सरकार को पासवर्ड देने से क्या इंटरनेट पर रुक जाएगी नफरत
१७ दिसम्बर २०१९बीते सालों में इंटरनेट की आजादी को लेकर बहस तेज हुई है. दुनिया भर की सरकारें समाज और राजनीति पर पड़ते इसके प्रभाव को लेकर पसोपेश में हैं. अकसर सरकारों की मंशा को लेकर भी सवाल उठते हैं. इसी कड़ी में जर्मन सरकार इंटरनेट कंपनियों के लिए नफरत वाले पोस्ट डालने वालों का पासवर्ड देना जरूरी करना चाहती है. इंरटनेट की आजादी और डिजिटल अधिकारों की वकालत करने वाले सरकार के इस कदम को यूजरों की "निजता" में अनुचित दखल मान रहे हैं. हालांकि सरकार का मानना है कि अपराध पर लगाम के लिए यह जरूरी है. जर्मनी के न्याय मंत्रालय ने सरकार के इस कदम बचाव किया.
पहले से ही जानकारी मांगने के अधिकार
न्याय मंत्रालय के एक प्रवक्ता का कहना है कि अधिकारियों के पास इस तरह की जानकारी मांगने के लिए पहले ही अधिकार हासिल हैं. उनकी दलील है कि सरकार का प्रस्ताव मौजूदा अधिकारों की महज व्याख्या के लिए है इसके विस्तार के लिए नहीं. प्रवक्ता ने कहा, "दोषी व्यक्तियों की पहचान करने के लिए, सरकारी वकील के पास यह अधिकार होना चाहिए कि वह इंटरनेट प्लेटफॉर्मों से आंकड़ों की मांग कर सके. एक व्यक्ति के मामले में यह जरूरी है कि उसके अकाउंट तक पहुंचा सके. इसके लिए मौजूदा कानून में ही प्रावधान है."
मंत्रालय की ओर से तैयार किए जा रहे बिल में ऑनलाइन पर नफरत भरे बयानों पर लगाम लगाने का लक्ष्य रखा गया है. यह फेसबुक जैसी सोशल मीडिया वेबसाइटों के लिए अधिकारियों के मांगे जाने पर इस तरह की जानकारी देना जरूरी बनाएगा. इसमें पासवर्ड के साथ ही यूजरों के अकाउंट को देखने का अधिकार भी शामिल है. आमतौर पर वेबसाइटों के पासवर्ड इनक्रिप्टेड फॉर्म में होते हैं ऐसे में वेबसाइटों के लिए उन्हें अधिकारियों को सौंपना मुश्किल काम होता है.
न्याय मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना है कि यह जज पर निर्भर करेगा कि वह अलग अलग मामलों के आधार पर फैसला करे कि आंकड़े अधिकारियों को सौंपे जाएं या फिर नहीं.
इंटरनेट उद्योग से जुड़े लोगों ने बिल के प्रस्ताव का विरोध किया है. इको इंटरनेट इंडस्ट्री नेटवर्क के प्रमुख ओलिवर सुएमे का कहना है, "यह नफरत वाले अपराधों पर लगाम लगाने के लिए नहीं है बल्कि सरकार और प्रशासन को विस्तृत निगरानी का अधिकार देने के लिए है."
भारत में भी इंटरनेट दबाव में
भारत में भी बीते सालों में कई बार इंटरनेट की आजादी को लेकर यह बहस रही है. नफरत फैलाने वाले बयानों पर लगाम लगाने के लिए सरकार यहां सोशल मीडिया अकाउंट को आधार कार्ड से जोड़ने की तैयारी कर रही है. सरकार की दलील है कि इससे फेक अकाउंट पर रोक लगाई जा सकेगी. फिलहाल भारत में सरकार अकसर अफवाहों को फैलने से रोकने के नाम पर इंटरनेट की सेवा बंद कर देती है. स्थानीय अधिकारी इस बारे में फैसला लेने के लिए सक्षम है और इस अधिकार का नियमित तौर पर इस्तेमाल होता है. इसके लिए भारत के अपराध प्रक्रिया संहिता (1973) में धारा 144 को आधार बनाया जाता है. इस धारा के तहत सरकार को कानून व्यवस्था के उल्लंघन की स्थिति में व्यापक अधिकार मिल जाते हैं.
अमेरिका के एक गैरलाभकारी रिसर्च इंस्टीट्यूट फ्रीडम हाउस के मुताबिक जनवरी 2018 से मई 2019 के बीच भारत में कम से कम 30 बार इंटरनेट की सेवा बंद की गई. अगर कश्मीर को भी इसमें शामिल कर दें तो यह संख्या 180 से ऊपर चली चाएगी. इस कदम के पीछे सरकार कानून व्यवस्था कायम रखने, हिंसा रोकने और विरोध प्रदर्शनों के साथ ही अफवाहों पर लगाम लगाने की दलील देती है. जम्मू कश्मीर में बीते चार महीने से ज्यादा से इंटरनेट बंद है. हाल ही में नागरिकता संशोधन बिल पास होने के बाद भी कई राज्यों और इलाकों में इंटरनेट की सेवा बंद की गई.
आलोचकों का कहना है कि इसके पीछे सरकार विरोधी भावनाओं को फैलने से रोकना भी एक मकसद है. ऐसे मामलों में आम तौर पर अदालत से भी राहत नहीं मिलती है. बीते सालों में कई लोगों को इंटरनेट पर पोस्ट डालने के लिए पुलिस ने हिरासत में भी लिया है. हाल ही में एक मामला अभिनेत्री पायल रोहतगी से जुड़ा सामने आया है. पायल रोहतगी को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के खिलाफ पोस्ट डालने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. राजस्थान के बूंदी की अदालत में इस बारे में याचिका दायर की गई थी. जिसके बाद पुलिस ने उन्हें अहमदाबाद में उनके घर से गिरफ्तार कर बूंदी की जेल में डाल दिया है. कोर्ट ने उन्हें 9 दिन के लिए न्यायिक हिरासत में भेजा दिया. पायल रोहतगी की जमानत याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के तहत जो अभिव्यक्ति की आजादी मिली है वह असीमित नहीं है. बाद में उन्हें दूसरी अदालत से जमानत मिल गई.
रिपोर्ट: निखिल रंजन (डीपीए)
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