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डीडब्ल्यू अड्डा: फेक न्यूज पर इतनी चर्चा क्यों?

मार्टिन मूनो
२५ जनवरी २०१७

फेक न्यूज हमेशा से रही हैं. कभी कानाफूसी के तौर पर तो कभी अफवाहों के रूप में. लेकिन सोशल मीडिया के आने से उन्हें ज्यादा जगह मिली है और वे ताकतवर हो गई हैं.

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Symbolbild Facebook - Datenschutz & Gewalt & Hass & Fake News
तस्वीर: picture-alliance/chromorange/R. Peters

क्योंकि वह हर जबान पर है. क्योंकि गूगल सर्च पर एक तिहाई सेंकड में इस विषय पर 15 करोड़ लिंक सामने आते हैं. यह 2016 का सबसे चर्चित शब्द था. जब पूरा समाज एक शब्द पर चर्चा कर रहा हो तो उस पर रिपोर्ट भी होनी चाहिए. लेकिन झूठी खबरें इस बीच सिर्फ चर्चा का ही विषय नहीं हैं, वे राजनीति को भी प्रभावित कर रही हैं.

ब्रेक्जिट जनमत सर्वेक्षण और डॉनल्ड ट्रंप ने तकलीफदेह ढंग से साफ कर दिया कि आसानी से साबित किए जाने वाले झूठ से भी अद्भुत राजनीतिक कामयाबी हासिल की जा सकती है. चुनाव प्रचार के दौरान ब्रेक्जिट समर्थकों ने दावा किया था कि ब्रिटेन हर हफ्ते यूरोप को 35 करोड़ पाउंड ट्रांसफर करता है. सच्चाई में ये रकम एक तिहाई से भी कम थी. फिर भी 47 प्रतिशत मतदाताओं ने उस आंकड़े को सच माना. प्रचारित झूठ जिसे सच माना गया और जिसने वोटरों के फैसले को प्रभावित किया. अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कई बयान भी साफ तौर पर झूठे हैं. तथ्यों की जांच करने वाली वेबसाइट पोलिटीफाक्ट के अनुसार चुनाव प्रचार के दौरान उनके 70 प्रतिशत बयान झूठे या बेतुके थे और 15 प्रतिशत अर्द्धसत्य. इसके बावजूद वह राष्ट्रपति चुने गए. वॉशिंगटन पोस्ट ने तो इसी वजह से तथ्यों की जांच करने वाला एक ऐप बना दिया.

जर्मनी में फेक न्यूज

फेक न्यूज कोई नया रुझान नहीं है. हमेशा से राजनीति अफवाहों और झूठे दावों के आधार पर की जाती रही है. यूरोप में यहूदी विरोध का इतिहास भी झूठी खबरों का इतिहास है. किसी यहूदी को कहीं ईसाई बच्चे की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया जाता, दबाव डालकर उससे गुनाह कबूल करवाया जाता और उसके बाद नतीजा हत्याकांड होता. मध्ययुग से नाजीकाल तक एक निरंतरता देखी जा सकती है. यहूदी विरोधी साप्ताहिक डेय स्टुर्मर में यहूदियों के खिलाफ लगातार घिनौनी झूठी खबरें छपतीं. प्रकाशक यूलियस श्ट्राइषर को इसके लिए न्यूरेमबर्ग मुकदमे के बाद फांसी की सजा दे दी गई. 1440 में गुटेनबर्ग द्वारा छपाई मशीन के आविष्कार के बाद से ही झूठी खबरें तेजी से फैलाना संभव हो गया.

लेकिन फेक न्यूज के खिलाफ सैकड़ों सालों तक चले संघर्ष में सही और गलत खबर में फर्क करने के औजार भी विकसित हुए. चाहे वह फुटनोट की प्रथा हो, जिसकी मदद से स्रोत के बारे में जानकारी दी जाती या पत्रकारिता में खबरों की दो सूत्रों से पुष्टि का सिद्धांत हो. 

Deutschland Geschichte Hitler-Tagebücher Stern Cover
हिटलर की फर्जी डायरी की खबरतस्वीर: picture-alliance/dpa

चौथे पाये का उत्थान और पतन

समाज के लोकतंत्रीकरण के साथ पत्रकारिता का लोकतंत्र के चौथे पाये के रूप में विकास हुआ जिसका काम राज्य के बाकी तीन पायों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर नियंत्रण रखना था. इस जिम्मेदारी में कामयाबी का सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिकी रिपोर्टर बॉब वुडवर्ड और कार्ल बैर्नस्टाइन  हैं जिनकी वॉशिंगटन पोस्ट के लिए महीनों की छानबीन का नतीजा वॉटरगेट कांड के रहस्योद्घाटन के रूप में सामने आया. तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इस कांड में भागीदारी के कारण अगस्त 1974 में इस्तीफा देना पड़ा. वॉटरगेट कांड का रहस्योद्घाटन यदि पत्रकारिता का चरमोत्कर्ष था तो 1983 में पतन का मौका आया जब जर्मन पत्रिका स्टर्न ने एक अंतरराष्ट्रीय प्रेस कॉन्फ्रेंस में हिटलर की कथित डायरी पेश की. पत्रिका ने लिखा कि इस डायरी के रहस्योद्घाटन के बाद नाजीकाल का इतिहास फिर से लिखना होगा, लेकिन दो हफ्ते बाद ही साफ हो गया कि वह डायरी जाली थी. स्टर्न और पत्रकारिता दोनों ही शर्मसार हो गए.

