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डीडब्ल्यू अड्डाः भारतीय पुलिस ऐसी क्यों है?

४ जुलाई २०१६

डीडब्ल्यू अड्डा में इस बार बात भारतीय पुलिस में सुधारों की जरूरत पर. पुलिस सिस्टम सड़ रहा है. इसमें सुधार कैसे होगा, कब होगा? जरूरी सवालों के जवाब.

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तस्वीर: Reuters

काका हाथरसी की एक कविता है पुलिस महिमा. उस कविता में काका लिखते हैं, झुक झुक करें सलाम, खोमचे ठेले वाले... कह काका कवि, सब्जी मेवा और इमरती, चरना चाहे मुफ्त, पुलिस में हो जा भरती. चरना चाहे मुफ्त पुलिस में हो जा भर्ती. मुफ्तखोर, भ्रष्ट और क्रूर. पुलिस की यही छवि है. सच्ची है या झूठी, यह आप खुद से पूछिए. आपका पुलिस के साथ कब कब और क्या क्या वास्ता पड़ा उसे याद कीजिए? सोचिए कि पुलिस कैसी होती है. और जब सोच लें, तब हम बात करेंगे क्यों पर. पुलिस जैसी है वैसी क्यों है? क्या है जो भारतीय पुलिस को विलेन बनाता है? क्या है जो भारत की पुलिस व्यवस्था को एक सड़ा हुआ सिस्टम बनने पर मजबूर करता है. भारतीय पुलिस एक सड़ा हुआ सिस्टम है, इस पर तो लगभग एक राय है. आप पुलिस अफसरों से भी बात करें तो वे भी यही कहेंगे. लेकिन ऐसा क्यों है, उस पर कोई बात नहीं करता. ना जनता, जो पीड़ित है. ना सरकार जिसकी जिम्मेदारी बनती है. और ना ही पुलिसवाले जो मुफ्त की चरती में खो चुके हैं. बेशक, ऐसा कहते वक्त हम सरलीकरण नहीं कर सकते. क्योंकि असल में वे एक तरह से पीड़ित भी हैं. उनकी पीड़ा पर भी बात होनी चाहिए. इस बार अड्डे पर यही है चर्चा का विषय. पुलिस ऐसी क्यों है?

इस सवाल के कई जवाब मिले हैं. ये जवाब बहुत जरूरी हैं. पूर्व सीबीआई निदेशक जोगिंदर सिंह लिखते हैं कि पुलिस सरकार का ही एक अंग है. इसलिए यह स्वतंत्र रूप से तो काम कर नहीं सकती, तब भी नहीं जबकि प्रमुख ऐसा चाहते हों. और बदकिस्मती से कोई भी सरकार पुलिस को काम करने की आजादी देने को तैयार नहीं है. वह बताते हैं कि ऐतिहासिक रूप से यह सड़न कब शुरू हुई. पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

देखिए, कितना आसान है अच्छा पुलिसवाला बनना

भारतीय पुलिस सेवा के बागी अफसर संजीव भट्ट इस बहस को एक नए मुकाम पर ले जाते हैं. उन्होंने सीधा जड़ पर हमला किया है. उन्होंने बताया है कि पुलिस के भीतर एक नई तरह की संस्कृति ने जन्म लिया है. जूनियर पुलिस अफसरों और सिपाहियों के बीच यह बात घर कर गई कि कार्रवाई ना करना या पक्षपात पूर्ण कार्रवाई करना सफलता की सीढ़ियां चढ़ने का जरिया है. इस नई संस्कृति का नतीजा ना सिर्फ पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के घोर और बेशर्म उल्लंघन के रूप में दिखता है बल्कि फोर्स में अनुशासनहीनता, अक्षमता, असमानता और भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देता है. भट्ट चेतावनी देते हैं कि अगर इस चलन को समय रहते ना समझा गया, ना रोका गया और नेस्त ओ नाबूद ना किया गया तो हमें वैसे ही और बल्कि और ज्यादा भयानक अंतःस्फोट देखने को मिलेंगे. पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

पुलिस को सुधारना है तो इन सवालों के जवाब दो

लेकिन एक सामान्य पुलिस अफसर, एक छोटा सा अफसर जो 24 घंटे नौकरी बजाता है, वह क्या सोचता है? इस सवाल का जवाब जाने बिना हम पुलिस सुधारों की बात नहीं कर सकते. तो एक सब इंस्पेक्टर ने हमारे लिए पुलिस के कुछ सच बयान किए हैं. जाहिर है, उसका नाम हम नहीं बता सकते लेकिन उसका सच आपको पढ़ना ही चाहिए. यहां क्लिक करें.

एक पुलिसवाले की सीक्रेट डायरी

और आखिर में बात बाबा नागार्जुन की, जो दशकों पहले पुलिस का एक चेहरा दिखा गए थे. वह चेहरा एक आइने जैसा है. हम उस आइने में देखें ताकि अपने चेहरे पर लगी पुलिस नाम की यह धूल साफ कर सकें. पुलिस अफसर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

नागार्जुन की कविताः पुलिस अफसर

आप इस बारे में क्या सोचते हैं? आपकी बात जरूर आनी चाहिए ताकि बहस आगे बढ़े और किसी अंजाम तक पहुंचे. तो नीचे कॉमेंट बॉक्स में कॉमेंट जरूर करें.

विवेक कुमार