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जंगल निर्धारित करने वाले नये नियमों से किसका फायदा

शिवप्रसाद जोशी
२८ अक्टूबर २०१९

उत्तराखंड सरकार अपने वन क्षेत्र की तकनीकी परिभाषा बदलने पर विचार कर रही है. माना जा रहा है कि यह एक तरह से बड़ी निर्माण परियोजनाओं के लिए पिछले दरवाजे से रास्ता खोलने की तैयारी है.

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Indien Waldbrände in Uttarakhand
तस्वीर: Imago/Xinhua/Indian Ministry of Defence

कैबिनेट से स्वीकृत इन नियमों के तहत जंगल उसी जमीन को कहा जाएगा जो न्यूनतम दस हेक्टेयर में फैला हो और जिसमें न्यूनतम कैनपी घनत्व 60 प्रतिशत से कम ना हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों. पर्यावरणवादी इस कदम की कड़ी आलोचना कर रहे हैं. उनका आरोप है कि इस हिसाब से किसी हरे भरे और वृक्षों वाले भूभाग को जंगल की श्रेणी में रखना कठिन होगा और जंगलों की कटाई बढ़ती जाएगी. इसका अर्थ यह भी है कि बहुत बड़ा वन भूभाग वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर हो सकता है. पिछले दिनों मुंबई के आरे कॉलोनी में मेट्रो कार शेड के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों के कटाई से आंदोलित स्थानीय निवासियों ने अदालत की शरण ली थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते आते शेड बनाने लायक जगह सैकड़ों पेड़ काटकर निकाल ली गई थी.

इंडिनय एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट में वन विभाग के अधिकारियों के हवाले से बताया गया है कि प्रस्तावित मापदंडों का असर उन इलाकों पर पड़ेगा जो राजस्व के रिकॉर्ड में वन, जंगल, जंगल झाड़ी, बागान और वृक्षारोपित निजी जमीनों के तौर पर चिंहित है. सरकार का दावा है कि सरकारी वनभूमि और सरकारी कानूनों के तहत वनक्षेत्र के रूप में चिन्हित जमीन पर नये नियमों का कोई असर नहीं पड़ेगा. भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में कुल दर्ज वन क्षेत्र 38 हजार वर्ग किलोमीटर का है जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 71 प्रतिशत है.  इसमें से 69.86 प्रतिशत आरक्षित वन, 26 प्रतिशत संरक्षित और चार प्रतिशत गैरवर्गीकृत वन है. वन वितान घनत्व के आधार पर राज्य में अत्यन्त सघन वन की श्रेणी में करीब पांच हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है, औसत सघन वन करीब 13 हजार वर्ग किलोमीटर है और खुला वन क्षेत्र करीब साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर है. देश के कुल वन कोयले का चार फीसदी स्टॉक उत्तराखंड के जंगलों में उपलब्ध है.

Indien Uttarakhand Fluss Ganges bei Alakanda
तस्वीर: DW/A. Chatterjee

खबरों के मुताबिक अपने पैमानों का निर्धारण कर केंद्रीय पर्यावरण और वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को भेजा गया था.  लेकिन केंद्र ने यह कहकर इन पैमानों पर कोई एतराज नहीं किया कि हर राज्य को अपने निर्धारण और अपनी परिभाषाएं बनाने का हक हैं क्योंकि वनों को लेकर एक जैसी नीति हर राज्य में लागू करना कठिन है. पर्यावरणवादियों को डर है कि नियमों में शिथिलता के चलते ना सिर्फ वन और जल संपदा बल्कि कुल जैव विविधता को नुकसान पहुंच सकता है. अपार्टमेंट और हाउसिंग कॉम्प्लेक्स और इमारतें खड़ी की जा सकती हैं और अंधाधुंध निर्माण कार्य बेरोकटोक हो जाएंगें. उधर सरकार का कहना है कि मापदंडों के पुनर्निर्धारण से आवश्यक निर्माण गतिविधियों के गतिरोध दूर हो सकेंगे.

प्रदेश में बन रही ऑल वेदर रोड परियोजना भी पिछले दिनों विवादों में रही है. राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण, एनजीटी ने केंद्र और राज्य सरकार को इस बारे में नोटिस भी दिया था. ये कारण बताओ नोटिस उस याचिका के बाद आया जिसमें बताया गया था कि इस सड़क प्रोजेक्ट के तहत 356 किलोमीटर के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए. एनवॉयरन्मेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट (ईआईए) को लेकर भी ये परियोजना खामोश है. तीसरी बात, ये प्रोजेक्ट उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उस क्षेत्र से भी गुजर रहा है जिसे इको सेंसेटिव जोन घोषित किया जा चुका है.

Indien Waldbrände in Uttarakhand
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/A. Moudgil

उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाले इस सड़क प्रोजेक्ट के तहत 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बनाई जा रही हैं. 12 हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा की इस परियोजना को इस साल मार्च तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन सरकार ने बताया कि मार्च 2020 तक सामरिक महत्त्व का ये नेटवर्क तैयार हो जाएगा. इस परियोजना से इतर ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलमार्ग परियोजना भी स्वीकृति हो चुकी है जिसमें ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जंगल कटेंगे, वन्य जीवन प्रभावित होगा और पहाड़ों को काटकर सुरंगे और पुल निकाले जाएंगें. उधर पिथौरागढ़ में विशालकाय पंचेश्वर बांध परियोजना एक अत्यंत नाजुक भूगोल पर पांव पसार चुकी है. टिहरी बांध पहले से है ही जहां आज कई देशी विदेशी कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं. सरकार तो रोप-वे को भी बढ़ावा देने की योजना बना रही है जिसे पहाड़ों में आवाजाही के लिए सुगम साधन बताया जा रहा है.

वन कानूनों में लचीलापन, निर्माण की लालसाओं, और निवेश की मारामारी के बीच पहाड़ों से पलायन का एक गंभीर संकट भी बना हुआ है. पलायन की तीव्रता का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि करीब 13 फीसदी की दर से पहाड़ों की आबादी घट रही है तो 32 फीसदी की दर से मैदानी इलाकों में आबादी बढ़ रही है. इससे मैदानों पर भी बोझ बढ़ रहा है, शहर फैल तो रहे हैं लेकिन सुविधाएं सिकुड़ रही हैं. पारिस्थितिकीय परिवर्तनों ने भी उत्तराखंड को एक स्तब्ध स्थिति में पहुंचा दिया है. दूसरी ओर पर्यटनीय अतिवाद के चलते इस बात पर ध्यान नही दिया जा रहा है कि सड़कों पर वाहनों की इतनी आमद और बेशुमार प्लास्टिक इस्तेमाल, पहाड़ की सेहत के लिए अच्छी नहीं है. हिमालय एक नया पहाड़ है, मध्य हिमालय तो यूं भी कच्चा पहाड़ है, लेकिन उसमें से काटकर बांध भी उभर रहे हैं, इमारतें भी और सड़कें भी. डायनमाइट के विस्फोट से पहाड़ी नोकों को उड़ाकर तैयार की गई सड़कों पर बारिश के दिनों में भूस्खलन की दरें बढ़ गई हैं. मिट्टी जगह छोड़ रही है, क्योंकि जंगल कट रहे हैं और सड़कें बन रही हैं. कुदरती आफतों के बीच पर्यावरणीय चेतना के अभाव ने रही-सही कसर पूरी कर दी है.

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