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समाज

चार दिनों में दो बाघिनों की मौत

शिवप्रसाद जोशी
५ नवम्बर २०१८

महाराष्ट्र के यवतमाल के जंगलों में नरभक्षी बाघिन को लंबी मशक्कत के बाद मार गिराने का मामला ठंडा भी न पड़ा था कि उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क में स्थानीय लोगों ने ट्रेक्टर से एक बाघिन को कुचल कर मार डाला.

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Indien Tiger
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam

बहुत कम अंतराल में इस तरह दो बाघिनें ऐन अपने ठिकाने में मारी गईं. ये मौतें ऐसे समय हुई हैं जब दुर्लभ होते बाघों को बचाने की पूरी दुनिया में जोरशोर से मुहिम चल रही है और बाघों की सबसे बड़ी आबादी वाला भारत अपने यहां बाघों की गिनती कर रहा है, जिसकी अंतिम रिपोर्ट अगले साल जनवरी में जारी होगी.

यवतमाल के पंढारकावड़ा वन क्षेत्र में 53 दिन के तलाशी अभियान, 200 कर्मचारियों के लाव-लश्कर, संदेशवाहकों, ट्रैप कैमरा, ड्रोन, खोजी कुत्तों, हैंग ग्लाइडर जैसे अपार तामझाम के साथ निकले शार्पशूटर ने 13 लोगों को शिकार बना चुकी छह साल की अवनी नाम की बाघिन को पिछले दिनों गोली मार दी. महाराष्ट्र के वन विभाग और राज्य सरकार ने इस मौत पर राहत की सांस ली और गांव वालो ने पटाखे छुड़ाए.

लेकिन बाघिन पर इस कार्रवाई से सामाजिक कार्यकर्ता और वन्यजीव प्रेमी आक्रोशित हैं. उनका कहना है कि गांव वालों ने भले ही बाघिन को मारने की अपील की थी लेकिन उसके मूवमेंट से पता चलता था कि वो आदतन हमलावर नहीं थी. आरोप हैं कि वन विभाग ने सामान्य प्रावधानों की अनदेखी की. मिसाल के लिए अगर ट्रैंक्विलाइजर दागा गया था कि उसकी मात्रा कितनी थी और वो प्रभावी क्यों नहीं हुआ था? ये सिर्फ चूक थी या ऐसा जानबूझकर होने दिया गया ताकि गोली मारने की कार्रवाई को तर्कसंगत ठहराया जा सके? तलाशी दल के साथ पशुचिकित्सक क्यों नहीं था? रात में ही क्यों मारा गया? बच्चे बाघिन से अलग थे या उन्हें अलग किया गया? ये सारे सवाल उठ रहे हैं.

वन्यजीव प्रेमियों का कहना है कि बिना मां के उसके छौने तो भटक कर दम तोड़ देंगे, हालांकि वन अधिकारियों का दावा है कि उन्हें ढूंढने का काम फौरन ही शुरू कर दिया गया था. यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया था जिसने हिदायत थी कि पहले बाघिन को जिंदा पकड़ने की कोशिश की जाए. वन विभाग का दावा है कि पूरा अभियान सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों पर ही चलाया गया था.

गांव वालों की शिकायतों, उनके रात दिन के डर, उन पर हुए हमलों और लगातार मौतों को भी कार्रवाई का आधार बनाया गया. लेकिन एक्टिविस्टों का कहना है कि वन विभाग का बुनियादी काम वन्यजीव संरक्षण का भी है. और नरभक्षी मान लिए जाने के बावजूद ऐसी विधियों, उपकरणों, विशेषज्ञों और अभियानों की योजना बनाई जानी चाहिए थी जिससे बाघिन को जिंदा पकड़ा जा सके.

अवनी को मारने के लिए इतना बड़ा अभियान सरकारी स्तर पर चलाया गया, तो दो दिन बाद यानी रविवार को उत्तर प्रदेश के दुधवा टाइगर रिजर्व में बाघिन को मारने का काम स्थानीय गांव वालों ने खुद ही कर डाला. एक ग्रामीण की मौत से गुस्साए लोगों ने संरक्षित वन क्षेत्र में घुसकर एक ट्रेक्टर से बाघिन को रौंद डाला. वनविभाग ने हमलावरों पर कार्रवाई की बात की है.

वन्यजीव प्रेमियों का कहना है कि बाघों के साथ टकराव के मामले अब बढ़ते ही जा रहे हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि जंगल क्षेत्र में मनुष्य हस्तक्षेप बेकाबू हो रहा है, जंगल कट रहे हैं, निर्माण कार्य बेशुमार हुए हैं, तो वनमाफिया और तस्करों ने जंगलों को गैरकानूनी कार्यों की मुफीद जगह बना दिया है. जंगलों के नजदीक आम लोगों की रिहायशों से भी बाघ का हैबिटेट कहीं प्रभावित, तो कहीं तहसनहस हुआ है और उनकी आवाजाही और रहनसहन में खलल पड़ा है. नतीजतन बाघ रिहाइशी इलाकों का रुख कर रहे हैं और पालतु जानवरों या स्थानीय लोगों का शिकार कर रहे हैं. वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड, डब्लूडब्लूएफ ने भी इस बारे में चिंता जताई है.

इस समय दुनिया में 3900 बाघ ही बचे हैं और इनमें सबसे ज्यादा 2226 की संख्या भारत में है, जहां बाघों की पिछली गिनतियों से पता चला कि उनकी संख्या में बढोत्तरी हुई है. 2006 में भारत में 1411 बाघ थे. वहीं 2014 में ये संख्या बढ़कर 2226 हो गई. जनवरी 2018 में हुई ताजा गिनती के नतीजे अगले साल जनवरी में जारी किए जाएंगें. माना जा रहा है कि बाघों की संख्या 3000 का आंकड़ा पार कर सकती है. लेकिन इससे बहुत खुश इसलिए नहीं हुआ जा सकता क्योंकि समांतर तौर पर बाघों का हैबिटेट सिकुड़ रहा है, उन पर हमले बढ़े हैं और मनुष्य-बाघ टकराव भी बढ़ा है.

सरकारों को इस दिशा में प्रयत्न कड़े करने होंगे और लोगों का जागरूक होना भी जरूरी है. वे निर्भय रह सकें, इसलिए वनविभाग को भी सुरक्षित उपकरणों, फेंसिंग, जनजागरूकता कार्यक्रम आदि के अलावा गार्डों की तैनाती, उनकी पर्याप्त संख्या में भर्ती, प्रशिक्षण और वेतन भत्ते मानदेय आदि की उचित व्यवस्था करनी होगी.

निचले स्तर पर वनकर्मियों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है और उन पर काम का अत्यधिक बोझ देखा गया है. फॉरेस्ट गार्डों को कई कई मील लंबे क्षेत्र की चौकसी करनी पडती है, उनके पास संसाधनों, उपकरणों और सुरक्षा इंतजामों का अभाव दूर होना चाहिए. आला अधिकारियों को इस बारे में सोचना चाहिए लेकिन देखा यह जाता है कि हाइरार्की भोगने और निभाने के चक्कर में दायित्वों और अधिकारों का बोध क्षीण होने लगता है.

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