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संसद भंग होने के बाद नेपाल में राजनीतिक संकट

लेखानंद पाण्डेय, (काठमांडू से)
२८ दिसम्बर २०२०

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपनी पार्टी के अंदरूनी असंतोष को दबाने के लिए संसद को भंग नए चुनावों कराने का रास्ता साफ कर दिया है. लेकिन उनके इस कदम से देश में नया राजनीतिक संकट शुरू हो गया है.

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नेपाल में विरोध
संसद को भंग करने के फैसले के बाद सड़कों पर उतरे कई कार्यकर्तातस्वीर: Navesh Chitrakar/REUTERS

नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री ओली की सिफारिश पर संसद को भंग कर दिया और घोषणा की कि अप्रैल और मई में देश में नए चुनाव कराए जाएंगे, यानी निर्धारित समय से एक साल पहले.

प्रधानमंत्री के इस फैसले से सत्ताधारी पार्टी में ही विरोध शुरू हो गया है. नाराज कार्यकर्ताओं ने राजधानी काठमांडू की सड़कों पर उतरकर विरोध जताया. इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड से ओली का टकराव हुआ था. प्रचंड ने ही ओली को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने में मदद की थी. दोनों नेताओं ने 2018 में अपनी पार्टियों का विलय किया था. हालांकि सत्ता में साझेदारी पर विवाद और आपसी विचार विमर्श की कमी के कारण दोनों नेताओं में मदभेद रहे हैं.

ओली अपनी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भी समर्थन खो चुके हैं. पार्टी के कुछ सदस्य आरोप लगा रहे हैं कि वह वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करके अहम फैसले ले रहे हैं और नियुक्तियां कर रहे हैं. ऐसे में ओली के इस्तीफे की मांग तेज हो रही है.

जब ओली ने संसद को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजी, तो सत्ताधारी दल के 90 सांसदों ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की मांग की. संसद को भंग करने के विरोध में सात मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और उनका कहना है कि यह फैसला 2017 में मिले 'जनादेश' का उल्लंघन है.

ओली की सिफारिश पर तुरंत संसद को भंग करने के लिए राष्ट्रपति भंडारी की आलोचना हो रही है. वह सत्ताधारी पार्टी की सदस्य रही हैं और प्रधानमंत्री ओली की नजदीकी समझी जाती हैं.

असंवैधानिक कदम?

पर्यवेक्षक कहते हैं कि ओली के कदम से देश में संवैधानिक संकट पैदा हो गया है क्योंकि जब तक वैकल्पिक सरकार बनाने की संभावनाएं मौजूद हों, तब तक प्रधानमंत्री संसद को भंग करने की सिफारिश नहीं कर सकते. उन्हें आशंका है कि हालिया घटनाक्रम के कारण नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का नया दौर शुरू हो सकता है.

नेपाल के सुप्रीम कोर्ट के एक वकील टीकाराम भट्टाराई ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "यह असंवैधानिक कदम है, जिसके कारण नेपाल में नई राजनीतिक व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए जोखिम पैदा होंगे." नेपाली सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर सुनावाई कर रही है. सुप्रीम कोर्ट के प्रवक्ता भद्रकाली पोखरियाल ने बताया, "संसद को भंग करने के खिलाफ दायर 12 याचिकाओं पर सुनवाई शुरू हो गई है."

संवैधानिक कानून के विशेषज्ञ भीमार्जुन आचार्य की राय है कि संसद को भंग करने के कदम से नेपाल में संघीय और गणतांत्रिक ढांचा ध्वस्त हो सकता है जिसे सितंबर 2015 में लागू नए संविधान के तहत कायम किया गया. वह कहते हैं कि इस गलती को सुधारने का बस यही तरीका है कि संसद को बहाल किया जाए.

नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली
आलोचक कह रहे हैं कि पीएम ओली को संसद भंग करने का अधिकार नहीं हैतस्वीर: Reuters/N. Chitrakar

नेपाल में नए चुनाव 30 अप्रैल और 10 मई को निर्धारित हैं. लेकिन ओली के प्रेस सलाहकार कुंदन अरयाल ने राजनीतिक अस्थिरता और कोरोना वायरस की महामारी को देखते हुए इन तारीखों पर चुनाव कराने को लेकर संदेह जताया है.

