जर्मन विदेश मंत्री तेहरान में, बच पाएगी ईरानी डील?
१० जून २०१९जर्मन विदेश मंत्री हाइको मास ने सोमवार को ईरानी विदेश मंत्री जवाद जरीफ से मुलाकात की. मास 2015 में ईरान और जर्मनी समेत दुनिया के छह ताकतवर देशों के बीच हुई डील को बचाने की कोशिश कर रहे हैं. डील के तहत ईरान खुद पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को हटाने के बदले अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने के लिए राजी हुआ था. लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने पिछले साल इस डील से हटने का फैसला किया और ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध फिर से लगा दिए. ऐसे में, यह डील ध्वस्त होने के कगार पर है.
मास की यात्रा से पहले ईरानी सरकार ने कहा कि जर्मन विदेश मंत्री को कथनी पर नहीं, बल्कि करनी पर ध्यान देना होगा. जरीफ ने कहा कि वह यह जानना चाहते हैं कि "साझीदार देशों ने डील को बचाने के लिए अब तक क्या कुछ किया है."
मास ने उम्मीद जताई कि दोनों पक्षों की बैठकों में डील को बचाए रखने के लिए "रचनात्मक तरीके" तलाशने में मदद मिलेगी. उन्होंने कहा, "आखिरकार ईरान की राजनीतिक मांग भी इस समझौते को बचाने की होनी चाहिए ताकि भविष्य में यह समझौता बना रहे."
फारस की खाड़ी में मंडराता युद्ध का खतरा सबको परेशान कर रहा है. हाल के महीनों के दौरान, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के प्रशासन ने ईरान के खिलाफ प्रतिबंध सख्त किए हैं. वह ईरान पर ज्यादा से ज्यादा दबाव डालना चाहते हैं. अमेरिका का दावा है कि ईरान इस क्षेत्र में अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाने की योजना बना रहा है. अमेरिका संयुक्त अरब अमीरात के तट के पास चार तेल टैंकरों पर हुए हमलों के पीछे भी ईरान का हाथ बताता है. अमेरिका ने इलाके में अपनी सैन्य मौजूदगी भी बढ़ा दी है और इराक से अपने ज्यादातर राजनयिक स्टाफ को वापस बुला लिया है.
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इस बीच, ईरान का "रणनीतिक संयम" भी जवाब दे रहा है. 7 जुलाई के बाद उस पर 2015 के परमाणु समझौते की शर्तों को मानने की पाबंदी नहीं होगी. अगर यूरोपीय देश अमेरिकी प्रतिबंधों के बाजवूद ईरान को परमाणु समझौते का हिस्सा बने रहने के लिए राजी कर लेते हैं, तो दूसरी बात है.
बड़ी तस्वीर में, यमन के हूथी बागियों के हमले को भी शामिल किया जा सकता है. इन बागियों को ईरान की तरफ से मदद मिल रही है. ये विद्रोही सऊदी अरब में अहम तेल प्रतिष्ठानों पर हमले कर सकते हैं. क्षेत्र में सऊदी अरब ईरान का कट्टर प्रतिद्वंद्वी और अमेरिका का सहयोगी है.
समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मिल कर हाइको मास इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. लंबी वार्ताओं के बाद 2015 में इस समझौते को अंतिम रूप दिया गया था.
ईरान को ऐसे "व्यावहारिक उपायों" की तलाश है जिनके जरिए वह अमेरिकी प्रतिबंधों के जाल से निकल सके. वह अपने ऊपर डाले जा रहे "अधिकतम दबाव" को आर्थिक युद्ध की तरह देखता है, जिससे उसे खासा नुकसान हो रहा है. ईरानी तेल का निर्यात पहले ही बहुत घट गया है. साथ ही ईरानी मुद्रा रियाल की कीमत में भी पिछले साल प्रतिबंध दोबारा लगाए जाने के बाद दो तिहाई की गिरावट आई है. महंगाई आसमान छू रही है. खाने और दवाइयों को प्रतिबंधों से अलग रखा गया है, लेकिन ईरान को विश्व वित्तीय व्यवस्था में अलग थलग होने के नुकसान भुगतने पड़ रहे हैं.
इस पूरे हालात का फायदा ईरान में कट्टरपंथियों को मिल रहा है जिन्होंने 2015 में ही कहा था कि पश्चिमी देशों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. ऐसे में मास की ईरान यात्रा बेहद दबाव वाले माहौल में हो रही है जिससे किसी को ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं.