दूसरे कार्यकाल में कितना बदल गए हैं पीएम नरेंद्र मोदी
२९ मई २०२०किसी भी नेता की दूसरी पारी का पहला साल नया जोश दिखाने का साल होता है. लोकतंत्र में चुनाव प्रचार आम लोगों से अपनी बात कहने, समर्थन मांगने और फीडबैक पाने का मौका होता है. इसमें जीतकर बाहर निकलने वाला नेता नए विचारों और नए समर्थन से लैस होता है. संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी की भारी जीत कुछ के लिए उनके भरोसे की पुष्टि थी तो दूसरों के लिए उनके आकलन का टांय टांय फिस्स होना. कोई दो राय नहीं कि 2019 में बीजेपी की जीत ने विपक्ष को और कमजोर किया और सत्ताधारी पार्टी के लिए जिंदगी आसान कर दी. मोदी सरकार ने स्थिति का लाभ उन वादों को पूरा करने के लिए उठाया जिसकी बात वह काफी सालों से करती रही थी, और विपक्ष हमेशा कहता रहा है कि वह उन्हें पूरा नहीं कर पाएगी. इनमें राम मंदिर, तीन तलाक और जम्मू कश्मीर में धारा 370 को खत्म करना शामिल है. इन मुद्दों पर फैसले में नरेंद्र मोदी की सरकार ने राजनीतिक साहस के साथ साथ प्रशासनिक हुनर का भी परिचय दिया. बीजेपी सरकार ने इस साल ऐसे ऐसे कदम उठाए जिनकी न तो विपक्ष उम्मीद कर रहा था और न ही नागरिक समाज. नरेंद्र मोदी ने न तो पहल करने में कोई भय दिखाया और न ही पहल के कामयाब न होने पर उससे पल्ला झाड़ने में. अच्छे दिन से आत्मनिर्भर बनने के नरेंद्र मोदी नारे का सफर बीजेपी की कामयाबी और विफलता दोनों ही का सफर है.
विकास और रोजगार के नाम पर चुनकर आए नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में उन्हें भरपूर अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिला. ये समर्थन एक नए नेता को उम्मीदों पर दिया गया समर्थन था. लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी ने विदेश नीति से ज्यादा घरेलू नीति पर ध्यान दिया है. यह कार्यकाल असम में नागरिकता रजिस्टर, नागरिकता कानून में संशोधन और जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन की पहल का गवाह था. असम में गैर नागरिकों के लिए हिरासत केंद्र बनाने पर विवाद रहा था, तीन तलाक कानून का मुसलमानों के रूढ़िवादी तबके का विरोध झेलना पड़ा. जम्मू और कश्मीर में धारा 370 को खत्म कर जिस तरह राज्य का दर्जा घटाकर केंद्र शासित करना और पूर्व मुख्य मंत्रियों सहित सैकड़ों नेताओं की गिरफ्तारी विवादों में रहा. धार्मिक आधार पर बने नए नागरिकता कानून का सबसे अधिक विरोध हुआ. ध्रुवीकरण ऐसा हो गया कि राजधानी दिल्ली भी दशकों बाद दंगों की गवाह बनी.
साहसिक पहल
अगर मोदी 2.0 के पहले साल को तीन हिस्सों में बांटा जाए, तो पहले हिस्से में साहसिक राजनीतिक पहलों के महीने थे, दूसरा हिस्सा विरोध का और तीसरा कोरोना महामारी को रोकने की अप्रत्याशित चुनौती का. उनके दूसरे कार्यकाल में जिस तरह अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने जम्मू कश्मीर और नागरिकता संशोधन जैसे कानूनों पर चुप्पी बनाई है वह समर्थन से ज्यादा उन्हें नाराज न करने की रणनीति है. भारत का बड़ा बाजार बड़े औद्योगिक देशों को लुभाता है तो दूसरी ओर पश्चिमी देश भारत को एशिया प्रशांत में चीन के विकल्प के रूप में देखते हैं. इस समय जबकि कोरोना महामारी में चीन की भूमिका को लेकर संदेह है और कई देश वहां अपना निवेश कम करना चाहते हैं, भारत एक वैकल्पिक ठिकाना है. कोरोना ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है. भविष्य की आर्थिक रणनीति में विदेशी निवेश से ज्यादा महत्व आत्मनिर्भरता का होगा, क्योंकि हर धनी देश पहले अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने में लगा होगा.
कोरोना महामारी को रोकने में भारत मोदी सरकार की तेज पहल के कारण अब तक सफल रहा है. लॉकडाउन कोरोना को रोकने का सही कदम था, लेकिन जिस तरह उसे लागू किया गया उसने सरकार और समाज की कमजोरियों को सामने ला दिया है. कुछ सालों में बीजेपी को देश की सबसे बड़ी पार्टी बना देने वाले नेता सरकार में वह क्षमता नहीं दिखा पाए हैं. जिस तरह लाखों मजदूर लॉकडाउन के दौरान जान की बाजी लगाकर पैदल अपने घरों को जाते दिखे हैं, वह प्रशासनिक कमजोरी के अलावा समाज की संवेदनहीता भी दिखाता है. हालांकि मजदूरों की मदद को बहुत सारे सेलिब्रिटी सामने आए लेकिन यह काम सरकार और सामाजिक संस्थाओं का है, लोकप्रिय शख्सियतों का नहीं.
कमजोर विपक्ष
कोरोना काल में विपक्ष के कमजोर होने ने स्थिति से निबटने में सकार की कोई मदद नहीं की है. मोदी के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष और कमजोर हुआ है. ये सच है कि विपक्ष को चलाने की जिम्मेदारी सत्ताधारी पार्टी की नहीं हो सकती, लेकिन उसके मिटने से भी लोकतांत्रिक पार्टी का हितसाधन नहीं होता है. मजबूत विरोध के साए में ही मजबूत नेतृत्व पलता है. देश के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को इस बात पर ध्यान देना होगा कि विपक्ष अर्थहीन न हो जाए. इससे भारत की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा को भी ठेस लगेगी. अगर विपक्ष नहीं रहेगा तो लोकतंत्र भी नहीं रह सकता.
मोदी 2.0 के एक साल बाद प्रधानमंत्री और उनके सामने बड़ी चुनौतियां हैं. घरेलू मोर्चे पर प्रवासी मजदूरों की समस्या हल करनी है और एक ऐसा समाज बनाना है जो सस्ती मजदूरी पर नहीं बल्कि कुशलता पर नाज करे. मोदी सरकार पर समाज को बांटने के आरोप लगते रहे हैं. देश के नेता के तौर पर ये जिम्मेदारी उन्हीं की बनती है कि वे राजनीतिक नफा नुकसान को परे रखकर सबको साथ लेकर चलें. कोरोना संकट हमारे सामने कुछ सच्चाइयां और कमजोरियां लेकर आया है. डिजिटल युग की नई और अच्छी कमाई वाली नौकरियां पैदा करना सरकार की प्रमुख चुनौती होगी. अर्थव्यवस्था पक्की होगी तो पड़ोसियों का बर्ताव भी बदलेगा. इस समय पाकिस्तान हो, चीन या नेपाल, सब आंखें दिखा रहे हैं. आर्थिक मजबूती में दूसरे भी हिस्सा चाहते हैं, वे लड़ना नहीं चाहते.
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