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चिटफंड के दलदल में डूबते सपने

२४ अप्रैल २०१३

एक बार फिर एक चिटफंड कंपनी दिवालिया हो गई है. पश्चिम बंगाल सरकार ने जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन छोटे निवेशकों की पूंजी गई. निवेशकों के धन की सुरक्षा की मांग जोर पकड़ती जा रही है.

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तस्वीर: DW/P. M. Tewari

भारत में सरकार की तमाम चेतावनियों के बावजूद बेहद कम समय में अमीर बनने की चाहत में मध्यम और निचले तबके के लोगों के सपने डूब रहे हैं. भारतीय रिजर्व बैंक और सेबी की चेतावनियों के बावजूद लाखों निवेशक इन कंपनियों के लुभावने सब्जबाग में फंस कर अपनी जमापूंजी से हाथ धो रहे हैं. लोगों से सैकड़ों-हजारों करोड़ उगाहने के बाद जब पैसों की वापसी का समय आता है तो यह कंपनियां अपनी दुकान बंद कर देती हैं. ऐसे में लोगों के पास अपनी किस्मत को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. अब पश्चिम बंगाल में शारदा समूह की ऐसी ही एक कंपनी की ओर से किए गए करोड़ों के घोटाले के बाद फिर इस मामले में सख्त कानून बनाने पर बहस शुरू हो गई है.

चिटफंड आखिर है क्या

चिटफंड कंपनियां दरअसल गैरबैंकिंग कंपनियों की श्रेणी में आती हैं. ऐसी कंपनियों को किसी खास योजना के तहत खास अवधि के लिए रिजर्व बैंक और सेबी की ओर से आम लोगों से मियादी (फिक्स्ड डिपाजिट) और रोजाना जमा (डेली डिपाजिट) जैसी योजनाओं के लिए धन उगाहने की अनुमित मिली होती है. जिन योजनाओं को दिखा कर अनुमति ली जाती है, वह तो ठीक होती हैं. लेकिन अनुमति मिलने के बाद ऐसी कंपनियां अपनी मूल योजना से इतर विभिन्न लुभावनी योजनाएं बना कर लोगों से धन उगाहना शुरू कर देती हैं. अमूमन पांच से सात साल में 10 गुना ज्यादा रिटर्न देने का सब्जबाग दिखा कर खासकर कस्बाई और ग्रामीण इलाकों में एजेटों के जरिए करोड़ों की रकम उगाही जाती है. जब इन पैसों को लौटाने का वक्त आता है तो कंपनी की ओर से दिए गए चेक बाउंस होने लगते हैं और बाद में कंपनी बंद हो जाती है. पोस्ट आफिस और बैंक जहां आठ से नौ फीसदी ब्याज देते हैं, वहीं ऐसी कंपनियां रकम को दोगुनी और तीनगुनी करने के वादे करती हैं. दरअसल, इन तमाम योजनाओं में एक बात आम है, वह यह कि नए निवेशकों के पैसों से ही पुराने निवेशकों की रकम चुकाई जाती है. यह एक चक्र की तरह चलता है. दिक्कत तब होती है जब नया निवेश मिलना कम या बंद हो जाता है.

कैसे उगाहते हैं पैसे

चिटफंड कंपनियां दूरदराज के इलाकों में फैले हजारों एजेंटों के नेटवर्क के जरिए धन उगाहती हैं. इसके लिए खास कर मेहनतकश तबके को निशाना बनाया जाता है. एजेंटों को भी अच्छा-खासा कमीशन मिलता है. इसलिए वे बढ़-चढ़ कर निवेशकों को इन योजनाओं में निवेश से होने वाले फायदे गिनाते हैं. चित भी मेरी पट भी मेरी की तर्ज पर निवेशकों को लगता है कि उनके दोनों हाथों में लड्डू है. इसलिए आगा-पीछा सोचे बिना वह अपनी पेट काट कर जमा की गई पूंजी एजेंट के हाथों में सौंप देते हैं. आखिर ऐसी कंपनियों को एजेंट कैसे मिल जाते हैं? इस सवाल का जवाब है बढ़ती बेरोजगारी. यह कंपनियां निवेश की रकम का 25 से 40 फीसदी तक एजेंट को कमीशन के तौर पर देती हैं. रोजगार के दूसरे मौके नहीं होने की वजह से कस्बों व गांवों में पढ़े-लिखे युवक इन कंपनियों के एजेंट बन जाते हैं.

