धधकते जंगलों से कब लेंगे सबक
२ मई २०१६वनकर्मी, अर्धसैनिक बल, आपदा राहत दल, सेना और वायुसेना के जवान जंगल की आग को काबू करने की कोशिशों मे जुटे हैं. इस तरह का ये सेना का पहला अभियान है. भारत में कुल वन क्षेत्र का करीब 50-55 फीसदी हिस्सा हर साल आग की चपेट में आ जाता है. मध्य फरवरी से मध्य जून की इस सालाना अवधि में मिट्टी में नमी न्यूनतम स्तर पर होती है. लेकिन भारत में किसी और जगह की अपेक्षा हिमालयी पट्टी के जंगल ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं. इस आग में घी का काम करती है, मानसून पूर्व की कम बारिश, चीड़ के पेड़, जंगल माफिया और सबसे बढ़कर प्रशासनिक मशीनरी की नींद. जो झटके से उठती है और फिर सो जाती है.
इस आग का पर्यावरण पर भी गहरा असर पड़ रहा है. आज आप उत्तराखंड के मशहूर पहाड़ों की ओर चले जाइए, वे जगहें जो अपनी रमणीयता और कुदरती खूबसूरती और शीतल हवाओं के लिए सैलानियों को खींच लाती थीं आज आग, धुएं और तपिश से घिरी हुई है. ब्लडप्रेशर और दमे के मरीजों के लिए ये धुआं जानलेवा बन रहा है. जंगल की आग पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर, एक तरह से देश के सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को भी गिराती है, आम जनजीवन को प्रभावित कर.
रोजमर्रा के जीवन के अलावा पर्यटन पर चोट पड़ रही है, पशुओं पर संकट हैं, उनके लिए घास और चारा नहीं है. पेयजल के स्रोत सूख रहे हैं. वन्यजीव अभ्यारण्यों और राष्ट्रीय पार्कों के जीव जंतु पानी और खाने के लिए तड़प गए हैं. उत्तराखंड का कॉर्बेट पार्क और उससे जुड़ा क्षेत्र तितलियों की विशेष प्रजातियों के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है. आग और धुएं ने इन दुर्लभ तितलियों का जीवन संकट में डाल दिया हैं. जैव विविधता पर इतना बड़ा संकट पहले कभी नहीं मंडराया था.
अतिशय औद्योगिकीकरण, रिहायश के लिए जमीन की मांग और कृषि भूमि के विस्तार ने जंगल को छिन्नभिन्न तो किया ही है. हमें ये भी तो देखना ही होगा कि अपनी जरूरतों का विकास और विस्तार इस तरह से किया जाए कि कुदरत की मौलिक संरचनाएं बाधित न हो. और ये संकट आज सिर्फ भारत का नहीं है. पूरी दुनिया में जंगलों को बचाने की लड़ाइयां जारी हैं. लातिन अमेरिका के अमेजन के जंगलों को लेकर तो स्थानीय आबादी का बड़े उद्योगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से ऐतिहासिक टकराव होता ही रहा है. आज भारत में जिसे हम लाल कॉरीडोर के नाम से जानते हैं वहां नक्सल आंदोलन के पीछे दरअसल लड़ाई जंगल पर आदिवासियों के अधिकार और उनकी हिफाजत की ही है. लेकिन इस ओर सरकारें ध्यान नहीं देती. वे विकास थोपती जाती हैं और आदिवासी समुदाय एक अजीबोगरीब संघर्ष में उलझता जाता है.
जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए अपने ऐक्शन प्लैन में भारत ने संयुक्त राष्ट्र के समक्ष वादा किया है कि वो 2030 तक अपना जंगल क्षेत्र बढ़ाएगा और वनों की गुणवत्ता में सुधार करेगा. लेकिन अगर मौजूदा जंगल और वृक्षारोपण अभियान के तहत विकसित किए जा रहे क्षेत्रों को जंगल की आग हर साल निगलती रहेगी तो ये लक्ष्य पूरा करना मुश्किल होगा.
ऐसा नहीं है कि भारत के पास जंगल की आग के बारे में पूर्व सूचना के लिए किसी तकनीकी साजोसामान की कमी है. सैटेलाइट के जरिए चित्र उपलब्ध हैं. फरवरी से जून की अवधि में वनाग्नि की सूचना के लिए वेबसाइटें और मशीनें काम कर रही हैं. बाकायदा एक वनाग्नि नक्शा तैयार हो जाता है. आग लगने से पूर्व और पश्चात की चेतावनियों का भी सिस्टम है. संवेदनशील स्थान भी चिंहित हैं, उनका भी नक्शा है. और ये सब जिला और तहसील स्तर तक उपलब्ध है. इतना सब कुछ है तो फिर कमी कहां है.
आज इस तरह की विकराल आग को बुझाने के लिए देश के पास उस स्तर की मशीनरी ही नहीं है. वायुसेना के बड़े हेलीकॉप्टर आसपास की झीलों से पानी लेकर जंगलों पर छिड़क रहे हैं लेकिन वे लपटें भला उन फुहारों से कैसे शांत होंगी. दिक्कत यही है कि सूचना का एक उच्च प्रोद्योगीकृत ढांचा है लेकिन उस ढांचे का सही इस्तेमाल करने लायक संसाधनों का अभाव है. इस संसाधन में इच्छाशक्ति और पारदर्शिता को भी जोड़ लीजिए.
फिर तकनीकी और उपकरण ही नहीं, प्रशासनिक तत्परता का एक दूसरा कोना भी खुलना चाहिए. वो है कानूनी सख्ती और मुस्तैद निगरानी तंत्र. विशाल भूभाग की देखरेख और निगरानी के लिए वनरक्षकों और फायर वॉचर्स की संख्या बढ़ानी होगी. एक निरंतर विजिल सिस्टम विकसित करना होगा, जो अपने कार्य में सख्त, और ईमानदार रहें ऐसे लोग होने चाहिए. स्थानीय लोगों में जागरूकता का ढोल न पीटें बल्कि उन्हें अपने जंगलों से दोस्ताना की विरासत की याद दिलानी चाहिए. उन्हें फिर से अपने जंगलों के प्रति स्नेह और आदर का भाव विकसित करने के अवसर मिलने चाहिए जो उनके पुरखों के पास थे. वनकानूनों ने लोगों को डरा दिया है. वे जंगल से दूर हो रहे हैं.
जंगल उनकी स्वाभाविक जीवन पद्धति का उस तरह से हिस्सा नहीं रह गया है जैसा पहले होता था. अब लोग लकड़ी, घास, जमीन के छोटेमोटे लालचों के लिए जंगल को एक लाभ के संग्रहालय की तरह देखते हैं जिसकी सुरक्षा का जिम्मा एक निकम्मे और और भ्रष्ट सिस्टम के पास है. इस तरह मानवीयता का वृत्त बनने के बजाय मनमानी का घेरा खिंचता जाता है. आग फिर इस या उस घेरे को नहीं पहचानती. वो एक साथ सब कुछ निगल जाती है.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी