थाईलैंड में बढ़ती जा रही है लोकतंत्र की मांग
१३ नवम्बर २०२०प्रदर्शन में भाग लेने वाले लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है और प्रदर्शनकारियों तथा पुलिस की झड़पें भी. 8 नवंबर को भी प्रदर्शनकारी भीड़ को काबू करने की कोशिश में पुलिस ने वाटर कैनन का भी इस्तेमाल किया. प्रदर्शन में उमड़े सैलाब का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भीड़ को रोकने के लिए हजारों की संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया था. पिछले कुछ दिनों में प्रदर्शनकारियों के नेताओं को गिरप्तार भी किया गया है. वैसे तो इन विरोध प्रदर्शनों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है लेकिन यूनाइटेड फ्रंट आफ थमासात एंड डेमन्स्ट्रेशन और फ्री यूथ मूवमेंट ने प्रदर्शनों को ताकत देने में बड़ी भूमिका निभाई है. इमरजेंसी लगने के बाद से रैलियां और सभाएं करने पर रोक है, पांच से ज्यादा लोगों के सभा करने और सार्वजनिक तौर पर इकट्ठा होने पर प्रतिबंध है, लेकिन प्रतिबंधों का कोई असर नहीं होता दिखता. हालांकि रानी के मोटरकेड के सामने नारेबाजी की घटना के बाद पुलिस चौकन्नी है.
युवाओं में बढ़ता असंतोष
आम तौर पर शांतिप्रिय थाईलैंड पिछले कई महीनों से कठिन दौर से गुजर रहा है. विरोध करती जनता सड़कों पर है, जिनमें छात्र नेताओं और युवा थाई लोगों की संख्या बहुत अधिक है. पुलिस की लाठियां और आंसूगैस इन विरोधों को रोकने में बेदम हो रही हैं, देश के प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट सत्ता से चिपके और यथार्थ से दूर बैठे हैं और इन सब से परे देश के नए राजा अपनी अलग दुनिया में गोते खा रहे हैं. विरोध प्रदर्शनों और लोगों की मांगों पर राजा की चुप्पी जनता को और बेचैन कर रही है.
आमतौर पर माना जाता है कि संवैधानिक राजतंत्र जनता को जवाबदेह और जिम्मेदार शासन उपलब्ध कराता है. पड़ोसी मलेशिया को ही ले लीजिए. हाल के दिनों में सत्ता के लालच में जब जब नेताओं ने अपनी मनमानी चलानी चाही, अगोंग (मलेशिया के राजा की उपाधि) ने हस्तक्षेप किया और ऐसे कदम उठाए जो जनता और देश के हित में थे. साथ ही उन्होंने राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं पर भी दबाव डाला. अपने इन जनहितवादी और न्यायपरक कदमों से उन्होंने राजा की गद्दी को और सम्मान दिलाया है.
राजा को लिखी प्रजा ने चिट्ठी
इसके बिल्कुल उलट, थाईलैंड में पूर्व सेना प्रमुख प्रयुथ के शासन से परेशान जनता के लिए राजा और भी बड़ी मायूसी की वजह हैं. इसी के विरोध में 8 नवम्बर को हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने शाही ऑफिस की तरफ जुलूस निकला और हजारों चिट्ठियों के माध्यम से राजा के कामकाज के तरीके में बदलाव की मांग खुद राजा वजिरालांगकॉर्न से की. झड़पों के बाद पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच बातचीत भी हुई जिसके दौरान पुलिस ने जनता से माफी भी मांगी और प्रदर्शनकारियों की चिट्ठियों को पहुंचाने के लिए रखे लेटरबाक्सों को गंतव्य तक पहुंचाने का वादा भी किया. वैसे लगता नहीं कि राजा हजारों चिट्ठियों में से कुछ को भी पढ़ने की इच्छा रखते होंगे.
प्रदर्शनकारियों के पत्रों में इस बात पर जोर दिया गया है कि थाईलैंड पारस्परिक समझौतों और प्रेम का देश है न कि क्रूरता, हिंसा, और नफरत से भरा देश. पत्रों में यह भी नसीहत दी गयी कि प्रजा राजा से प्रेम करे न करे, राजा को सभी नागरिकों और प्रजा से समान प्रेम करना चाहिए, उसे प्रशंसा ही नहीं आलोचना पर भी ध्यान देना चाहिए. इन बातों को राजा के अपने समर्थकों और पुलिस की प्रशंसा में दिए गए वक्तव्य के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. पिछले कई महीनों के दौरान जब देशवासी कोविड महामारी और प्रयुथ के कुशासन से त्रस्त थे, तब राजा जर्मनी में रह रहे थे और उन्होंने जनता की परेशानियों पर कोई ध्यान नहीं दिया. रानी को छोड़ने और वापस स्वीकार करने, रानी के फैशन शो और ऐसी ही कई घटनाओं से राजा वजिरालांगकॉर्न की सामाजिक प्रतिष्ठा गिरी है.
