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समाज

थाली में परोसे जाने वाले मुर्गे कैसे खुश होते हैं?

२२ दिसम्बर २०१८

जिस मुर्गे को खा कर हम अपना पेट भरते है और कई बार जश्न मनाते हैं, कभी सोचा है कि आपकी भूख मिटाने के लिए पोल्ट्री फार्मो में पैदा होने और फिर मारे जाने वाले मुर्गे को किस बात से खुशी मिलती होगी.

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Henne mit Küken
तस्वीर: picture-alliance/Anka Agency International

आप चिकेन की खुशी का अनुमान कैसे लगा सकते हैं. क्या दाने के लिए उसकी दौड़ से कुछ अंदाजा लग सकता है? ये चिकेन खुद को सजाने संवारने में कितना वक्त देते होंगे? कुल मिला कर छोटी सी जिंदगी में ये मुर्गे खुश रहने के लिए क्या करते होंगे, इस पर हम तो ज्यादा नहीं सोचते लेकिन वैज्ञानिक खोजबीन कर रहे हैं. इस कवायद का मकसद यह है कि हंसते खेलते स्वस्थ चिकेन को ही आहार बनाया जाए.

कनाडा में ओंटारियो की गुएल्फ यूनिवर्सिटी ने 16 नस्लों की शारीरिक योग्यता और स्वभाव का परीक्षण किया. वो यह देख रहे थे कि मुर्गे मुर्गियों के दाना चुगने के मार्ग में बाधा आ जाए तो वे कैसे उछल कूद कर उससे निबटते हैं. वे कितने चंचल होते हैं, और क्या वे नकली कीड़ों के साथ खेलते हैं.

मुर्गे ये तो नहीं बता सकते कि वे कितने खुश हैं लेकिन नकली कीड़ों के साथ उन्हें खेलते देख कर हम इसे उनकी खुशी का संकेत मान सकते हैं. इस रिसर्च में शामिल स्टेफनी टोरी ने बताया, "कोई पशु खुश है या संतुष्ट या फिर मजे ले रहा है, उनका बर्ताव देख कर उसके आधार पर हमें यह निष्कर्ष निकालना होता है."

Südafrika Hühnerhaltung
तस्वीर: picture-alliance/dpa/N. Bothma

टोरी का कहना है कि हाल के वर्षों में पशु कल्याण की दुनिया सिर्फ उनकी तकलीफों को दूर करने भर तक की नहीं है, बल्कि यह आगे बढ़ कर यह भी पता लगाने की कोशिश कर रही है कि वो अपनी जिंदगी का मजा कैसे ले सकते हैं.

इस तरह के उपाय कंपनियों के लिए भले ही बेकार हों लेकिन इतना जरूर बताते हैं कि मुर्गों की भलाई के लिए काम करने वालों में एक आम सहमति की कमी है. ये मुर्गे कई बार अंडों से बाहर निकलने के महज पांच हफ्ते बाद ही मार दिए जाते हैं. पशु कल्याण कार्यकर्ताओं का कहना है कि क्रूरता की शुरुआत तो तभी से हो जाती है जब मुर्गों को इतने बड़े सीने के साथ बड़ा किया जाता है कि उनके लिए चलना भी मुश्किल हो जाता है. 

उद्योग जगत के लोग कहते हैं कि इससे कोई समस्या नहीं है कि मुर्गे घूम फिर नहीं पाते या वो सुस्त होते हैं. हालांकि अगर इसमें कोई बदलाव करना हो तो भी यह मालूम नहीं कि विकल्प कैसे होंगे. ब्रॉयलर चिकेन के स्वास्थ्य की जो समस्या उठती है उसे लेकर भी दोनों पक्षों में इस बात को लेकर असहमति है.

टायसन और सैंडर्सन फार्म्स का कहना है कि चिकेन ब्रेस्ट बीते सालों में काफी फूल गए हैं. उनका यह भी कहना है कि वे सामने आ रही समस्याओं को इसका नतीजा नहीं मानते. सैंडर्सन फार्म्स के मुख्य वित्तीय अधिकारी माइक कॉकरेल का कहना है, "अगर वे चलेंगे फिरेंगे नहीं और दाना नहीं चुगेंगे तो वे बच नहीं पाएंगे."

Malaysias Nationalgericht, Nasi Lemak und Hühnchen Rendang
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/S. Asyraf

उद्योग जगत के कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि नस्लों को बदलना गैरजरूरी है. उनके मुताबिक ज्यादा बड़े या तेज नहीं होने वाले ब्रॉयलर चिकेन को अपनाने का मतलब है ज्यादा पानी और दूसरे संसाधनों का इस्तेमाल और तब सुपरमार्केट में चिकेन की कीमत भी बढ़ जाएगी.

इन सब के बावजूद पशु कल्याण पर चिंता बढ़ रही है और कंपनियों का कहना है कि वे मुर्गों को हमेशा बेहतर ढंग से रखने के तरीकों पर नजर रखते हैं. ह्यूमन सोसायटी ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स का कहना है कि जीने के तरीकों को सुधारने से मदद मिलती है लेकिन बड़ी समस्या ब्रीडिंग की है जो मुर्गों के अटपटे शरीर के रूप में सामने आती है.

मुर्गों के जीन में बदलाव के जरिए ऐसे चिकेन पैदा किए जा रहे हैं, जिनका सीना इतना बड़ा है कि उनके पैर संभाल ही ना सकें. ह्यूमन सोसायटी से जुड़े जोश बाल्क ने कहा, "उद्योग जगत को याद दिलाना पड़े कि मुर्गे प्राकृतिक रूप से चल फिर सकते हैं, तो यह एक तरह से पागलपन है." बाल्क के मुताबिक कनाडा के रिसर्च से यह पता चल सकता है कि किस तरह के चिकेन कैसे होने चाहिए जिससे उनकी तकलीफ कम हो.

DW MADE 4.12.2018 - Hühner
तस्वीर: DW

यूनिवर्सिटी ऑफ गुएल्फ के रिसर्चर यह भी देख रहे हैं कि चिकेन की कौन सी खासियत उद्योग जगत के लिए उपयोगी होगी. मसलन उनका वजन बढ़ने की दर या फिर मांस की गुणवत्ता. कंपनियों ने अपने मुर्गों को रिसर्च के लिए उपलब्ध कराया है. इनमें वो ब्रीड भी शामिल हैं जो सबसे ज्यादा बिकते हैं.

कंपनियों का कहना है कि वे पहले से स्वास्थ्य और कल्याण पर नजर रखते हैं लेकिन फिर भी वे रिसर्च में दिलचस्पी ले रहे हैं.

गुएल्फ की इस रिसर्च को ग्लोबल एनिमल पार्ट्नरशिप ने धन दिया है और यह कारोबारी जीवों के कल्याण के लिए मानक बनाती है. वह पहले भी इसके लिए अभियान चलाती रही हैं. रिसर्चरों का मानना है कि चिकेन का कल्याण ज्यादा जटिल मुद्दा है.

एनआर/आरपी (एपी)