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जापान के सच का स्याह कोना

१० अक्टूबर २००९

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त जापान की जेलों में क़ैदियों को बुरे हालात में रखा जाता है. इसी यातना के बीच वे अपनी सज़ा का इंतजार करते हैं या शायद मौत का. क्या है सच्चाई और क्यों है ऐसा.

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तस्वीर: AP

दस बाई दस के आकार वाली एक बंद कोठरी, हाथों में बेड़ियां. न हवा, न पीने का पानी, अमानवीय सुलूक- इतना ही नहीं नियमों की अनदेखी पर, एक और क्रूरता. यानी महीनों तक एक ही अवस्था में बैठे रहने की सज़ा.

इन सज़ाओं के बारे में सोच कर ही दिल दहल जाता है लेकिन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताक़त जापान की जेलों में क़ैदियों को इन्हीं हालात में रखा जाता है. इसी यातना के बीच वे अपनी सज़ा का इंतजार करते हैं या शायद मौत का.

जापान के क्यूशू में रहने वाले 83 साल के सका मंदा आज भी जेल में कटा समय याद कर बरबस ही कराह उठते हैं. डबडबाई आंखों और थरथराते होंठों के साथ मेंदा बताते हैं कि बिना किसी अपराध के जेल की छोटी सी काल कोठरी में उन्होंने अपने जीवन के 34 साल गुज़ारे. हर दिन उनके लिए एक नया सूरज तो लाता था लेकिन उस सूरज की रौशनी वो देख पाएंगे भी या नहीं, ये वहां के पुलिसकर्मियों के हाथ में होता था. जेल में गुज़रा हर दिन उन्हें अपने जीवन का आखिरी दिन लगा. मेंदा के लिए मौत का इंतज़ार किसी प्रताड़ना से कम नहीं था. मृत्युदंड की सज़ा पाने वाले, मेंदा ऐसे पहले व्यक्ति हैं जो ज़िंदा जेल से बाहर आ सके.

इस प्रताड़ना को सहने वाले मेंदा अकेले नहीं हैं.. इस समय, जापान की जेलों में ऐसे 102 कैदी हैं जो इन यातना भरी परिस्थितियों में कई सालों से अपनी सज़ा का इंतजार कर रहे हैं ...न किसी से मिलने न बात करने की अनुमति. एमनेस्टी इंटरनेश्नल नामक मानवाधिकार संगठन के अनुसार इनमें से करीब 5 कैदी ऐसी जीवन शैली के चलते अपना मानसिक संतुलन भी खो चुके हैं और कई उस कगार पर हैं... रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जापान में सात कैदियों को फांसी दी गई...जिनमें से एक चेन डिटोंग नाम का चीनी नागरिक था. डिटोंग के वकील के मुताबिक, अपराध के समय डिटोंग की दिमागी हालत ठीक नहीं थी...और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार नियमों के अनुरूप ऐसे किसी भी इंसान को फ़ांसी नहीं दी जा सकती जो दिमागी तौर पर अस्थिर हो.

एमनेस्टी के स्वास्थ्य विशेषज्ञ जेम्ज़ वेल्श का कहना है कि मृत्यु दंड की सज़ा पाने वाले सामान्य क़ैदियों के अलावा संवेदनशील वर्ग वाले दूसरे कैदियों की रक्षा के लिए भी अंतरराष्ट्रीय मापदंड बनाए गए हैं. जिनमें गर्भवती महिलाएं आती हैं, बच्चे और मानसिक अस्थिरता के शिकार लोग.

''हम जापानी सरकार से सिर्फ इतना चाहते हैं कि वह नियमों को पूरी मान्यता दे और ऐसे कैदियों की हिफ़ाज़त सुनिश्चित करे. ''

टोक्यो में रहने वाले वकील, शुंजी मियाके का मानना है कि ''जापान की दंड प्रणाली को काफी हद तक गुप्त रखा जाता है. इसलिए ये पता लगाना मुश्किल है कि किसी अस्थिर दिमागी हालत वाले व्यक्ति को सज़ा दी गई या नहीं. मीडिया रिपोर्टो को देखा जाए तो ऐसा कई बार हुआ है कि कैदियों को पांच या उससे ज़्यादा साल के लिए अपनी सज़ा का इंतज़ार करना पडा है. तो ये संभव है कि वे लोग इतने लंबे समय में अपना मानसिक संतुलन भी खो देते हों.''

जापान की लोकतांत्रिक पार्टी ने जब इस साल देश की कमान संभाली को मृत्यु दंड पर विराम लगाने की पूरी कोशिश करने का उसका वादा था. लगता है सरकार उस वादे को भूल गयी है. इतना ही नहीं, जापानी जनता के बीच किया गया ये सर्वे चौंकाने वाले नतीजे दिखाता है. सर्वे के मुताबिक सरकार से ज़्यादा वहां के लोग मृत्युदंड को सही मानते हैं.

क्या यही है, उगते सूरज वाले प्रगतिशील देश, जापान की असली तस्वीर. वो जापान जिसके इतिहास में हिरोशिमा और नागासाकी जैसी जघन्य यातना और क्रूरता के घाव भी दर्ज हैं. अभिशाप सरीखी उन मौतों के लिए जापान पी़ढ़ी दर पीढ़ी सिसकता रहा है लेकिन वहीं सज़ा वाली इन मौतों पर उसका समाज औऱ सरकार ख़ामोश है.

रिपोर्ट: प्रिया एसेलबोर्न

संपादन: एस जोशी