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जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण पर उल्टा चल रही है मोदी सरकार?

हृदयेश जोशी
१७ जनवरी २०२०

साफ हवा को तरसते दिल्ली और उत्तर भारत के लोगों को राहत मिलने की उम्मीद नहीं है. एक तरफ कोयला से चलने वाले बिजलीघर और दो साल तक जहरीला सल्फर छोड़ते रहेंगे, तो वहीं सरकार कोयले पर 400 रुपये प्रति टन का सेस हटाने जा रही है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri,

अब यह साफ हो गया है कि दिल्ली के पड़ोसी राज्यों के कोयला बिजलीघर बिना सल्फर इमीशन कंट्रोल टेक्नोलॉजी लगाए कम से कम दो साल और चलते रहेंगे. यह दिल्लीवासियों समेत उत्तर भारत के करोड़ों लोगों की सेहत के लिए अच्छी ख़बर नहीं है. फिलहाल सरकार ने प्रदूषण फैला रहे इन बिजलीघरों को चालू रखने की "मौखिक सहमति" दे दी है. कई अधिकारियों और पावर कंपनियों ने इसकी पुष्टि की है.

दिसंबर 2015 में सरकार ने दिल्ली के तीन पड़ोसी राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा को 11 कोयला बिजलीघरों को नए उत्सर्जन मानकों के तहत 2017 तक सल्फर इमीशन कंट्रोल डिवाइस लगाने को कहा. पहली समयसीमा में फेल होने के बाद दो साल का एक्सटेंशन मिलने के बावजूद 31 दिसंबर 2019 तक भी इन बिजलीघरों ने यह तकनीक नहीं लगाई.

सरकार और कोल पावर कंपनियों का कहना है कि सल्फर डाई ऑक्साइड कंट्रोल डिवाइस न होने के बावजूद फिलहाल प्लांट चलाते रहेंगे. वेदांता के पंजाब स्थित कोल पावर प्लांट तलवंडी साबो पावर लिमिटेड (टीएसपीएल) ने हमारे सवालों के लिखित जवाब में कहा, "इस मामले में टीएसपीएल ने दूसरी संबंधित पावर कंपनियों के साथ ऊर्जा मंत्रालय, पर्यावरण मंत्रालय और केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड से बात की है. हमें इस मामले में (बिजलीघर चालू रखने के लिए) मौखिक सहमति मिल गई है लेकिन लिखित अनुमति का अभी इंतजार है. हमें मीडिया में छपी खबरों से लगता है कि ऊर्जा मंत्रालय ने इस विषय (सल्फर डाई ऑक्साइड टेक्नोलॉजी लगाने के लिए) में दिसंबर 2021 तक मोहलत मांगी है."

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इससे पहले हरियाणा के ऊर्जा मंत्रालय में एडीशनल चीफ सेक्रेटरी टीसी गुप्ता के अलावा कई दूसरे अधिकारियों ने भी इसकी पुष्टि की थी कि कोयला बिजलीघर नियम पालन में फेल होने के बाद भी चलते रहेंगे. पंजाब में पावर कंपनी एलएंडटी ने तो अपने बिजलीघर बाकायदा बयान जारी कर बंद किया लेकिन दो दिन बाद फिर से बिजली बनाना शुरू कर दिया.

दिल्ली और आसपास के इलाकों में प्रदूषण के खतरनाक स्तर को देखते हुए प्रदूषण फैला रहे इन कोयला बिजलीघरों को मिला यह दूसरा एक्सटेंशन आम आदमी के स्वास्थ्य पर कड़ी चोट है क्योंकि सल्फर डाइ ऑक्साइड गैस सांस संबंधी खतरनाक बीमारियों को बढ़ाने के साथ एयर क्वॉलिटी इंडेक्स को तेज़ी से बिगाड़ने में रोल अदा करता है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/R. Gupta

पिछले तीन साल में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत में हर साल 10 से 12 लाख लोगों की मौत के पीछे वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारी कारण है. आज दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 20 से अधिक भारत के हैं जिनमें दिल्ली समेत उत्तर भारत के तमाम शहर शामिल हैं.

ऐसे में सरकार न केवल कोयला बिजलीघरों को जहरीला धुआं छोड़ने की छूट दे रही है बल्कि कोयले पर मौजूदा 400 रुपये प्रति टन का सेस हटाकर इन कोल पावर प्लांट्स को और शह दे रही है. यह सच है कि साफ ऊर्जा की घटती कीमतों की वजह से कोल पावर सेक्टर काफी आर्थिक दबाव में है.

पिछले एक दशक सोलर पावर की कीमत सात से आठ गुना गिरी है. जहां सौर और पवन ऊर्जा आज 2.5 रुपये से 3.00 रुपये प्रति यूनिट है वहीं कोयला 3.5  से 4.00 रुपये प्रति यूनिट है. यही वजह है कि पावर सेक्टर कर्ज में डूबा पड़ा है.

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ताप बिजलीघरों (थर्मल पावर प्लांट्स) की कुल बैंक देनदारी 2.8 लाख करोड़ से अधिक हो चुकी है. लेकिन सरकार कोयला खनन और आयात पर सेस खत्म करके कोल पावर कंपनियों को जो राहत दे रही है उससे कोई मकसद हासिल होगा, इस पर जानकारों को संदेह है. देश का कुल कोयला उत्पादन कम से कम 60 करोड़ टन प्रतिवर्ष है. सामान्य गणना के हिसाब से भी 400 रुपये प्रति टन के इस सेस से सालाना 24,000 करोड़ रुपया जमा होता.

पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही आई-फॉरेस्ट के संस्थापक और सीईओ चन्द्र भूषण कहते हैं, "हमने सरकार को पहले भी सलाह दी थी कि इस फंड के ज़रिए कोयला बिजली कंपनियों को सस्ते या ब्याज रहित कर्ज दिए जाएं ताकि वह सल्फर इमीशन कंट्रोल डिवाइस लगाने और अन्य उत्सर्जन मानकों को पूरा करने के लिए कदम उठाते लेकिन सरकार ने तो इस टैक्स से बनाए गए फंड को ही जीएसटी घाटे की भरपाई में लगा दिया."

आंकड़ों के मुताबिक  सरकार ने कोयसा सेस के नाम पर अब तक कुल करीब 1 लाख करोड़ रुपया इकट्ठा किया. जानकारों का तर्क है कि इसे क्लीन एनर्जी को बढ़ावा देने और प्रदूषण नियंत्रण की टेक्नोलॉजी और यंत्र लगाने में इस्तेमाल होता तो कोयला बिजलीघरों पर भी दबाव कम होता. भारत की ऊर्जा जरूरतों का 60 प्रतिशत से अधिक अभी भी कोयला बिजलीघर पूरा करते हैं. इसलिए साफ ऊर्जा, प्रदूषण नियंत्रण और कोलपालर के साथ एक संतुलन बना कर चलने की जरूरत है.

कोयला खनन और आयात पर सेस पहली बार 2010 में यूपीए सरकार को वक्त लगाया गया ताकि एक फंड बनाया जा सके जिससे साफ ऊर्जा (सोलर और विन्ड) प्रोजेक्ट्स को बढ़ावा मिले. मोदी सरकार ने तीन साल के भीतर इस सेस को 50 रुपये प्रति टन से बढ़ा कर पहले 100, फिर 200 और उसके बाद 400 रुपये प्रति टन कर दिया.  इतना ही नहीं इस फंड का इस्तेमाल क्लीन एनर्जी के बजाय राज्यों के जीएसटी घाटे की भरपाई के लिए किया जाने लगा.

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पिछले साल संसदीय पैनल ने इस बात पर भी आपत्ति जताई थी कि करीब एक लाख करोड़ के इस नेशनल क्लीन एनर्जी फंड को जीएसटी की भरपाई के लिए क्यों इस्तेमाल किया जा रहा है. जानकार और रिसर्च एजेंसियां बार-बार कह रही हैं कि भविष्य में साफ ऊर्जा संयंत्रों में निवेश ही काम आयेगा इसलिए सरकार को इसी दिशा में काम करना चाहिए.

ऊर्जा क्षेत्र में सर्वे करने वाली संस्था IEEFA ने चेतावनी दी है कि सरकार ने ताप बिजलीघरों की हालत आर्थिक रूप से जितनी खस्ता बताई है, असल हालत उससे भी खराब है. थर्मल पावर प्लांट्स की ऊंची लागत को देखते हुए IEEFA ने निष्कर्ष निकाला है कि अगर ताप बिजलीघरों की जगह क्लीन एनर्जी प्लांट्स (सौर और पवन ऊर्जा) लगाये जाएं तो इतनी ही बिजली 30 प्रतिशत कम खर्च पर हासिल की जा सकती है.

IEEFA ने चेन्नई के प्रस्तावित 4000 मेगावॉट के थर्मल प्लांट की मिसाल देते हुए कहा है कि यह प्रस्तावित बिजलीघर 5 से 6 रुपये प्रति यूनिट की लागत पर बिजली देगा जिससे इसका घाटे में जाना तय है. 

यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि साल 2015 में पेरिस डील के वक्त भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच में साफ ऊर्जा के महत्वाकांक्षी वादे किए और शुरुआत में इन कदमों पर वह गंभीर भी दिखी. लेकिन क्या अब जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने और ग्रीन पॉलिसी पर जोर का वादा करने वाली मोदी सरकार का यह कदम उल्टी दिशा में नहीं कहा जाएगा? क्योंकि सरकार जहां एक ओर प्रदूषण नियंत्रण टेक्नोलॉजी लगाने में दो-दो बार फेल होने के बाद भी कोयला बिजलीघरों पर जुर्माना लगाने के बजाय उन्हें और ढील दे रही है वहीं कोयले से टैक्स हटाकर साफ ऊर्जा के बजाय कार्बन छोड़ने वाले ईंधन को ही बढ़ा रही है.

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