Indien Demos pro und contra Chit funds
भारी विरोध प्रदर्शनतस्वीर: DW/P. M. Tewari

क्यों करते है निवेश

लेकिन आम लोग ऐसी तमाम कंपनियों का फर्जीवाड़ा सामने आने के बावजूद निवेश क्यों करते हैं? इसका जवाब है संबंधित कंपनी के बड़े-बड़े नेताओं और फिल्मकारों के साथ संबंधों को देख कर. कोलकाता के शारदा समूह के मामले में भी यही हुआ. उसने तृणमूल कांग्रेस के सांसद और पत्रकार कुणाल घोष को अपनी मीडिया कंपनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बना रखा था, तो फिल्म अभिनेत्री व तृणमूल सांसद शताब्दी राय को अपना ब्रांड अंबेसडर. कंपनी के एजेंटों ने पैसे उगाहते समय इस बात का बखूबी प्रचार कर निवेशकों का भरोसा जीत लिया. अब घोटाले के बाद तृणमूल कांग्रेस पर सवाल उठने लगे हैं और इन दोनों सांसदों की गिरफ्तारी की मांग हो रही है.

कंपनी की एक योजना में अपनी गाढ़ी मेहनत की कमाई निवेश करने वाली उर्मिला प्रामणिक ने तो आत्महत्या ही कर ली. लेनदारों के तानों और तकादों से आजिज आकर एक एजेंट ने भी खुदकुशी कर ली है. कंपनी की एक योजना में अपने प्राविडेंट फंड के सवा लाख रुपए लगाने वाले धीरेंद्र घोष कहते हैं, "अब तो बुढापे का सहारा भी छिन गया, मैंने तीन गुनी रकम पाने के लालच में वह पैसे लगाए थे." जलपाईगुड़ी जिले के रिक्शा चालक नूर अहमद बेटे की पढ़ाई के लिए रोजाना 50 रुपए का निवेश कर रहे थे. कंपनी बंद होने के बाद वह रकम डूब गई.

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परेशानी में लोगतस्वीर: DW/P. M. Tewari

विशेषज्ञों की राय

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ऐसी कंपनियां लोगों के जल्दी अमीर बनने के सपने की नींव पर अपना साम्राज्य खड़ा करती हैं. इसके अलावा राज्य में बढ़ती बेरोजगारी भी उनको पांव पसारने का सुनहरा मौका देती है. जाने-माने अर्थशास्त्री और यादवपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अजिताभ चौधरी कहते हैं, रोजगार और बचत के मौके नहीं होने की वजह से ही कोई एक दशक से ग्रामीण इलाकों में ऐसी कंपनियां फल-फूल रही हैं. इसके अलावा सरकारी बचत योजनाएं ग्रामीण इलाकों में नहीं पहुंच सकी हैं. इसलिए लोग घर आए एजेंट के हाथों अपनी बचत को निवेश कर देते हैं. अर्थशास्त्री और भारतीय सांख्यिकी संस्थान के पूर्व प्रमुख दीपंकर दासगुप्ता कहते हैं, "इन कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए कानून और सख्त होना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों को दे दी जानी चाहिए."

अमूमन ऐसे हर घोटाले के बाद आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो जाता है. लेकिन बेचारा निवेशक चुपचाप मन मसोस कर रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकता. तमाम चेतावनियों के बावजूद लुभावने सब्जबाग देख कर लोग अपनी कमाई गवां रहे हैं. एक कंपनी के बंद होने के कुछ दिनों बाद दूसरी कंपनी इलाके में पहुंच जाती है और वही एजेंट दोबारा गरीबों के सपनों को भुनाने का खेल शुरू कर देते हैं.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: महेश झा