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..ताकि सीबीआई की गरिमा धुंधली न पड़े

२८ अक्टूबर २०१८

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई समय-समय पर विवादों के घेरे में आती रही है. यह भी कहा जा सकता है कि जब-जब सीबीआई पर राजनीतिक दबाव पड़ा, तब-तब उसकी कार्यप्रणाली पर सवालिया लगे.

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Indien, Mumbai: 
Unterstützer von Indiens Oppositionspartei protestieren in der Nähe des Central Bureau of Investigation (CBI)
तस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

सीबीआई को लेकर इन दिनों देश में जो हो रहा है, वह चिंताजनक तो है ही, हास्यास्पद भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी. ऐसी चीजें हो रही हैं, जिन्होंने अनेक ज्वलंत सवाल खड़े किए हैं. 

भला किसने कल्पना की थी कि एक दिन खुद सरकार ही सीबीआई के निदेशक को जबरन छुट्टी पर भेज देगी और फिर पूरा विपक्ष सीबीआई निदेशक को बहाल करने की मांग लेकर सड़कों पर उतर आएगा?

सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा के खिलाफ लगाए गए कथित आरोपों की जांच की सत्यता का पता लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ के एक मत से दिए निर्णय में सरकार को दो सप्ताह का समय दिया गया और इस शर्त के साथ कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पास जो जांच का काम है, वह सुप्रीम कोर्ट के ही सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए.के. पटनायक की निगरानी में होगा. 

यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि सीबीआई प्रमुख को अधिकारविहीन बनाने का मामला राष्ट्रीय महत्ता का मामला है, जिसे लटकाया नहीं जा सकता. यहां सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को परोक्ष रूप से इस प्रकार बांधा है कि वह एक पूर्व न्यायाधीश की निगरानी में ही जांच को अंजाम देंगे.

Indien Neu-Delhi CBI Direktor Rakesh Asthana
सवालों में राकेश अस्थानातस्वीर: Imago/Hindustan Times/A. Sharma

अब इस पूरे मामले में केंद्रीय सतर्कता आयोग के कार्यालय की भूमिका भी इस प्रकार आ चुकी है कि उसकी निष्पक्षता केंद्र में है. यह चिंता का दूसरा कोण हो सकता है, मगर सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि हम भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे में उस संस्था को घसीट रहे हैं, जिस पर भ्रष्टाचारमुक्त शासन-प्रशासन स्थापित करने की मुख्य जिम्मेदारी है.

लोकतंत्र तभी बुराइयों का तिरस्कार कर सकता है, जब उन संस्थाओं की प्रामाणिकता हमेशा बुलंद रहे, जिन पर नैतिकता को स्थापित करने की जिम्मेदारी रहती है. वैसे हम गौर से देखें तो सीबीआई भी पुलिस ही है, मगर इसकी उपस्थिति इतनी बुलंद रही है कि खुद पुलिस वाले भी इसका नाम सुनते ही भय खाने लगते थे.

ऐसा तभी होता है, जब इसमें काम करने वाले लोग ही सत्य की परख में अपनी हस्ती तक दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटते. लेकिन आज उसी सर्वोच्च जांच एजेंसी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, जो बेहद चिंता का विषय है.

पूरा विवाद जिस तरह से खड़ा हुआ, उससे सरकार उलझ गई है. बयान लगातार बदले जा रहे हैं. विवाद ने विपक्ष को उम्मीद का एक सिरा पकड़ा दिया है. उसकी नजर आगामी आम चुनाव पर है और वह इस विवाद को आम चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाकर अपनी राजनीति को सिरे चढ़ाना चाहता है.

लेकिन ऐसे प्रश्नों पर राजनीति करना भी दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा. यह ठीक है कि इस पूरे घटनाक्रम ने पेट्रोल की बढ़ती कीमतों और रुपये के लगातार हो रहे अवमूल्यन से लोगों का ध्यान फिलहाल हटा दिया है, लेकिन नई स्थितियां ज्यादा परेशान करने वाली हैं.

Logo CBI Central Bureau of Investigation, India
तस्वीर: Central Bureau of Investigation

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की चुनौती भी बढ़ गई है. उसे न्याय तो करना ही है, मगर इन दिनों देश की राजनीति और प्रशासन में जो भ्रष्टाचार और अनैतिकता के दंश व्याप्त हैं और उनको लेकर जिस तरह की अराजक स्थितियां बनी हुई हैं, उनको नियंत्रित करने की उम्मीद भी हमें सुप्रीम कोर्ट से ही है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे तत्काल महत्व का मसला जरूर माना है, लेकिन वह किसी जल्दबाजी में नहीं है. दूसरी ओर सरकार भी फूंक-फूंककर कदम रख रही है. बड़ा प्रश्न यह है कि सर्वोच्च जांच एजेंसी 'सीबीआई' की प्रतिष्ठा पर लगे दागों को कैसे मिटाया जाएगा, क्योंकि उसकी प्रामाणिकता सार्वजनिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और अप्रामाणिकता मृत्यु का पर्याय होती है.

यह आवश्यक है कि सार्वजनिक क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो. उसे घर पर रखकर न आएं. सार्वजनिक क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो.

यह पूरा मामला इस हद तक जा चुका है कि अदालत का फैसला जो भी हो, सरकार को वह परेशान ही करेगा. अब इस सवाल का जवाब तो उसे देना ही होगा कि विवाद को इस हद तक जाने ही क्यों दिया गया और जहां तक सीबीआई की बात है, तो एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि बार-बार उसकी प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता पर दाग क्यों लग रहे हैं?

हम न्याय, सुरक्षा, प्रामाणिकता एवं सत्ता से जुड़े लोगों को न इतना खुला आसमां दें कि कटी पतंग की तरह वे बिना मंजिल भटकते रहे और न पिंजरों में बंदी बनाएं कि उनकी बुद्धि, निष्पक्षता, जिम्मेदारी और तर्क जड़ीभूत हो जाए, क्योंकि न्याय को बाधित कर देना भी विरोध एवं विद्रोह को जन्म देना है. क्रांति की आवाज जब भी उठे, जहां भी उठे, जिसके द्वारा भी उठे, सार्थक बदलाव जरूर सामने आए और राष्ट्रीयता अवश्य मजबूत हो.

सरकार किसी भी पार्टी की रही हो, मगर भारत की न्यायपालिका ने संविधान की विजय पताका फहराकर दुनिया को बताया है कि यही देश दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतंत्र कहलाता है. उसकी इस प्रतिष्ठा को कायम रखना जरूरी है, क्योंकि वहीं से हम प्रामाणिकता एवं नैतिकता का अर्थ सीखते हैं, वहीं से राष्ट्र और समाज का संचालन होता है, उनके शीर्ष नेतृत्व को तो उदाहरणीय किरदार अदा करना ही होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

ललित गर्ग/आईएएनएस/आईपीएन

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