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छात्रों में आत्महत्या के बढ़ते मामलों के लिए जिम्मेदार कौन

शिवप्रसाद जोशी
१४ नवम्बर २०१९

फंड से लेकर काउंसिलिंग के सिस्टम के गठन तक, सरकार और संस्थान अपनी कोशिशों का दावा करते रहे हैं लेकिन आखिर कॉलेज छात्रों में आत्महत्या की प्रवृत्ति पर रोक लगा पाने में नाकाम क्यों हैं.

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Indien Demonstration Student Rohit Vemula Selbstmord
फाइल फोटोतस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran

पिछले दिनों, आईआईटी मद्रास में आत्महत्या का एक और मामला सामने आने से ये बहस फिर से उठ खड़ी हुई है. संस्थान में आत्महत्या की घटनाएं इधर काफी बढ़ी हैं. ज्यादातर मामले बीटेक, एमटेक और पीएचडी कर रहे छात्रों के हैं, लेकिन ताजा मामला डेवलेपमेंट स्टडीज के एमए इंटिग्रेटड कोर्स के प्रथम वर्ष की छात्रा का है. खबरों के मुताबिक केरल की फातिमा लतीफ ने अपने कमरे में पंखे से लटककर जान दी, लेकिन मीडिया में मृतका के मां बाप के बयान भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें आईआईटी प्रशासन और कुछ अध्यापकों पर भी उत्पीड़न, जातीय और धार्मिक दुराग्रह के आरोप लगाए गए हैं. आरोपों के मुताबिक लड़की के मोबाइल फोन पर दर्ज कुछ सूचनाओं के जरिए परिजनों को कथित तौर इस बात का पता चला. संस्थान, विभाग, अध्यापक और सहपाठी स्तब्ध हैं और पुलिस मामले की जांच कर रही है.

इसी बीच दिल्ली आईआईटी मे 18 वर्षीय एक छात्रा की हॉस्टल की छत से गिर कर मौत हो जाने की खबर आई है. आत्महत्या की आशंका से भी इंकार नहीं किया गया है. इस साल मई में मुंबई के एक सरकारी अस्पताल में मेडिकल की छात्रा पायल तड़वी ने आत्महत्या कर ली थी. उसकी सीनियरों पर आरोप था कि उन्होंने उस पर जातिगत ताने कसे और उसका उत्पीड़न किया था. 2016 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने जान दे दी थी. उन्होंने दलित छात्रों के उत्पीड़न का खुलकर आरोप अपने सुसाइड नोट में लगाया था. इसी साल अप्रैल में तेलंगाना में हुई हृदयविदारक घटनाओं को कौन भूल सकता है जब एक के बाद एक 19 छात्रों ने माध्यमिक परीक्षा में कम अंक आने या फेल हो जाने पर आत्महत्या जैसा भयावह रास्ता चुना.

Flash-Galerie Indian Institute of Technology, Madras
तस्वीर: cc-by-sa/Minivalley

सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाला भारत 15-29 साल के आयु वर्ग में आत्महत्या की सबसे अधिक दर वाले देशों में एक है. आंकड़ों के मुताबिक 2008 और 2011 के दरम्यान देश के आईआईटी, आईआईएम और एनआईटी में आत्महत्या के 26 मामले सामने आए थे. पिछले दस साल में आईआईटी में आत्महत्या के 52 मामले सामने आ चुके हैं. सबसे ज्यादा 14 मौतें आईआईटी मद्रास में हुई. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2016 में 9474 छात्रों ने आत्महत्या की, 2015 में 8934 जबकि 2014 में ये संख्या 8068 बताई गयी थी. 2015 में आत्महत्या करने वालों में उच्च शिक्षा वाले छात्रों की संख्या 1183 थी. कारणों की बात जहां तक है तो परीक्षा में नाकामी, आत्महत्या की सबसे कम वजह बनी थी. इस तरह बेरोजगारी भी है. लेकिन पारिवारिक समस्या, गरीबी, शारीरिक प्रताड़ना और पेशेवर मुद्दे ज्यादा बड़े कारण पाए गए हैं.