नेपाल में ताजा राजनीतिक संकट ऐसे समय में शुरू हुआ है जब देश दूसरी राजनीतिक और सुरक्षा चुनौतियों का भी सामना कर रहा है. खासकर शाही परिवार के समर्थक मांग कर रहे हैं कि 2008 में खत्म की गई राजशाही को फिर से बहाल किया जाए. वहीं पूर्व माओ विद्रोहियों के कुछ धड़ों की हिंसा भी लगातार बढ़ रही है. नेपाल में एक दशक तक चले गृहयुद्ध के बाद कुछ समय तक शांति रही. लेकिन ताजा घटनाक्रम फिर उसे महीनों के लिए राजनीतिक अनिश्चित्तता में झोंक सकता है.

ओली इस वादे के साथ सत्ता में आए थे कि वह एक स्थिर और अच्छी सरकार देने के साथ साथ देश का तेजी से आर्थिक विकास करेंगे. हालांकि वह अपने वादों को पूरा नहीं कर सके. भ्रष्टाचार के आरोपों और कई दूसरे राजनीतिक कांडों ने उनके नेतृत्व में जनता के भरोसे को तोड़ा है. कोरोना महामारी पर सरकार के रुख की भी आलोचना हो रही है और उनकी अपनी पार्टी के अलावा दूसरी पार्टियां से भी उनके इस्तीफे की मांग लगातार बढ़ रही है.

बाहरी कारक

विश्लेषकों का कहना है कि भारत और चीन नेपाल के घटनाक्रम को नजदीक से देख रहे हैं. पिछले एक दशक में नेपाल और चीन के संबंधों में बहुत प्रगति हुई है, खासकर व्यापार, निवेश और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी के क्षेत्र में. चीन से नेपाल की नजदीकियां भारत की चिंता को बढ़ा रही हैं.

मौजूदा वित्तीय वर्ष में नेपाल में लगभग 90 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश चीन से आया. चीन ने बीते अक्टूबर में नेपाल को 50 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद दी. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेपाल के दौरे में इस मदद का ऐलान किया गया.

इसके अलावा चीन ने नेपाल में इंफ्रास्ट्रक्चर और हाइड्रोपावर प्रोजेक्टों में करोड़ों युआन का निवेश किया है. दोनों देशों के करीबी व्यापारिक संबंध हैं. नेपाल चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट रोड पहल में भी शामिल है, जिनमें दुनिया के एक बड़े हिस्से को सड़क, रेल और जलमार्गों के जरिए जोड़ना है.

चीन ने प्रधानमंत्री ओली की सरकार के साथ भी अच्छे रिश्ते कायम किए हैं, वहीं हिमालयी क्षेत्र में जमीन के एक टुकड़े को लेकर भारत और नेपाल के बीच पिछले साल संबंधों में काफी खटास देखने को मिली. उस वक्त नेपाल ने भारत पर "धौंस" जमाने का आरोप लगाया था. प्रधानमंत्री ओली ने तो यहां तक कहा कि भारत उनकी पार्टी के नेताओं को भड़का कर उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटवाना चाहता है. वहीं भारत सरकार और भारतीय मीडिया ने हमेशा ओली को चीन की कठपुतली की तरह पेश किया है.

संबंधों को सामान्य बनाने के लिए भारत ने अपने सर्वोच्च राजनयिक को अक्टूबर और नवंबर में नेपाल भेजा. उनके साथ भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी के प्रमुख, सेना प्रमुख और विदेश सचिव भी थे.

नेपाली राजनीतिक विश्लेषक चंद्र देव भट्टा ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि नेपाल पर चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण है. लेकिन वह कहते हैं कि यह प्रभाव बढ़ता ही रहेगा चाहे नेपाल में कम्युनिस्ट सरकार हो या फिर कोई और सरकार. उनके मुताबिक, "नेपाल में राजशाही को खत्म किए जाने के बाद से, चीन ने नेपाल की सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ अच्छे संबंध कायम किए हैं."

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