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नजरिया: अपनी पहचान बचाने के लिए संघर्ष करता जर्मनी

इनेस पोल
२ सितम्बर २०१९

दूसरे विश्व युद्ध की पहली लड़ाई की 80वीं वर्षगांठ पर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी ने दो जर्मन राज्यों के चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की. डॉयचे वेले की मुख्य संपादक इनेस पोल इसे जर्मनी का अपनी पहचान के साथ संघर्ष बता रही हैं.

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Sachsen AfD-Wahlkampf in Döbeln - Protest
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Schmidt

एक सितंबर, 1939 की अलसुबह जर्मनी ने पोलैंड पर हमले के साथ ही दूसरा विश्व युद्ध छेड़ दिया. इतने अत्याचार हुए जिन्हें बयान करना मुश्किल है, अनगिनत बलात्कार हुए, लाखों लोगों की मौत हुई तो लाखों घायल और विस्थापित हुए. अब तक दुनिया नाजी जर्मनी के सब कुछ तबाह करने वाले गुस्से से उबर ही रही है.     

इसके ठीक 80 साल बाद जर्मनी का ही एक ऐसा राजनीतिक दल दो पूर्वी जर्मन राज्यों ब्रांडेनबुर्ग और सैक्सनी में हुए चुनावों में दहाई अंकों में दर्ज की अपनी सबसे बड़ी जीत का जश्न मना रही है. राष्ट्रवादी विचारों और नस्लीय बहिष्कार के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करने वाली पार्टी अपनी स्थापना के केवल कुछ ही सालों के भीतर राज्य की संसदों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. सर्वेक्षणों में तो सैक्सनी प्रांत में इसके सबसे बड़ी पार्टी बनने की भविष्यवाणी की गई थी. हालांकि एएफडी दूसरे नंबर पर रही लेकिन इसमें भी कोई बड़ी राहत की बात नहीं.     

आर्थिक रूप से सफलता का दौर

एएफडी जैसी पार्टी का उभार जर्मनी के बारे में क्या दिखाता है? वो भी ऐसे दौर में जब देश आर्थिक रूप से बहुत सफल और राजनीतिक रूप से अपेक्षाकृत स्थिर है. और अगर वैश्विक मंदी के चक्र में फंस कर कभी ये सब पलट जाए तब क्या हो सकता है? पिछली गलतियां जर्मनी में फिर से ना दोहराई जा सकें इसके लिए क्या कोई व्यवस्था है? हम इस बात को लेकर कितने निश्चिंत हो सकते हैं कि नस्लवादी सदस्यों वाली एक पार्टी के सदस्य एक बार फिर जर्मन सरकार पर कब्जा नहीं कर पाएंगे.       

पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण के बाद से जर्मनी की दो सबसे प्रतिष्ठित पार्टियां - अंगेला मैर्केल की सीडीयू और सोशल डेमोक्रैट, एसपीडी - ने इन राज्य चुनावों में अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया है.  इस तरह के चलन का नतीजा ये होगा कि सरकार बनाने वाली पार्टियों को सहयोगी दल खोजने में बड़ी परेशानी का सामना करना होगा. मध्य मार्ग पर चलने वाले देश के बहुत बड़े तबके के वोट पाने वाली इन दो पुरानी पार्टियों के मतदाता काफी हद तक अति दक्षिण और अति वाम के बीच बंट गए हैं.   

इससे साफ पता चलता है कि जर्मनी के भीतर इसे लेकर कितनी खींचतान चल रही है कि आखिर वो किस किस्म का देश बनना चाहता है. शरणार्थी नीति पर कैसा रवैया रखेगा, दूसरे बड़े आर्थिक और सामाजिक  मुद्दों पर क्या रुख होना चाहिए? कितना राष्ट्रवाद होना चाहिए और कितने यूरोपीय मूल्य?   

घमंड किस बात का

यह सच है कि बीती घटना को देखने पर ही साफ साफ समझ आता है कि इतिहास में क्या सही या गलत हुआ और उनका भविष्य पर कैसा असर हो सकता है. इस एक सितंबर 2019 के बारे में इतिहास की किताबों में क्या पढ़ा जाएगा, इसे लेकर अनुमान लगाया जा सकता है.  

इस पर तो कोई दोराय नहीं हो सकती कि इन राज्य चुनावों के नतीजों से एएफडी पार्टी को पूरे देश में बल मिलेगा. उसकी शक्ति आने वाले समय में और बढ़ेगी ही. उनका सामना करने के लिए अन्य पार्टियों को ही कोई रास्ता निकालना होगा. उनकी सफलता को नजरअंदाज कर अपने में घमंड दिखाना बहुत बड़ी गलती साबित होगी. ऐसे नतीजे नेताओं को साफ दिखा रहे हैं कि देश में कुछ तो गड़बड़ हो रहा है और उन्हें ध्यान से देखना होगा कि आखिर लोग ऐसी पॉपुलिस्ट पार्टी को मत क्यों दे रहे हैं.    

इसके अलावा जर्मनी को अटल सिद्धांतों वाली अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी संभालनी होगी. इसमें लोगों को किसी भी धर्म को मानने की आजादी और शरण लेने के इच्छुक लोगों के अधिकारों की रक्षा शामिल है. इन सिद्धांतों की किसी भी हाल में बलि नहीं चढ़ाई जानी चाहिए, चाहे सरकार बनाना कितना भी मुश्किल क्यों ना हो जाए.  

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