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जर्मनी के लिए संभावनाओं का बाजार है भारत

महेश झा
२२ नवम्बर २०१८

भारत जर्मन आर्थिक संबंधों में दशकों से जर्मन मिटेलस्टांड के महत्व की चर्चा होती रही है. मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड जर्मनी के छोटे और मझोले उद्यमों को भारत ले जाने की एक जरूरी पहल है.

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Diskussion über Deutsch-Indische Wirtschaftsbeziehungen
तस्वीर: DW/M. Jha

ओलिवर लुइडके जब भारत में निवेश की बात करते हैं, तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है. वे बायो ईंधन और टेक्नोलॉजी कंपनी वैर्बियो में बायोमिथेनॉल विभाग के प्रमुख हैं. उनकी कंपनी वैर्बियो को भारत जर्मन आर्थिक संबंधों में पूरक कहा जाता है. भारत को बायोगैस की जरूरत है और जर्मन शहर लाइपजिग की कंपनी वैर्बियो बायो डीजल और बायो गैस बनाने में अग्रणी कंपनी है.

वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने वाली ये कंपनी जर्मनी के बाजार से स्वतंत्र होना चाहती है दूसरी तरफ भारत की सरकार अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक निवेश पर जोर दे रही है. अगले पांच सालों में भारत की सरकार ऊर्जा में तेल का हिस्सा 82 प्रतिशत से घटाकर 67 प्रतिशत करना चाहती है. बाकी हिस्सा अक्षय ऊर्जा से पैदा करने का इरादा है. कंपनी के लिए अभूतपूर्व मौका है, लेकिन निवेश कैसे किया जाए और कहां किया जाए?

राजधानी दिल्ली स्मॉग की समस्या को लेकर सुर्खियों में रहती है और इसकी ठीकरा पंजाब के किसानों पर फोड़ा जाता है. ये किसान खर्च बचाने के लिए धान के पौधों को फसल कटने के बाद खेत में ही जला देते हैं. वैर्बियो के पास पुआल से बायोगैस बनाने की तकनीक है. पंजाब में निवेश से सबका फायदा होगा. वैर्बियो के भारत में निवेश को आसान बनाने में मदद दी है जर्मनी में भारतीय दूतावास के मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड परियोजना ने.

चार साल पहले भारतीय दूतावास ने जर्मनी की छोटी और मझोली कंपनियों को भारत में निवेश के लिए प्रोत्साहित करने की खातिर मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड शुरू किया.

जर्मनी में मिटेलस्टांड की आर्थिक विकास और रोजगार में अहम भूमिका है. आम तौर पर पारिवारिक स्वामित्व वाली उन छोटी और मझोली कंपनियां को मिटेलस्टांड कहा जाता है जिनका टर्नओवर 5 करोड़ यूरो तक है और जिनमें 500 से कम कर्मचारी काम करते हैं. जर्मन मिटेलस्टांड में करीब 35 लाख कंपनियां हैं. ये देश के सारे उद्यमों का 99 प्रतिशत है और इन कंपनियों में 1.71 करोड़ लोग काम करते हैं. देश के निर्यात का करीब 70 प्रतिशत इन्हीं कंपनियों से आता है.

2016 में इन्होंने 2.3 अरब यूरो का टर्नओवर हासिल किया जो जर्मनी के कुल टर्नओवर का 35 प्रतिशत था. जर्मन छोटी और मझोली कंपनियों ने 2016 में 208 अरब यूरो का निर्यात किया. देश में हर साल करीब 82 प्रतिशत युवाओं को इन्ही उद्यमों में व्यावसायिक प्रशिक्षण मिलता है. इस तरह आय और रोजगार के हिसाब से ये कंपनियां बहुत ही अहम हैं.

Deepak Bagla CEO Invest India
2015 में शुरू हुआ मेक इन इंडिया मिटेलस्टांडतस्वीर: DW/M. Jha

भारत भी जर्मन मिटेलस्टांड के अनुभवों से बहुत कुछ सीख सकता है. 2015 में हनोवर मेले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मेक इन इंडिया घोषणा के बाद एमआईआईएम के तहत जर्मन कंपनियों को निवेश की संभावनाओं की जानकारी देने और भारत में निवेश के लिए लाइसेंसिंग की प्रक्रिया को तेज करने की पहल हुई.

भारत में फैसला लेने में अक्षम नौकरशाही विदेशी निवेश की राह में सबसे बड़ी बाधा रही है. निवेश के लिए साथी खोजना, प्लांट लगाने के लिए जमीन खोजना, लाइसेंस लेना, मशीनरी आयात करना इन सारे कामों में संघीय, प्रादेशिक और स्थानीय सरकारों से अनुमति लेने में सालों लग जाते. इस पहल ने कारोबारियों को भरोसा दिलाया कि उसके कंसल्टेंट नौकरशाही के जंगल में रास्ता खोजने में निवेशकों की मदद करेंगे. वैर्बियो इन प्रयासों की सफलता की एक मिसाल है.

नए इंडिया के लिए मोदी ने उठाए ये नए कदम

पिछले चार साल में मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड ने इस कार्यक्रम को जर्मनी में लोकप्रिय बनाने के लिए पहली बार कई सारे कदम उठाए हैं. देश की टैक्स संरचना और श्रम कानूनों के बारे में जानकारी देने के लिए 88 वर्कशॉप आयोजित किए गए हैं. भारत ने भी इन सालों में व्यापार और निवेश को आसान बनाने के लिए ढेर सारे कदम उठाए हैं. ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में वह कई स्थान छलांग मार कर 77वें स्थान पर पहुंच गया है. जर्मनी में भारत की राजदूत मुक्ता तोमर कहती हैं, "ये भारत में निवेश का समय है." साथ ही वे भावी निवेशकों को सावधान भी करती हैं कि भारत जर्मनी की तरह ही लोकतंत्र है, इसलिए फैसले आदेश देकर नहीं लिए जा सकते.

जर्मन भारतीय वाणिज्य संघ के महासचिव बैर्नहार्ड श्टाइनरुके को द्विपक्षीय कारोबार में सालों का अनुभव है. वे आपसी व्यापार में सफल उद्यमियों को जानते हैं और नाकाम अनुभवों से भी परिचित हैं. श्टाइनरुके का कहना है कि जर्मन भारत व्यापार में अपार संभावनाएं हैं, लेकिन "अगर आप जर्मन कंपनियों को भारत ले जाना चाहते हैं तो उन्हें हाथ पकड़ कर ले जाना होगा."

जर्मनी की छोटी और मझोली कंपनियां पारिवारिक कंपनियां हैं और जानकारी के अभाव में वे आम तौर पर भारत को मुश्किलों वाला देश मानती हैं. उन्हें ये बताना भी जरूरी है कि भारत में निवेश करने वाली जर्मन कंपनियां बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. भारत में इस समय 1800 जर्मन कंपनियां सक्रिय हैं और उनमें से केवल 13 बड़ी कंपनियों में ही 520,000 से ज्यादा लोग काम करते हैं.

मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड प्रोजेक्ट की अधिकारी सौम्या गुप्ता शुरू से ही इस परियोजना के साथ जुड़ी रही हैं. सौम्या गुप्ता कहती हैं, "इसके बारे में बताते हुए मुझे लगता है कि मैं स्कूली छात्रा हूं जो अपनी पढ़ाई के बारे में रिपोर्ट कर रही है." यही वो लगन है जिसकी वजह से पिछले सालों में 123 कंपनियां इस परियोजना के साथ जुड़ीं और भारत में 88 करोड़ यूरो का निवेश किया है. वन स्टॉप शॉप के रूप में दूतावास इस कार्यक्रम के तहत भारत के 9 राज्यों के साथ सहयोग कर रहा है. इनमें से ज्यादातर राज्य पश्चिम भारत में हैं लेकिन पूर्वी राज्यों में पश्चिम बंगाल भी जर्मन निवेश के कार्यक्रम में शामिल है.

