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जर्मन राष्ट्रपति - एक मुश्किल शुरुआत

१ जुलाई २०१०

राजनीतिक खेमों के बीच कड़े मुक़ाबले के बाद सीडीयू नेता क्रिस्टियान वुल्फ़ जर्मनी के नए राष्ट्रपति चुने गए हैं. उनकी मुश्किल शुरुआत पर डॉएचे वेल्ले के मुख्य संपादक मार्क कॉख की समीक्षा.

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जर्मन राष्ट्रपति क्रिस्टियान वुल्फ़तस्वीर: dpa

अगर जनता को चुनने का मौक़ा मिलता, तो जर्मनी के राष्ट्रपति कोई और होते. मतसंग्रहों के अनुसार तीन-चौथाई आबादी चाहती थी कि योआखिम गाउक राष्ट्रपति बनें. उनकी हार से राजनीति के प्रति लोगों की उदासीनता और बढ़ेगी. राष्ट्रपति के चुनाव में हमेशा राजनीतिक जोड़-तोड़ होती रही है. लेकिन इस बार हद हो गई. सिर्फ़ राजनीतिक हिसाब के साथ चांसलर अंगेला मैर्केल व सत्तारूढ़ मोर्चे ने एक ऐसा उम्मीदवार चुना, जो सिर्फ़ उनकी सरकार के कामकाज के माफ़िक हो. इस वजह से भी बहुतेरे लोग क्रिस्टियान वुल्फ़ को राष्ट्रपति के रूप में नहीं देखना चाहते थे.

और विपक्ष? निर्दलीय पादरी व नागरिक अधिकार संघर्षकर्ता योआखिम गाउक को मैदान में उतारना एसपीडी और ग्रीन पार्टी की एक मज़बूत चाल थी. वे दिखाना चाहते थे कि विपक्ष एक सम्मानित व्यक्ति को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाना चाहता है. लेकिन दरअसल यह सत्तारूढ़ मोर्चे में फूट डालने की एक कोशिश थी.

अब मज़बूत दलों के उम्मीदवार की जीत हुई है. अभी स्पष्ट नहीं है कि क्रिस्टियान वुल्फ़ राष्ट्रपति के रूप में किन मुद्दों को सामने लाना चाहेंगे. संविधान के अनुसार उनकी भूमिका औपचारिक है. सभी दलों से ऊपर उठते हुए उन्हे सभी नागरिकों का प्रतिनिधि बनना पड़ता है. वे शायद ही कोई राजनीतिक फ़ैसला लेते हैं. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि वे रोज़मर्रा की राजनीति से परे विषयों को सामने लाएं. अपने राष्ट्रपति से नागरिकों को दिशा-निर्देशन की अपेक्षा रहती है.

क्रिस्टियान वुल्फ़ अब तक दलीय राजनीति से जुड़े रहे हैं. दलीय राजनीति के नतीजे के तौर पर वे राष्ट्रपति भी बने हैं. लेकिन जनता के ज़रिये राष्ट्रपति का चुनाव भी कोई विकल्प नहीं है. चुनावी संघर्ष के बल पर जीते राष्ट्रपति कैसे देश को एकजुट कर सकते हैं. वैसे शायद यह भी पूछने का वक्त आ गया है कि क्या जर्मनी में इस पद की सचमुच कोई ज़रूरत है?

- मार्क कॉख, मुख्य संपादक, डॉएचे वेल्ले

अनुवाद: उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन: महेश झा