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समाज

डिजिटल इंडिया के साये में पनपते अंधेरे

शिवप्रसाद जोशी
२७ फ़रवरी २०१८

मोबाईल फोन धारकों और इंटरनेट यूजर्स की संख्या में अपार इजाफे के बीच डिजिटल विभाजन का  मुद्दा भी बना हुआ है. भारत के शहरों और गांवों के बीच यह फासला बहुत चौड़ा है.

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तस्वीर: picture alliance/dpa/P. Adhikary

एक तरफ तकनीकी पहुंच के लिहाज से ये डिवाइड कम हुआ है लेकिन यही काफी नहीं है क्योंकि इस सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ापन कम नहीं हुआ है. भौगोलिक स्तरो पर डिजिटल विभाजन के साथ डिजिटल लैंगिक असमानता भी चिंता का विषय है.  

इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) और कंतार आईएमआरबी की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इंटरनेट यूजरों की संख्या इस साल जून तक 50 करोड़ हो जाने का अनुमान है. दिसंबर 2017 में ये आंकड़ा 48 करोड़ पहुंच चुका था. साढ़े 45 करोड़ की अनुमानित शहरी में आबादी में से करीब 30 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट है. ग्रामीण भारत में करीब 92 करोड़ की अनुमानित आबादी में से सिर्फ साढ़े 18 करोड़ लोग ही इंटरनेट यूजर हैं. इस तरह गांव के इलाकों में करीब 73 करोड़ लोग इंटरनेट के बगैर हैं. कुल शहरी आबादी, कुल ग्रामीण आबादी से काफी कम है, तो भी ये शहरी-ग्रामीण डिजिटल डिवाइड, पहुंच की संख्या से कहीं अधिक गंभीर है. इसलिए जरूरत इस बात है कि आगामी विकास नीतियों में इस बात का विशेष ख्याल रखा जाए.

दिसंबर 2017 तक शहरी भारत में इंटरनेट पहुंच करीब 65 फीसदी थी, 2016 में ये ये करीब 60 फीसदी थी. इसी तरह ग्रामीण भारत में 2017 में साढ़े 20 फीसदी थी और 2016 में 18 फीसदी. डिजिटल विभाजन की चिंताजनक स्थिति इस बात से भी पता चलती है कि जहां शहरी इलाकों में 28 करोड़ डेली इंटरनेट यूजर में से 62 फीसदी, रोजाना इंटरनेट पर रहते हैं, वहीं ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 53 फीसदी लोग ही इंटरनेट के रोज के यूज़र हैं. इस विभाजन में लैंगिक स्तर पर भी असमानता देखी जा सकती है. कुल इंटरनेट यूजर्स में से करीब 30 फीसदी ही महिलाएं हैं. डिजिटल इंडिया नाम की वृहद परियोजना भले ही शहरों और गांवों के बीच डिजिटल विभाजन से निपटने के लिए कोशिशें कर रही हैं लेकिन डिजिटल लैंगिक अंतराल भी बना हुआ है. जाहिर है डिजिटल साक्षरता मौके की जरूरत है.

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इन लोगों के लिए सहूलियत कब बनेगा इंटरनेटतस्वीर: DW/S. Chowdhury

डिजिटल साक्षरता की कमी ही आज इंटरनेट को एक ऐसी चोर गली भी बना चुकी है जहां आपराधिक मनोवृत्ति वाले लोग उसका गैरकानूनी इस्तेमाल कर रहे हैं. साइबर कानून का जो पूरा ढांचा है उसमें ये अंधेरे कोने चिंता बनाते रहे हैं. आईटी कानून की कई धाराएं अब भी शिथिल हैं और उनमें कई लूपहोल्स भी हैं. दूसरी तरफ इन्हीं कानूनों के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मानवाधिकारों पर भी राज्य सत्ताएं, अंकुश लगाती रही हैं. डिजिटल डिवाइड के लाभार्थियों को कम्प्यूटर, कनेक्टिविटी और कंटेंट उपलब्ध हैं. लेकिन सूचना और प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे की कमी, शिक्षा और साक्षरता की व्यापकता का अभाव डिजिटल डिवाइड को बढ़ाते हैं. सूचना संसाधनों की उपलब्धता ही वंचित और गरीब तबकों में भागीदारी सुनिश्चित करेगी. भारत में करीब 40 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है, साक्षरता दर 25-30 फीसदी से ज्यादा है और आबादी की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी में डिजिटल साक्षरता का अभाव है.

डिजिटल विभाजन के साथ साथ ये जरूरी है कि डिजिटल स्तर पर साक्षरता का भी प्रसार हो. स्मार्ट फोन का बाजार तो दमक रहा है लेकिन इन स्मार्ट फोन का इस्तेमाल सेक्स, जाति, धर्म और वर्चस्व से जुड़ी कुंठाएं कर रही हैं तो ये चिंता की बात है. केरल में आदिवासी युवक को पीट पीट कर मार देने से पहले उसके साथ सेल्फी खिंचाने की हत्यारी मानसिकता और राजस्थान में एक मुस्लिम मजदूर को हत्यारी सनक में मार गिराने का वीडियो बनाने जैसी घटनाएं विचलित और स्तब्ध करती हैं. बाजार की गतिशीलता के आंकड़ों के बीच मानसिक दिवालिएपन और समाज की बर्बरता की रफ्तार भी बढ़ रही है. रिपोर्टों में डिजिटल विभाजन की चिंता तो जता दी जाती हैं लेकिन इस विभाजन की अंदरूनी तहों को भी पलटने की जरूरत है जिसमें न सिर्फ लैंगिक भेद का पता चलता है बल्कि सांप्रदायिक, जातीय और यौन अपराधों की भी तहें वहां पड़ी हैं. कोई निश्चित आधार न भी हो तो सिर्फ हत्या करने का जुनून पनप रहा है. जैसे हत्या करना कोई रोमांच का शगल हो.

डिजिटल इंडिया के इरादे बेशक सही है, गर्वीले तरीकों से इसके प्रचार प्रसार में भी कोई हर्ज नहीं लेकिन डिजिटल इंडिया के साये में क्रिमिनल इंडिया न बनने देना भी एक बड़ी चुनौती है. सरकारों के अलावा सामाजिक, नागरिक स्तरो पर भी जवाबदेही सुनिश्चित किए बिना हम किसी भी तरह के विभाजन को नहीं भर सकते, फिर वो सूचना प्रौद्योगिकी का हो या मानवीयता का या नागरिक अधिकारों का.