नाराजगी राजा से नहीं, सरकार से
इन विरोधों की सबसे बड़ी वजह राजा से असंतुष्टि नहीं है, इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है देश के प्रधानमंत्री और भूतपूर्व थलसेना अध्यक्ष प्रयुथ छान-ओ-छा के प्रशासन से लोगों की नाराजगी. प्रयुथ पिछले छः सालों से सत्ता पर काबिज हैं. पिछले चुनावों में उन्हें जीत तो मिली थी लेकिन विरोधी दल और प्रदर्शनकारी भी उस चुनाव को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं मानते. जहां तक विरोध प्रदर्शनों का सवाल है तो इसका एक कारण है प्रयुथ सरकार का तानाशाही रवैया जिसके चलते पिछले साल उन्होंने विपक्षी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया. भ्रष्टाचार के तमाम आरोप प्रयुथ सरकार पर लगते रहे हैं. आर्थिक मोर्चे पर भी थाई सरकार फेल ही रही है. कोविड महामारी के दौरान थाई अर्थव्यवस्था न सिर्फ लचर हुई है बल्कि पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं और सब्सिडी के अभाव में प्रयुथ की सरकार की काबिलियत पर भी सवाल उठे हैं.
इसके अलावा प्रदर्शनकारियों की मांग है कि संविधान में संशोधन कर इसे और लोकतांत्रिक और लोक-केंद्रित बनाया जाय. दस-सूत्री मांगों में उनकी एक प्रमुख मांग यह भी है कि राजा की संवैधानिक राजतंत्र में निभाई जाने वाली भूमिका में भी बदलाव किए जायं ताकि वह और जिम्मेदार बन सके. सेना और राजदरबार के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था के बाहर कोई सांठगांठ न हो जिससे थाईलैंड संवैधानिक राजतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था की कसौटियों पर खरा उतर सके. एक आम थाई को कहीं न कहीं यह भी लगने लगा है कि राजा और मंत्री अपनी दुनिया में मशगूल हैं और आम आदमी की किसी को परवाह ही नहीं है. कोविड महामारी ने गरीब तबके के लोगों और युवा वर्ग को सरकार को लेकर खासा निराश भी किया है.
सोशल मीडिया समर्थित विरोध
थाई इतिहास में तख्तापलट और सेना का राजा की कृपा से लोकतंत्र पर कब्जा करना कोई नई बात नहीं है. जनता का सब्र भी एक बार फिर जवाब दे रहा है. लेकिन अतीत में हुए जनविरोधों से यह विरोध कई मामलों में अलग है जिसमें सबसे बड़ी है सोशल मीडिया की भूमिका. सोशल मीडिया ने प्रदर्शनकारियों को सरकार और पुलिस के दमनकारी तरीकों से बचने और अपनी ताकत और पहुंच बढ़ाने में मदद की है. जनता के गुस्से को देखकर कयास यह भी लगे हैं कि कहीं यह थाईलैंड में राजा की संवैधानिक राजतंत्र में प्रधान अभिभावक की भूमिका का अंत ही न कर दे.
प्रदर्शनकारियों ने इन कयासों और अफवाहों पर तुरंत यह कह कर लगाम लगा दी है कि राजदरबार थाई समाज और राजनीति का अभिन्न और सम्माननीय हिस्सा है और वो इसके खिलाफ कभी नहीं जाएंगे. पिछले कई महीनों के घटनाक्रम और जनता की बढ़ती नाराजगी से साफ है कि देर सेबर राजा को सामने आना ही पड़ेगा. साथ ही यह भी तय है की लेसे मेजेस्टे अनुच्छेद भी अब इतिहास का हिस्सा बनेगा. राजा की तर्कसंगत आलोचना करने की बात कल राजा को भेजी चिट्ठियों में भी साफ थी. इसमें कितना समय और संघर्ष और लगेगा, यह कहना मुश्किल है. फिलहाल यह साफ है जोर जबरदस्ती और विपक्ष का मुंह बंद करके प्रयुथ सत्ता में ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे. उनके पास अभी भी शांतिपूर्वक ढंग से विवादों को सुलझाने और बिना सत्ता छोड़े सुशासन लाने का मौका है. यह और बात है कि सत्ता के नशे में चूर तानाशाह इन मौकों को यूं ही गवां देते हैं और उनकी गल्तियों की सजा पूरा देश भुगतता है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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