सुना सकती और इस बात को पंचायत प्रतिनिधियों को भली-भांति समझना होगा.

यहां एक बात और उल्लेखनीय है कि सजा सुनाने वाली ये पंचायतें उस पंचायतीराज व्यवस्था का अंग नहीं हैं जिसका प्रावधान संविधान में है और जो निर्वाचित संस्था होती हैं. हालांकि इन पंचायतों को भी सिर्फ मध्यस्थता का अधिकार है, दंड देने या फिर किसी को दोषी ठहराने का नहीं.

समाजशास्त्री डॉक्टर रंजना सब्बरवाल कहती हैं, "यदि पंचायत की मध्यस्थता के बावजूद कोई विवाद नहीं निपटता है तो पंचायत को अपना फैसला जबर्दस्ती थोपना नहीं चाहिए. पंचायतों को अपनी हद में रहते हुए असुंतष्ट पक्ष को कानून की शरण में जाने की सुविधा का सम्मान करना चाहिए. पंचायतों का लाचार महिलाओं को डायन करार देकर सार्वजनिक दंड दिए जाने की परंपरा या फिर खौफनाक सजाएं देना मानवता और राज्य दोनों के माथे पर कलंक है.”

कानूनी जानकारों का भी यही कहना है कि गैरकानूनी पंचायतों को कोई हक नहीं बनता कि वे आपराधिक घटनाओं का ट्रायल करें और अभियुक्तों को तालिबानी तर्ज पर सजा सुनाए. कानूनी तौर पर जमीन-जायजाद और नाली-खड़ंजा के विवादों में ग्राम पंचायतें सिर्फ मध्यस्थ की भूमिका जरूर निभा सकती हैं, सजा नहीं सुना सकती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि इसके बावजूद पंचायतों को ऐसी स्वीकृति क्यों मिली है? इसके पीछे निश्चित तौर पर उनकी सामाजिक स्वीकार्यता है. समाज के तमाम लोग इन पंचायतों के समर्थन में रहते हैं. हरियाणा में एक खाप पंचायत के प्रमुख रामकरण कहते हैं, "समाज में एकता बनाए रखने के लिए पंचायतें फैसले लेती हैं. पंचायतें कई ऐसे सामाजिक कार्य करती हैं जो आमतौर पर सरकारें नहीं करती हैं और चूंकि पंचायतों में शामिल लोग और उनके काम स्थानीय स्तर पर और उन्हीं के हित में होते हैं इसीलिए लोग उन्हें मानते भी हैं.”

रामकरण कहते हैं कि सरकार और कोर्ट को ऐसे फैसलों को मान्यता देते हुए आपसी भाईचारा कायम रखने में अहम भूमिका निभानी चाहिए. हालांकि कानूनी जानकार और समाजशास्त्री इसके पक्ष में नहीं हैं.

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