1.3 अरब की आबादी वाले भारत में सालों से 7 प्रतिशत की दर से विकास हो रहा है. इंवेस्ट इंडिया के सीईओ दीपक बागला कहते हैं कि भारत के 2.6 ट्रिलियन डॉलर के बाजार में एक तिहाई मांग घरेलू बाजार में पैदा हो रही है. मांग लगातार बढ़ने से निवेश की संभावनाएं भी बढ़ रही हैं. सालों से भारत को निवेश का महत्वपूर्ण गंतव्य माना तो जा रहा है लेकिन कुछ ऐसी मुश्किलें भी हैं जो जर्मन कंपनियों को भारत जाने से रोकती रही हैं. पिछले सालों में मोदी सरकार ने निवेश को आसान बनाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने के अलावा लाइसेंस की प्रक्रिया को तेज और पारदर्शी बनाने के लिए ढेर सारे पहल किए हैं.

Christian Cahn von Seelen, Corporate Strategy Skoda
स्कोदा के क्रिस्टियान कान फॉन जेलेनतस्वीर: DW/M. Jha

हालांकि कानूनी राज्य होने की उसकी ताकत एक बड़ी कमजोरी बनकर उभरी है. लोकतांत्रिक भारत में स्वतंत्र अदालतें तो हैं लेकिन अदालती प्रक्रिया बहुत लंबी है. फाबर कास्टेल कंपनी के क्वालिटी प्रमुख मथियास माकोव्स्की कानूनी मुश्किलों की स्थिति में लंबी कानूनी लड़ाई को निवेश में बड़ी बाधा मानते हैं. टैक्स संबंधी कई मामले हैं जो यूरोपीय निवेशकों के लिए बड़ा सिरदर्द रही हैं. स्कोदा के क्रिस्टियान कान फॉन जेलेन का कहना है कि दुनिया का कोई और देश ऐसा नहीं जहां स्कोदा को इतनी सारी अदालती लड़ाइयां लड़नी पड़ रही हैं और इसमें करों से संबंधित भी कई मामले हैं.

एक और बड़ी बाधा नियमित तौर पर स्तरीय माल के उत्पादन की है. पिछले सालों में भारत ने क्वालिटी उत्पादन के मामले में गंभीर प्रयास किए हैं लेकिन कंसल्टेंसी कंपनी यूबीएफबी के प्रमुख आंद्रेयास वाल्डॉर्फ की राय में व्यावसायिक प्रशिक्षण की सही व्यवस्था नहीं होने के कारण किसी भी कंपनी के लिए लगातार अच्छी गुणवत्ता वाली चीजों का उत्पादन मुश्किल होता है. हालांकि भारत में एक तरह से पारिवारिक स्तर पर प्रशिक्षण देने की परंपरा रही है, लेकिन इसे कंपनियों के स्तर पर अभी भी लागू नहीं किया जा सका है.

भारतीय कंपनियां कुशल कामगारों के प्रशिक्षण को बेकार का खर्च मानती हैं और अक्सर संस्थानों को इसकी जिम्मेदारी देना बेहतर समझती हैं. मैन्युफैक्चरिंग के निवेशकों को खास तौर पर भारतीय बाजार में अभी भी कुशल कामगारों की कमी का सामना करना पड़ रहा है. कंपनियों में प्रशिक्षण पाने के बाद कर्मचारी अक्सर ज्यादा वेतन की मांग करते हैं और किसी दूसरी कंपनी में चले जाते हैं. यह कंपनियों के लिए घाटे का सौदा साबित होता है. आंद्रेयास वाल्डॉर्फ कुशल कामगारों की कमी को निर्यात में बाधा डालने वाला कारक मानते हैं.

एक बात सबकी समझ में आ रही है कि भारत के विशाल बाजार में भारी संभावनाएं हैं और इस बाजार को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता. भारत विभिन्नताओं का भी देश है. इसलिए भारत में निवेश या वहां कारोबार करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत धैर्य की है. बाजार की सही जानकारी निवेश की योजनाओं को सही परिप्रेक्ष्य देती है. इसमें मेक इन इंडिया मिटेलस्टांड पहल के प्रयास रंग ला रहे हैं.

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