समझौतों के बावजूद पूर्वोत्तर भारत को स्थायी शांति का इंतजार
२९ जनवरी २०२१केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में अपने असम दौरे पर यह दावा जरूर किया है कि बोड़ो समझौता पूर्वोत्तर में उग्रवाद खत्म करने की शुरुआत है. लेकिन इलाके में मिजोरम समझौते जैसे एकाध अपवादों के अलावा ऐसे ज्यादातर समझौते कामयाब नहीं रहे हैं. शांति की बहाली के लिए आजादी के बाद से ही हुए ऐसे दर्जनों समझौतों के बावजूद पूर्वोत्तर इलाके को अब भी स्थायी शांति का इंतजार है. मिसाल के तौर पर नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड (एनएससीएन) और यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) के साथ जारी शांति प्रक्रिया का जिक्र किया जा सकता है.
उल्फा के दूसरे गुट ने अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं. वर्ष 1985 के असम समझौते के तमाम प्रावधानों को भी अब तक लागू नहीं किया जा सका है. मणिपुर और त्रिपुरा में भी कई उग्रवादी गुट सक्रिय हैं. इसी तरह त्रिपुरा में रहने वाले ब्रू शरणार्थियों को बसाने के मुद्दे पर हुआ समझौता भी ठंढे बस्ते में है. त्रिपुरा हाईकोर्ट ने भी इसे राजनीतिक मुद्दा करार देते हुए अपने हाथ झाड़ लिए हैं.
पुराना है अलगाववाद का इतिहास
पूर्वोत्तर में अलगाववाद का इतिहास देश की आजादी जितना ही पुराना है. दिलचस्प बात यह है कि दर्जनों समझौतों और कोई 24 साल से जारी शांति प्रक्रिया के बावजूद जमीनी परिस्थिति में खास बदलाव नहीं आया है. आजादी के बाद से ही तमाम केंद्र सरकारें विभिन्न उग्रवादी गुटों के साथ समझौते कर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं. केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार भी अलग नहीं है. उसके तमाम नेता बोड़ो इलाके में शांति बहाल करने का दावा करते रहे हैं. निचले असम के बोड़ो बहुल इलाकों में शांति की बहाली के लिए विभिन्न गुटों ने एक साल पहले केंद्र और राज्य सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था. बीते साल हुए समझौते के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस इलाके में एक रैली कर शांति बहाली का श्रेय लिया था और अब असम में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी इलाके में रैली के जरिए यही किया है. लेकिन इसके राजनीतिक पहलू भी हैं. समझौते के बाद हाल में हुए बोड़ोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल (बीटीसी) चुनावों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी और कुछ अन्य संगठनों के साथ मिल कर बोर्ड का गठन किया था.
बोड़ो समझौते पर उग्रवादी संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोड़ोलैंड (एनडीएफबी) के चारों गुटों के अलावा अखिल असम बोड़ो छात्र संघ और यूनाइटेड बोड़ो पीपुल्स आर्गनाइजेशन ने हस्ताक्षर किए थे. उसके बाद सैकड़ों उग्रवादियों ने हथियार डाले और उम्मीद की जा रही थी यह तमाम संगठन अलग बोड़ोलैंड राज्य की मांग छोड़ देंगे. लेकिन इलाके में अब भी अलग बोड़ोलैंड राज्य की गूंज सुनने को मिल जाती है.
वैसे, बोड़ों संगठनों के साथ यह कोई पहला समझौता नहीं है. अलग राज्य की मांग में कुछ संगठनों ने वर्ष 1967 में ही बोड़ो आंदोलन शुरू किया था. वर्ष 1993 में एक समझौते के जरिए बोड़ो प्रशासनिक परिषद (बीएसी) का गठन किया गया. लेकिन तीन साल बाद ही दोबारा अलग राज्य की मांग उठने लगी. ज्यादातर गुटों ने समझौते को मानने से इंकार कर दिया था. उस दौरान बोड़ो इलाकों में बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी हुई. उसके बाद वर्ष 2003 में भी एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. बीते साल जो समझौता हुआ वह अपनी तरह का चौथा है. लेकिन पहले के ऐसे समझौतों को देखते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि यह समझौता कितना कारगर और स्थायी होगा?
पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों में भी आंदोलन
नागालैंड, मणिपुर और त्रिपुरा में भी अब तक हुए शांति समझौते कागजी ही साबित हुए हैं. नागालैंड में तो देश की आजादी के बाद से ही आजादी की मांग उठने लगी थी. वहां शांति बहाली के लिए वर्ष 1949, 1960 और 1975 में तीन समझौते हो चुके हैं. लेकिन अंतिम समझौते के पांच साल बाद यानी वर्ष 1980 में राज्य में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड (एनएससीएन) नामक उग्रवादी संगठन का गठन हुआ जो बीते चार दशकों से पूर्वोत्तर में उग्रवाद का पर्याय बना हुआ है. वर्ष 1997 में एनएससीएन के मुइवा गुट ने एकतरफा युद्धविराम के जरिए शांति प्रक्रिया शुरू करने पर सहमति जताई थी. वर्ष 2000 में संगठन के खापलांग गुट ने भी युद्धविराम का एलान कर दिया. बीते 24 सालों से जारी शांति प्रक्रिया अब तक किसी मुकाम तक नहीं पहुंची है.
इस बीच खांपलांग गुट ने युद्धविराम तोड़ दिया है. राज्य में जमीनी हालत में भी कोई बदलाव नहीं आया. नागालैंड में एनएससीएन की समानांतर सरकार चलती है. अब कभी अलग झंडे और संविधान की मांग शांति प्रक्रिया में रोड़े अटकाती है तो कभी इलाके के नागाबहुल राज्यों को लेकर ग्रेटर नागालिम के गठन की मांग. फिलहाल कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं है कि यह शांति प्रक्रिया कब तक पूरी होगी.
पड़ोसी त्रिपुरा में भी तमाम उग्रवादी गुट सक्रिय रहे हैं. वहां भी सरकार आल त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स समेत विभिन्न संगठनों के साथ समझौते कर चुकी है. लेकिन उनमें से कोई भी स्थायी साबित नहीं हो सका है.
असम समझौता भी लागू नहीं
जहां तक पूर्वोत्तर के सबसे चर्चित असम समझौते की बात है, उसे भी भी अब तक पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका है. बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ के खिलाफ वर्ष 1979 से शुरू हुए इस आंदोलन के छह साल बाद 1985 में असम समझौते पर हस्तक्षार किए गए थे. लेकिन इसके कई प्रावधानों को अब तक लागू नहीं किया गया है. बीते साल इस मुद्दे पर काफी विवाद हुआ था और तब इसके अनुच्छेद छह को लागू करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था. लेकिन उसकी रिपोर्ट भी ठंढे बस्ते में पड़ी है.
असम समझौता होने के बाद उग्रवादी संगठन उल्फा ने करीब दो दशकों तक राज्य में जो आतंक और हिंसा फैलाई उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती. अब उल्फा के साथ भी शांति प्रक्रिया चल रही है. लेकिन परेश बरुआ गुट ने खुद को इससे अलग कर एक बार फिर उग्रवादी गतिविधियां तेज कर दी हैं. केंद्रीय समझौतों के अलावा तमाम राज्यों ने भी स्थानीय स्तर पर विभिन्न संगठनों के साथ दर्जनों समझौते किए हैं. लेकिन वह सब अस्थायी ही साबित हुए हैं.
सिर्फ मिजो समझौता है सफल
पूर्वोत्तर में अकेले मिजोरम में उग्रवाद के खात्मे के लिए वर्ष 1986 में लालदेंगा के साथ हुए मिजो समझौते को ही कामयाब कहा जा सकता है. उसके बाद लालदेंगा और उनकी अगुवाई वाला मिजो नेशनल फ्रंट (एनएनएफ) राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए. बीते करीब 35 साल से राज्य में शांति है और इसे इलाके का सबसे शांत राज्य कहा जाता है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकार तात्कालिक सियासी फायदे के लिए समझौते तो कर लेती हैं. लेकिन तमाम पहलुओं पर ध्यान दिए बिना और सभी संबंधित पक्षों को शामिल किए बिना होने वाले ऐसे समझौते अस्थायी ही साबित होते रहे हैं. इलाके पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षक सुनील महंत कहते हैं, "आजादी के बाद से दर्जनों समझौतों के बावजूद अगर इलाके में अब तक स्थायी शांति बहाल नहीं हो सकी है तो कहीं न कहीं इन समझौतों में खामियां हैं. लेकिन इन खामियों को दूर किए बिना सत्तारुढ़ दल अपने सियासी फायदों के लिए आनन-फानन में समझौतों पर हस्ताक्षर कर लेते हैं. ऐसे में पूर्वोत्तर में स्थायी शांति की बहाली दूर की कौड़ी ही लगती है.”
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