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नैनो पर लगे फिर सबके नैन

३० मार्च २००९

टाटा की नैनो के सस्तेपन पर जर्मन पत्र मुग्ध हैं, पर साथ ही उसे एक बहुत बड़ा वित्तीय जोखिम भी मानते हैं. भारत की बदलती छवि को दिल से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं.

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नयनों मे बसी नैनोतस्वीर: picture-alliance/ dpa

जहां तक भारत की बात है, टाटा की लघु कार नैनो की बिक्री के शुभारंभ की, इस बार, शायद ही कोई समाचारपत्र उपेक्षा कर पाया. सब का एक स्वर में यही कहना था कि शुरुआत बहुत ही शानदार रही है. लेकिन, कई दैनिकों ने कार के आने में विलंब और टाटा की बढ़ती हुई समस्याओं का भी उल्लेख किया. बर्लिन के टागेसत्साइटुंग ने लिखाः

"संदेह ही है कि यह लघु कार टाटा ऑटोमोबाइल के नीचे पुनः एक मोटा गद्दा बिछा पायेगी. जानकारों का कहना है कि टाटा को नैनो की बिक्री से अपने पहले रूपये की कमाई करने के लिए 2015 तक कम-से-कम 15 लाख कारें भारत की धूल-धक्कड़ वाली ठसाठस भरी सड़कों पर उतारनी होंगी. नैनो हालांकि संभवतः किसी मोटरसाइकल से भी कम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है, लेकिन उसके जन-जन की कार बनने की संभावना से जलवायु-रक्षकों को अभी से पसीना छूटने लगा है."

Tata Konzern Nano Auto Indien
रतन टाटा ने वचन निभायातस्वीर: AP

आर्थिकपत्र हांडेल्सब्लाट का भी कुछ ऐसा ही मत हैः

"नैनो नाम के इस रोमांच के वित्तीय जोखिम टाटा मोटर्स को बहुत मंहगे पड़ सकते हैं. यह अब भी प्रमाणित नहीं हो सका है कि एक इतनी सस्ती कार का उत्पादन लाभदायक भी हो सकता है. टाटा कर्ज में डूबा हुआ है, इसलिए नैनो के कारण लंबे समय तक घाटा नहीं उठा सकता. पिछले महीनों में कारों की बिक्री ने भारत में जिस तरह ग़ोता लगाया है, उससे टाटा को भी भारी धक्का पहुँचा है."

किंतु, स्विट्ज़रलैंड के नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग का मानना है कि आर्थिक संकट और पैसों की तंगी के बावजूद नैनो बहुत ही उत्साहजनक परियोजना हैः

Produktion des Tata Nano Autos in Indien
नैनो की फ़ैक्ट्री का नमूनातस्वीर: AP

"इस सबसे सस्ती कार की बिक्री धड़ल्ले से होगी, शायद ही कोई समस्या आ सकती है. बिक्री की गुंजाइश ज़बर्दस्त है. भारत की एक अरब आबादी के एक बहुत ही छोटे-से हिस्से के पास ही फिलहाल कोई कार है. उन लाखों लोगों के लिए भी, जो अब तक केवल मोटरसाइकल की बात सोच सकते थे, नैनो एक बिल्कुल नयी संभावना है. आर्थक संकट के इस समय में एक इतनी सस्ती कार उन लोगों को भी ललचा सकती है, जिनके पास पहले से कोई कार है. दूसरी ओर, टाटा मोटर्स अगले साल से योजनानुसार यदि ढाई लाख कारें प्रतिवर्ष बेचने भी लगे, तब भी उसकी सकल बिक्री में नैनो का योगदान केवल 3 प्रतिशत ही होगा. इससे टाटा के संपूर्ण बैलेंस पर शायद ही कोई प्रभाव पड़ेगा."

साप्ताहिक पत्र दी त्साइट का कहना है कि विश्व अर्थिक संकट की मार से भारत भी कुछ कम परेशान नहीं है, लेकिन उसने पूँजीवाद को कभी पूरी तरह गले लगाया भी नहीं लगायाः

"भारत ने चीन की तरह लंबी छलांग के लिए अपनी पूरी ताक़त कभी नहीं लगाई. वह किसी-न-किसी तरह अपने अतीत और हज़ारों जटिलताओं से बंधा रहा. यह भारत एक ऐसा देश है, जो कभी पूरी तरह एक ही तरफ़ नहीं झुकता. उसने पूँजीवाद को भी कभी पूरी तरह नहीं अपनाया. आर्थिक संकट भारत के सामने सबसे बड़ा प्रश्न नहीं है. सबसे बड़ा प्रश्न है सामाजिक-राजनैतिकः उस शेष भारत का क्या होगा, जो 70 प्रतिशत गांवों में रहता है. उन 50 प्रतिशत का क्या होगा, जो मुंबई जैसे महानगरों की गंदी बस्तियों या टूटे-फूटे मकानों में बसते हैं. एक महाशक्ति के रूप में भारत के भविष्य का दुनिया भर में बड़ा शोर है. उसकी छवि ज़बर्दस्त बदली है...लेकिन राज्यसत्ता और नागरिक समाज उसी गति से नहीं बदले. भ्रष्ट प्रशासन और न्यायपालिका, जीर्णशीर्ण आधारभूत संरचनाएं, सरकारी स्कूल और अस्पताल नहीं बदले."

भारत के पड़ोसी पाकिस्तान के लोग मुख्य न्यायाधीष इफ्तिख़ार चौधरी की वापसी का जश्न मनाने में मशगूल हैं. जर्मनी के ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग का मत है कि चौधरी राष्ट्रपति ज़रदारी के लिए ख़तरा बन सकते हैं:

"वे यदि अपने कार्यकाल की पिछली कार्यपद्धति को बनाए रखते हैं, तो ज़रदारी को बड़े सकते में डाल सकते हैं. यदि वे ज़रदारी की पाकिस्तान में वापसी वाले विवादास्पद क्षमादान क़ानून को अवैध घोषित कर देते हैं, तो उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार के पुराने मुकदमे पुनः शुरू हो सकते हैं. फिलहाल तो चौधरी ही जानते हैं कि उनके इरादे क्या हैं... वे बहुत मूडी, अड़ियल और अबूझ माने जाते हैं."

संकलनः अना लेमान/राम यादव

संपादनः प्रिया एसेलबॉर्न