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'तिब्बत में सांस्कृतिक जनसंहार'

२७ मई २०१२

इंटरनेशनल कैंपेन फॉर तिब्बत के सदस्य जोरगी पहली बार यूरोप यात्रा पर हैं. उनका आरोप है कि चीन तिब्बत में सांस्कृतिक जनसंहार कर रहा है. पहले वहां के लोगों को गोली मारी गई. हत्या की गई. अब पहचान मिटाने की कोशिश हो रही है.

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तस्वीर: AP

काले रंग की कमीज पहने उस युवक के चेहरे पर तनाव उस वक्त सबसे ज्यादा था, जब उसने ये बातें कहीं. वह पहली बार धर्मशाला, भारत के बाहर आया है. और अब तिब्बती शरणार्थियों का इंटरव्यू लेकर वह दस्तावेज तैयार कर रहा है. जर्मनी पहुंचे जोरगी ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "हम जेल से छूटे लोगों का, छात्रों का अन्य तिब्बतियों का इंटरव्यू करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि हमें पता चले कि तिब्बत के भीतर कैसे हालात हैं."

जोरगी का काम उस दमन और प्रतिरोध के सबूत इकट्ठा करने का है जो पिछले पचास सालों से जारी है. दलाई लामा 1959 में भागकर तिब्बत से भारत आए. जोरगी का आरोप है कि तब से चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर रखा है. प्रतिरोध की आवाज को दबाने के लिए चीन ने पहले दमन का सहारा लिया. लेकिन अब उसने रणनीति बदल ली है. अब बंदूक के बदले चीन ने सांस्कृतिक वर्चस्व को अपना हथियार बनाया है.

जोरगी कहते हैं, "काम, पहचान और दुकानें तक खत्म की जा रही हैं. चीन की नीतियां धीरे धीरे तिब्बत की पैर पसारने की कोशिश कर रही हैं. हमारी संस्था ने सांस्कृतिक जनसंहार पर एक किताब प्रकाशित की है. अगर चीनी ऐसी नीतियां अपनाता रहा तो आगामी सालों में सांस्कृतिक जनसंहार हो जाएगा."

तिब्बत में जारी चीनी दमन के खिलाफ भारत और पश्चिमी देशों ने समय समय पर दबाव बनाया. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. चीन एक महाशक्ति बन चुका है और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी उससे सहयोग की अपेक्षा रखने लगी है. जोरगी कहते हैं, "अगर अन्य देशों को मनावाधिकारों की चिंता है और वहां जमीन पर हो रहे नाटक का अंदाजा है तो उन्हें कुछ करना चाहिए. लेकिन मैं किसी को कोई सुझाव नहीं दूंगा कि यह करना चाहिए, वह करना चाहिए. तिब्बत के लोग भारत में पिछले 60 साल से रह रहे हैं. भारत को अच्छे से पता है कि उन्हें क्या करना चाहिए."

तिब्बत के बाद भारत में सबसे ज्यादा तिब्बती रहते हैं. जो आंदोलन पूरी तरह से दलाई लामा के इर्द गिर्द खड़ा हुआ है उसका क्या होगा जब दलाई लामा नहीं होंगे. इसका जवाब जोरगी के पास नहीं है. वह कहते हैं कि दलाई लामा ने पिछले साल अपने अधिकार लोकतांत्रिक सरकार को दे दिए थे. "आत्मदाह किसी के उकसावे पर नहीं हो रहे हैं. यह कई सालों की पीड़ा है जो अब इस तरह निकल रही है."

सैकड़ों तिब्बतियों की तरह जोरगी भी कोशिश कर रहे हैं कि दुनिया तिब्बत के दर्द को समझे. ऐसा न होता देख कर भी वह हार नहीं मानते हैं. वे कहते हैं, "हम हमारा समर्थन करने वाले लोगों और सरकार को तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं. लेकिन अगर आप चीनी नेताओं से यह कहें कि तिब्बत की नीतियों में थोड़ा बदलाव करें, ताकि कुछ बदलाव हो. ऐसे कदम तिब्बतियों की जान बचा सकते हैं."

रिपोर्ट: विश्वदीपक

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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