ज्ञान के क्षेत्र में सुपर पावर बनना चाहता है भारत
३० जनवरी २००९म्युनिख से प्रकाशित जर्मनी के मशहूर दैनिक ज़्युडडॉएचे त्साइटुंग का कहना है कि भारत शिक्षा के क्षेत्र में भारी निवेश कर ज्ञान के क्षेत्र में भी सुपर पॉवर बनना चाहता है. इसके लिए आनेवाले वर्षों में भारत सरकार शिक्षा और शोध के क्षेत्र में 50 अरब यूरो ख़र्च करेगी. दैनिक का कहना है.
सभी शर्तें भारत के अनुकूल हैं. आधे से भी ज़्यादा भारतवासी 25 साल से कम उम्र के हैं. यह खासकर चीन को लेकर महत्वपूर्ण बात साबित हो सकती है. चीन एशिया में भारत का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी है. लेकिन वहां का समाज हर परिवार में सिर्फ एक ही बच्चे की नीति की वजह से बूढ़ा होता जा रहा है. ताकि भारत में शिक्षा के क्षेत्र में पैसा ठीक जगहों पर पहुँचे, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक विशेष आयोग का गठन किया है जो सीधे उनको सलाह देता है. इस आयोग का कहना है कि भारत को आनेवाले 12 वर्षों में शोध के क्षेत्र में तीन गुना ज्यादा काम करना चाहिए. यह लक्ष्य सिर्फ़ पैसों से पूरा नहीं हो सकता है. शिक्षा और शोध के क्षेत्र को बुद्धिमान लोगों की ज़रूरत होगी जो अर्थव्यवस्था में काम करने का इरादा नहीं रखते हैं या डिग्री पाने के बाद विदेश चले जाएंगे.
कई ऑस्कर के लिए मनोनीत फ़िल्म स्लमडॉग मिलियनेयर की वजह से लोगों ने भारत में सिनेमाघरों के सामने अपना विरोध और क्रोध प्रकट किया है. बहुत से लोगों को ग़रीबी और सामाजिक अन्याय को इस स्पष्ट तरीके से दिखाने को लेकर गहरी नाराज़गी है. लेकिन ऑस्ट्रिया के दैनिक नौए प्रेसे का मानना है कि इसी वजह से निछले वर्ग के लोगों में यह फिल्म हिट हो सकती है.
यह फिल्म अन्य रंग बिरंगी, सपनों की दुनिया में ले जाने वाली बॉलीवुड फिल्मों की ही तरह है. यह हक़ीक़त से दूर एक परीकथा है जो ख़राब परिस्थितियों को भुलाने में मदद करती है. एक ग़रीब भी करोड़पति बन सकता है. इसके बावजूद भी कि वह झोपड़पट्टी का रहनेवाला है. लेकिन इस तरह की ज़िंदगी ने उसको बहुत कुछ सिखाया है ज़िंदा रहने के लिए. जिस तरीके़ से ग़रीबी, अन्याय और पुलिस के बल को दिखाया गया है और जिसपर दक्षिणपंथियों ने एतराज़ जताया, वह ग़रीबों के बीच कोई चिल्लाने वाली बात नहीं है. यह वह ज़िंदगी है जिसका सामना उन्हें हर दिन करना पड़ता है.
फ्रैंकफर्ट से प्रकाशित एक और मशहूर जर्मन अख़बार फ्रांकफ़ुर्तर आलगेमाइने त्साइटुंग ने इस हफ्ते श्रीलंका में तिमल विद्रोही संगठन लिट्टे के नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरण के बारे में जानकारी दी. कहा जाता है कि उन्हें बड़े नेताजी के नाम से ही संबोधित किया जा सकता है और लगभग ईश्वर की तरह उनकी पूजा की जाती है. अख़बार ने टिपण्णी की है
नम्रता और सुशीलता कभी उनके बस की बात नहीं थी. इसके विपरीत यह कहना पड़ेगा कि वह खुद को बढ़ा चढ़ाकर पेश करना ज़्यादा पसंद करते हैं. श्रीलंका के जंगलों में कहीं छिपे प्रभाकरण के लिए अब यह ही बचा है कि 25 साल के खूनी संघर्ष में स्थापित उनका तमिल देश टूट रहा है. साथ में उनकी ज़िंदगी का सपना कि तमिलों का अपना एक राज्य होगा, वह भी खत्म हो गया है. सत्ता को अपने हाथों में समेटने की भूख ने उनको अंधा बना दिया और सही वक़्त पर उन्होंने समझौतों पर अपनी सहमति नहीं दी. अब सरकार एक के बाद एक लिट्टे विद्रोहियों के इलाकों को वापस अपने नियंत्रण में ले रही है. प्रभाकरण के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह अपने ख़िलाफ़ किसी तरह के विरोध को सह नहीं सकते हैं. इसलिए उन्होंने हां में हां मिलाने वाले लोगों को अपने करीब बिठा रखा है. लेकिन इस तरह उन्होंने लिट्टे को और कमज़ोर बना दिया और उसे अंत के करीब ला दिया.
बर्लिन का टागेसत्साइटुंग श्रीलंका में शरणार्थियों को लेकर चिंतित है. बहुत सारे लोग तब मारे गए जब मुल्लाईतिवू शहर के करीब एक 35 किलोमीटर बड़े इलाके़ पर सेना ने हमला किया हालांकि सेना ने पहले कहा था कि शरणार्थी इस सुरक्षित ज़ोन में शरण ले सकते हैं.
कौन इस विशेष ज़ोन में कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार है यह कहा नहीं जा सकता है. सरकार ने सिर्फ कहा कि नागरिकों और विद्रोहियों के बीच अंतर करना मुश्किल हो गया था. ऐसा लग रहा है कि कोलंबो विद्रोहियों को नष्ट करने के लिए हर क़दम उठाने के लिए तैयार है. और ऐसे में श्रीलंका की सरकार का बयान कि नागरिकों को नुकसान नहीं पहुँचाया जाएगा, विश्वसनीय नहीं रह गया. साथ में लिट्टे पर भी आरोप हैं. लग रहा है कि वह शरणार्थियों को इन इलाक़ों को छोड़ने से रोक रही है. और ऐसे में 250 000 लोग दोनों पक्षों के बीच फंसे हुए हैं और उनके साथ गेंद की तरह बर्ताव किया जा रहा है.