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तेजी से पिघल रहे हैं जम्मू कश्मीर और लद्दाख के ग्लेशियर

शिवप्रसाद जोशी
११ सितम्बर २०२०

जम्मू, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के 1200 से ज्यादा ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे हैं. 2000 से 2012 तक 70 गीगाटन ग्लेशियर मास पिघल गया. अलग अलग ढंग से इसका असर पर्यावरण के अलावा अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है.

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Nepal Ghorepani, Poon- Hügel, Dhaulagiri in Himalaya
तस्वीर: picture-alliance/C. Wojtkowski

एशिया की प्रमुख नदियों को पानी से भरने वाले हिमालयी ग्लेशियर दुनिया में सबसे ज्यादा तेज गति से पिघल रहे हैं. लेकिन इस गति को लेकर अलग अलग अनुमान और धारणाएं रही हैं. ताजा अध्ययन में वृहद आंकड़ों और प्रामाणिक साक्ष्यों की मदद से महाहिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की दर को वाकई "महत्त्वपूर्ण” बताया गया है. जाहिर है कि ये शब्दावली तभी इस्तेमाल की गई है जब अध्ययन में यह पाया गया कि ग्लेशियर न सिर्फ अभूतपूर्व तेजी से पिघल रहे हैं, बल्कि नया मास उस अनुपात में नहीं बन रहा है. साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में पहली बार जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के अलावा नियंत्रण रेखा (एलओसी) और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) क्षेत्र के समस्त ग्लेशियरों को शामिल किया गया है जिनकी कुल संख्या 1200 से अधिक बतायी गई है. पहली बार सैटेलाइट डाटा का उपयोग भी इन तमाम ग्लेशियरों की बनावट, मास और मोटाई में आए बदलावों को समझने के लिए किया गया है.

कश्मीर विश्वविद्यालय के भूगर्भविज्ञानी और ग्लेशियर विशेषज्ञ शोधकर्ताओं की टीम ने 2000-2012 की अवधि का पर्यवेक्षण काल निर्धारित किया था जिस दौरान ग्लेशियरों में 35 सेंटिमीटर की सालाना गिरावट देखी गई. ग्लेशियरों की मोटाई में आए बदलावों का आकलन करने के लिए 2000 में नासा के सैटेलाइट पर्यवेक्षणों और 2012 में जर्मन स्पेस एजेंसी के डाटा को भी इस अध्ययन में शामिल किया गया. वैज्ञानिकों के मुताबिक 2012 के बाद से ऐसा उपग्रही डाटा दुनिया में उपलब्ध नहीं हैं. दूसरी बात यह है कि अभी तक फील्ड पर्यवेक्षणों के जरिए छह या सात ग्लेशियरों के अध्ययन ही इस क्षेत्र में हुए थे, लिहाजा इस नए अध्ययन का महत्त्व बढ़ जाता है.

शोधकर्ताओं के मुताबिक ग्लेशियरों का पिघलाव तापमान में बढ़ोत्तरी और हिमपात में कमी के चलते होने लगता है और तापमान और बर्फबारी में ये बदलाव आता है तीव्र औद्योगिकीकरण से होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और दुनिया भर में फॉसिल ईंधन के बढ़ते इस्तेमाल से. गौर करने वाली बात है कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख के हिमालयी भूभाग में अभी औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया धीमी है, तब भी ये चिंताजनक बदलाव आ रहे हैं तो इसकी वजह यह है कि यह क्षेत्र वैश्विक स्तर पर होने वाले जलवायु परिवर्तन की कीमत भुगत रहा है.

पिछले साल जून में जारी द एनर्जी ऐंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट, टेरी की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि पश्चिमी हिमालय में कश्मीर का सबसे विशाल कोलाहोई ग्लेशियर के आकार में 1990-2018 के दरम्यान 18 प्रतिशत की कटौती आई है. इस ग्लेशियर के सिकुड़ते जाने की परिघटना का पहला ब्योरा 11 साल पहले कश्मीर यूनिवर्सिटी में कार्यरत उन्हीं ग्लेशियर विशेषज्ञ शकील अहमद रोमशू ने पेश किया था, जो इस नए अध्ययन से भी प्रमुखता से जुड़े हैं. 2009 में समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक तीन साल के अध्ययन से जुटाए आंकड़ों और साक्ष्यों के आधार पर तैयार उनकी रिपोर्ट में कहा गया था कि कश्मीर का सबसे बड़ा ग्लेशियर अन्य हिमालयी ग्लेशियरों की तुलना में अधिक तेजी के साथ पिघल रहा है. 11 वर्ग किलोमीटर से कुछ अधिक के फैलाव वाला यह विशाल ग्लेशियर हर साल 0.8 वर्ग किलोमीटर की दर से सिकुड़ रहा था.