कठिन प्रवेश परीक्षा, कम सीटें, बड़ी उम्मीदें, अलगाव, उपेक्षा, पक्षपात, जातीय पूर्वाग्रह और नौकरी के अवसरों में आती गिरावट, बाजार की डांवाडोल हालत, प्लेसमेंट के लिए कंपनियों की शर्ते, घर परिवार और समाज के आग्रह- छात्रों के लिए अत्यन्त मानसिक और शारीरिक दबाव का वातावरण बना देते हैं. यह उनके मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा बन जाता है. उच्च शिक्षा, दाखिले से लेकर डिग्री हासिल करने तक एक भीषण संघर्ष और यातना का एक बीहड़ दौर बन जाती है. इधर सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी भूमंडलीय दुष्चक्र का एक कोना बन चुका है. फेक न्यूज, सूचना अतिवाद और सोशल मीडिया ट्रायल ने मानो देखने सुनने समझने के रास्ते बंद कर दिए हैं.

कहने को इन संस्थानों में परामर्श और चिकित्सा के केंद्र बनाए गए हैं, मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर चिकित्सक, विशेषज्ञ भी मौजूद हैं. छात्रों के समक्ष अकादमिक और पारिवारिक दबाव, हॉस्टल लाइफ के रोमान और अनुशासन और पीयर प्रतिस्पर्धा के बीच आत्मनिर्भर, ठोस और स्वतंत्र रूप से फैसला कर पाने में सक्षम बनने की चुनौती भी रहती है. एक स्पष्ट, सेक्यूलर, प्रखर और स्वतंत्र नागरिक चेतना का विकास करने में भी जाहिर है जीवन का ये दौर काम आता है. बात यही है कि इसका उपयोग किस तरह से होता है और छात्रों के सामने प्रकट और प्रछन्न कितने किस्म की चुनौतियां आती हैं जिनमें से संभवतः कुछ ऐसी होती हों जिनसे निकलने का रास्ता उन्हें ना सूझता हो. संस्थानों को अपने संसाधनों और दावों को और बेहतर करने की जरूरत तो है ही. पढ़ाई का दबाव कम करना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि छात्रों में किसी तरह कि हीनता या श्रेष्ठता ग्रंथि ना आने पाए. गरीब, दलित और अल्पसंख्यक वर्गों के छात्रों के प्रति किसी भी किस्म की दुर्भावना को खत्म करना होगा और ब्राह्मणवाद से मुक्ति के बिना कैसी शिक्षा. सबसे महत्त्वपूर्ण है तनाव के कारणों की तलाश और उनका निदान.

एक आकलन के मुताबिक 12 प्रतिशत भारतीय छात्र मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझते हैं. 20 प्रतिशत छात्रों में मनोविकार के लक्षण मिलते हैं. इनमें से करीब पांच प्रतिशत छात्रों को गंभीर मानसिक समस्या रहती है. छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भी एक सतत पर्यवेक्षण और परामर्श सिस्टम बनाए जाने की जरूरत है. आआईटी परिषद् की मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ इस बारे में नियमित बैठक करने और नये उपायों की तलाश की भी जरूरत है. बात आईआईटी की ही नहीं, सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी से लेकर अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की भी है. सरकारों और संस्थानों को चाहिए कि वे निजी सेक्टर के नियोक्ताओं के साथ मिलकर एक ऐसा रास्ता निकाले जो संभावनाशील छात्रों के लिए अवरोधों को दूर करे- उच्च अंक, अनुभव और आला इंटर्नशिप प्रमाणपत्रों की ही मांग ना की जाए, मूल्यांकन के और तरीके भी विकसित किए जाएं. लेकिन बात महज रोजगार की ही नहीं एक परिपक्व और प्रगतिशील नजरिए की भी है जिसे तमाम संघर्षों के बीच नव-वयस्क छात्रों को खुद अपने भीतर पैदा करना होगा.

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