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समाज

दिल्ली की मुश्किल राहों पर दृष्टिहीनों की जिंदगी

३ दिसम्बर २०१९

भारत में करीब छह करोड़ तीन लाख दृष्टिहीन लोग हैं. गरीबी और स्वास्थ्य सेवा ना मिल पाना ग्रामीण क्षेत्रों में आंख की रोशनी जाने की बड़ी वजह है. शिक्षा और रोजगार के सीमित अवसर के बीच वे कैसी जिंदगी जी रहे हैं, जानिए?

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Bildergalerie blinde Studenten in Bangladesch
तस्वीर: DW/Mustafiz Mamun

विनोद कुमार शर्मा अपनी सफेद छड़ी के सहारे भीड़भाड़ वाली ट्रेनों और दिल्ली की गड्ढे और न के बराबर फुटपाथ वाली सड़कों पर हर रोज चार घंटे गुजारते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में करीब छह करोड़ तीन लाख दृष्टिहीन लोग हैं. इनमें से 80 लाख लोगों को बिल्कुल नहीं दिखाई देता. इस तरह दुनिया में मौजूद कुल ऐसे लोगों का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है. 

दिल्ली की ज्यादातर सड़कों के किनारे फुटपाथ नहीं हैं. 44 साल के विनोद तीन बच्चों के पिता हैं. उन्हें मजबूरन सड़कों के किनारे चलना पड़ता है. कभी-कभी ऐसा होता है कि ट्रक और कार बस कुछ सेंटीमीटर के फासले से निकल जाते हैं.

करीब दो करोड़ की आबादी वाली दिल्ली की ट्रेनों में लोग पूरी तरह पैक होकर यात्रा करते हैं. ऐसे में विनोद अपने साथी यात्रियों पर निर्भर रहते हैं. विनोद कहते हैं कि साथी यात्री हमेशा उन्हें ट्रेन में चढ़ने और उतरने में मदद करते हैं. वे कहते हैं, "लोग काफी अच्छे हैं लेकिन टूटी सड़कें और खुले मेनहोल से हमेशा खतरा बना रहता है."

भारत में अन्य कई दृष्टिहीनों की तरह विनोद भी विकलांगों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसरों की कमी से जुझते हैं. कई अपाहिज भीख मांगने पर मजबूर हो जाते हैं तो कई दान पाने के लिए सामाजिक संस्थाओं का रुख करते हैं.

विशेषज्ञ कहते हैं कि गरीबी और स्वास्थ्य सेवा ना मिल पाना ग्रामीण क्षेत्रों लोगों की आंख की रोशनी जाने की बड़ी वजह है. विनोद मूलतः बिहार के रहने वाले हैं. बचपन में खेतों में काम करने के दौरान उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी. वे उपचार के लिए दिल्ली आए लेकिन डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. इसके बाद वे यहीं रहने लगे.

Bangladesch Blinde Bettlerin in Dhaka
तस्वीर: MUNIR UZ ZAMAN/AFP/Getty Images

विनोद ने दृष्टिहीन लोगों के लिए खोले गए एक विद्यालय में प्रशिक्षण लिया. फिर उन्हें दृष्टिहीन बच्चों के लिए खिलौने बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम मिल गया. 20 साल से ज्यादा समय तक उन्होंने यहां काम किया लेकिन पिछले साल फैक्ट्री बंद हो गई. उन्होंने जनवरी में मसाज थेरेपिस्ट के रूप में फिर से काम करना शुरू कर दिया. इसके लिए उन्होंने दिल्ली में ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन में ट्रेनिंग ली. वे कहते हैं, "मैंने मसाज करना शुरू किया क्योंकि उम्र ज्यादा होने की वजह से मेरे पास ज्यादा विकल्प नहीं थे."

स्वप्ना मार्लिन ब्लाइंड रिलीफ एसोशिएशन से जुड़ी हैं. वे कहती हैं कि प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कई सारे लोग ग्रामीण क्षेत्रों से हैं. उन्हें यहां यह विश्वास दिलाने के लिए लाया जाता है कि वे अपने परिवार की देखभाल के बिना भी बाहर निकल सकते हैं. वे कहती हैं, "एक बार बाहर निकलने के बाद वे समझ पाते हैं कि कई सारे काम कर सकते हैं. यह उनके लिए बड़ा अवसर होता है. सफलता की हर कहानी कई लोगों के लिए प्रेरणादायक होती है."

आरआर/एके (एएफपी)

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