इन इक्का दुक्का घटनाओं से ज्यादा नाटकीय है एक साथ कई मीडिया घरानों की विफलता. 2002-03 में लगभग सभी अमेरिकी मीडिया संस्थानों ने राष्ट्रपति जॉर्ड डब्ल्यू बुश की सरकार की यह दलील मान ली कि इराक के शासक सद्दाम हुसैन के पास जनसंहारक हथियार हैं और वह 2001 में अमेरिका पर हुए आंतंकी हमले में शामिल था. वॉशिंगटन पोस्ट के रिचर्ड कोएन की यह लाइन बहुत प्रसिद्ध हुई कि सिर्फ कोई मसखरा या फ्रांसीसी है मौजूद सबूतों पर संदेह करेगा. आज हमें पता है कि वे सूचनाएं गलत थीं. कोई सबूत नहीं थे. इराक के पास कोई जनसंहारक हथियार नहीं थे.

जमीनी पत्रकारिता का उदय

स्थापित मीडिया से असंतोष और इंटरनेट के विकास की वजह से बड़े मीडिया घरानों से स्वतंत्र भागीदारी वाली पत्रकारिता का उदय हुआ. हमें पता चला कि नेट में प्रसारित डायरी को ब्लॉग कहते हैं. नित नए ब्लॉग आने लगे और बेबाक, बेधड़क लिखने वाले ब्लॉगरों ने नेट पर कब्जा कर लिया. इसका दबाव परंपरागत मीडिया पर था. संस्करण और रीच लगातर घटते गए. न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2006 मे बताया कि ऑनलाइन संस्करण के प्रिंट संस्करण से ज्यादा पाठक थे. उसके बाद आया सोशल मीडिया. आज हर कोई बिना किसी मुश्किल के खबर भेज सकता है. इसका मतलब ये हुआ है कि परंपरागत मीडिया फिल्टर और सूचना देने वाले की अपनी भूमिका गंवा चुकी है. डॉनल्ड ट्रंप के 2 करोड़ फॉलोवरों के सामने किसी अखबार की प्रिंटेड कॉपियों के क्या मायने! लेकिन मुट्ठी भर फॉलोवरों के जरिये भी फेक न्यूज का तूफान लाया जा सकता है. बवेरिया में 55 साल की एक महिला ने 17 साल की एक लड़की के शरणार्थी द्वारा बलात्कार की खबर दी. पुलिस ने जांच की तो खबर पूरी तरह झूठी थी.

झूठी खबर का नतीजा नफरत और हिंसा

यही वजह है कि फेक न्यूज के बारे में बात करना जरूरी है. झूठी खबरों के साथ ही और इंटरनेट में नफरत फैलाने वाली खबरों का सामाजिक महत्व बढ़ा है. नफरत फैलाने वाली झूठी खबरें उन लोगों के नफरत वाले विचारों की पुष्टि करती हैं जिन्हें परंपरागत मीडिया की रिपोर्टिंग से संतुष्टि नहीं हैं. वे अपना असंतोष फेसबुक एंड कंपनी के कॉलमों पर फैलाते हैं. फेक न्यूज का नतीजा सीधी हिंसा भी होता है. अमेरिका में एक व्यक्ति ने एक पिज्जा रेस्तरां के पास अंधाधुंध गोलियां चलाईं. इंटरनेट पर चल रही खबरों से वह आश्वस्त था कि एक अंतरराष्ट्रीय बाल यौन शोषण गैंग रेस्तरां के पिछले कमरों से सक्रिय है.

फेक न्यूज को रोकने के लिए कानूनों में सख्ती लाने की मांगें उठने लगी हैं. इसमें यह फर्क नहीं किया जा रहा है कि वह राजनीतिज्ञों द्वारा जानबूझकर किया जा रहा प्रचार है, निजी यूजरों का नफरत भरा संदेश है या किसी पत्रकार की खराब रिसर्च. वॉशिंगटन पोस्ट की मार्गरेट सलीवन ने फेक न्यूज शब्द का इस्तेमाल ही न करने की सलाह दी है. वह कहती हैं, "इसके बदले झूठ को झूठ कहिए, धोखेबाजी को धोखेबाजी कहिए. साजिश के सिद्धांत को उसी नाम से पुकारिये. फेक न्यूज शुरू से ही स्पष्ट शब्द नहीं है."