असुरक्षित सरकार की कलाबाजियां
३ अप्रैल २०१८प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को कोई खतरा नहीं है. लोकसभा में तो उसे पूर्ण बहुमत से कहीं अधिक हासिल है ही, राज्यसभा में भी अब उसकी शक्ति बढ़ती जा रही है. लेकिन आज वह अपने आपको जितना असुरक्षित महसूस कर रही है, उतना पहले कभी नहीं कर रही थी. स्वाधीन भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि लोकसभा में विपक्ष द्वारा रखा गया अविश्वास प्रस्ताव चर्चा के लिए स्वीकार ही नहीं हो पा रहा है क्योंकि सदन की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन सदन में कुछेक सदस्यों द्वारा किए जाने वाले शोर-शराबे को बहाना बना कर उसे टाले जा रही हैं जबकि परंपरा यह कि सारे कामकाज को एक तरफ रखकर सबसे पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराई जाती है.
स्पष्ट है कि सरकार जवाबदेही से बच रही है. संसद के अलावा जवाबदेही का एक अन्य मंच सूचना माध्यम यानी मीडिया है जिसका काम ही सरकार के कामकाज के ऊपर नजर रखना है. हालांकि पिछले चार सालों में भारतीय मीडिया ने अपनी इस भूमिका को निभाने में अभूतपूर्व कोताही की है और सरकार के आगे लगभग घुटने टेक दिए हैं, लेकिन हाल ही में उसके कुछ हिस्सों ने लड़खड़ा कर ही सही, पर उठकर खड़े होने की कोशिश की है. पर सरकार को लगता है वह भी मंजूर नहीं. अपने बचाव के लिए वह क्या करे, इस बारे में सरकार के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है लेकिन उसकी मंशा स्पष्ट है.
सोमवार को सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने केंद्र सरकार द्वारा प्रत्यायित पत्रकारों के लिए इस दावे के साथ नए निर्देश जारी किए कि उनका लक्ष्य 'फेक न्यूज' यानी नकली या झूठी खबरों पर अंकुश लगाना है. अखबारों, पत्रिकाओं और टीवी समाचार चैनलों में काम करने वाले कुछ पत्रकारों को उनके मंत्रालय के अधीन काम करने वाला पत्र सूचना कार्यालय प्रत्यायित करता है और इस आधार पर वे विभिन्न सरकारी दफ्तरों और सरकारी कार्यक्रमों में जा सकते हैं. इससे उन्हें पत्रकार के रूप में काम करने में सुविधा होती है. मसलन, किसी विदेशी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के संवाददाता सम्मेलन या अन्य किसी कार्यक्रम में केवल प्रत्यायित पत्रकार ही जा सकते हैं.
नया निर्देश यह है कि यदि इन पत्रकारों द्वारा दी गयी किसी खबर के खिलाफ कोई शिकायत आती है, तो उसे भारतीय प्रेस परिषद या राष्ट्रीय ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के पास भेज दिया जाएगा और उस पत्रकार का प्रत्यायन तत्काल निलंबित कर दिया जाएगा. अपेक्षा की जाएगी कि पंद्रह दिन के भीतर जांच पूरी कर ली जाए और दोषी पाए जाने पर पहली बार छह माह के लिए, दूसरी बार एक साल के लिए और तीसरी बार स्थायी रूप से प्रत्यायन रद्द कर दिया जाएगा.
पहली नजर में तो इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता. लेकिन थोड़ा सा सोचने पर समझ में आ जाता है कि असली मंशा क्या है. शिकायत होते ही प्रत्यायन निलंबित हो जाएगा. फिर पंद्रह दिन में जांच पूरी होने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यदि शिकायतें बहुत अधिक आ गयीं और प्रेस परिषद या ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन उन्हें पंद्रह दिन में न निपटा सकी, तो जाहिर है मामला लंबा खिंचता जाएगा और पत्रकार का प्रत्यायन निलंबित रहेगा.
दूसरे, प्रेस परिषद के पास तो कुछ संवैधानिक अधिकार भी हैं, लेकिन ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन तो नितांत निजी संस्था है, जिसके फैसलों को अधिकांश टीवी चैनल नहीं मानते हैं. फिर वह अपने फैसले कैसे मानवाएगी?
दिलचस्प बात यह है कि सोशल मीडिया और वेबसाइट और वेब पोर्टल आदि पर ही फेक न्यूज का सबसे अधिक बोलबाला है. खुद, मोदी और उनकी सरकार के समर्थक हिंदुत्ववादी अनेक ऐसी वेबसाइट चलाते हैं और निरंतर व्हाट्सएप एवं ट्विटर पर झूठी खबरें और झूठी तस्वीरें प्रचारित-प्रसारित करते रहते हैं. लेकिन इस सब पर अंकुश लगाने की कोई जरूरत सरकार को महसूस नहीं हुई है.
सोमवार निर्देश जारी होते ही हंगामा मच गया. कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने और पत्रकारों ने विरोध किया. नतीजतन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझ में आ गया कि चुनाव के साल में ऐसे कदम उठाना नुकसानदेह सिद्ध हो सकता है. इसलिए मंगलवार को ये निर्देश वापस ले लिए गए. लेकिन इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार किसी भी तरह की जवाबदेही से बचना चाहती है और अपने कामकाज को लेकर खासी असुरक्षित महसूस कर रही है.
इसके अलावा, एक प्रश्न और भी है. खुद सरकार की ओर से जो झूठ बोला जाता है, उसका क्या होगा? जब स्मृति ईरानी ने प्रसार भारती के कर्मचारियों का वेतन रोक दिया, तो कारण यह बताया गया कि प्रसार भारती ने एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू ) पर हस्ताक्षर नहीं किए थे. जब सूचना के अधिकार के तहत इस एमओयू के बारे में जानकारी मांगी गयी, तो पता चला कि अभी तो उसका मसौदा तैयार हो रहा है. जब मसौदा ही तैयार नहीं, तो हस्ताक्षर किस पर होते? अब इस फेक न्यूज का क्या हो?