हिम के बिना कैसा हिमालय?

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस की एक स्टडी के मुताबिक ग्लेशियरों के पिघलाव की औसत दर 21वीं सदी की शुरुआत से ही दोगुनी हो चुकी थी. पिछले साल फरवरी में "वॉटर पॉलिसी” जर्नल में प्रकाशित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटड माउन्टेन डेवलेपमेंट संस्था की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिमालयी भूभाग में हिंदूकुश पट्टी के वे इलाके ही पानी के संकट से ग्रस्त हो रहे हैं, जो कई नदियों के उद्गमस्थल हैं. और 2050 तक पानी की मांग और आपूर्ति का अंतर बहुत अधिक बढ़कर दोगुना हो सकता है. 

अकसर राजनीतिक और वैज्ञानिक हल्कों में ग्लेशियरों के पिघलने की सच्चाई को लेकर शंकाएं व्यक्त की जाती रही हैं. ‘पैनिक' न करने की सलाह देते हुए यह भी कहा जाता है कि जलवायु परिवर्तन के साथ पिघलाव का निर्णायक संबंध स्थापित करने के लिए और अधिक वैज्ञानिक अध्ययनों की आवश्यकता है. लेकिन ऐसी शंकाओं के जवाब में जलवायु परिवर्तन पर नजर रख रहे विशेषज्ञों का कहना है कि एक दो दशक पहले तक ऐसी धारणाओं और संदेहों के लिए जगह हो सकती थी लेकिन अब वैश्विक तैयारी पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय नुकसान की अवश्यंभाविता से निपटने की होनी चाहिए क्योंकि निकट भविष्य महफूज भले लग सकता है लेकिन वे सुदूर भविष्य पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहा जा सकता, जिसे हम 'आने वाली पीढ़ी' कहते हैं.    

ग्लेशियरों के निरंतर पिघलते जाने का असर सिर्फ अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रहता क्योंकि सामाजिक अभियानों, नीतियों, और कार्यक्रमों का उसके साथ एक अंतर्संबंध हैं. राजनीतिक विवाद भी नए आर्थिक सामाजिक संकटों के बीच उभरते हैं और संसाधनों पर वर्चस्व और कब्जे की होड़ में आखिरकार समाज के दबेकुचले, कमजोर और वंचित वर्ग ही पिसते हैं. पढ़ने सुनने में अटपटा लग सकता है लेकिन ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करें कि जलवायु परिवर्तन जैसी परिघटना, किस तरह अर्थव्यवस्था को चौपट करते हुए दूरगामी प्रभाव में समाज में एक गहरी खाई भी पैदा कर सकती है. बेशक ये निशान संकट की प्रारंभिक अवस्थाओं में नजर नहीं आते और न ही इनका अंदेशा लगा पाने की दूरदर्शिता निर्मित हो पाती है.

जलवायु परिवर्तन की बहस में बहुत वक्त खर्च किया जा चुका है, भारी नुकसान भुगते जा चुके हैं, फिर भी बचाव के कुछ मौलिक अवसर अभी शेष हैं. वैश्विक स्तर पर एक नई सामाजिक राजनीतिक और पर्यावरणीय संस्कृति बनाने की जरूरत है, जो नवउदारवादी आग्रहों वाली मुक्त बाजारोन्मुख राजनीतिक संस्कृति का मुकाबला करने की लड़ाई में टिकी रह सके, धरती पर जीवन को असमय नष्ट हो जाने से बचा सके और सबसे जरूरी यह कि बेहतरी की नई संभावनाओं की तलाश भी करती रह सके. विख्यात अंग्रेजी उपन्यासकार अमिताव घोष ने जलवायु परिवर्तन की राजनीति और इतिहास पर अपनी प्रसिद्ध किताब "द ग्रेट डिरेंज्मन्टः क्लाइमेट चेंज ऐंड द अनथिंकेबल” में लिखा है कि भविष्य की पीढ़ियां नेताओं और राजनीतिज्ञों को जलवायु संकट से निपटने में विफल रह जाने के लिए जरूर कोसेंगी लेकिन वे शायद कलाकारों और लेखकों को भी उतना ही जिम्मेदार ठहराएंगी क्योंकि आखिरकार नई संभावनाओं की कल्पना करना नेताओं और नौकरशाहों का काम नहीं है.

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