1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

घर के अंदर आतंकवाद दे गया गुजरात

१८ फ़रवरी २०१२

गुजरात के दंगों ने अगर हजारों लोगों की जान ली तो कई हजार लोगों के लिए मजहबी कट्टरता की वजह भी बन गया. पूरी दुनिया 9/11 के बाद आतंकवाद के जाल में फंस गई लेकिन भारत ने इसका बिलकुल नया चेहरा देखा. घर में आतंकवाद पनप गया.

https://p.dw.com/p/1441K
मक्का मस्जिद पर हमलातस्वीर: AP

दंगों से घरेलू आतंकवाद

गुजरात के दंगों के बाद देश भर में एक खूनी खेल शुरू हुआ. एक तरफ दंगों का बदला लेने की आग थी, तो दूसरी तरफ ईंट का जवाब पत्थर से देने की अंधी जिद. इसका गवाह पूरा भारत बना.

गुजरात दंगों के छह महीने बाद (सितंबर 2002) अक्षरधाम मंदिर पर आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें 31 लोग मारे गए.

जनवरी, मार्च, जुलाई और अगस्त 2003 में मुंबई में कई धमाके हुए. ट्रेन, कार और बसों को निशाना बनाया गया.

अक्तूबर 2005 को दिवाली से ठीक दो दिन पहले दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट हुए. 70 लोग मारे गए.

एक के बाद एक हुए इन धमाकों के बाद एक नाम सामने आया, इंडियन मुजाहिदीन. आईएम नाम के इस संगठन ने दिल्ली और मुंबई के कुछ हमलों की जिम्मेदारी ली. उसने गुजरात के दंगों का जिक्र किया और धमकी दी कि आगे भी ऐसे हमले होते रहेंगे.

Indien Anschlag Samjhauta Express Zug 2007
समझौते पर भी वारतस्वीर: AP

आतंकवाद का जवाब आतंकवाद

ऐसा ही हुआ भी. मार्च 2006 में बनारस के संकट मोचन मंदिर को निशाना बनाया गया. तीन महीने बाद मुंबई की सात लोकल ट्रेनों में धमाके हुए. 209 लोगों की जान गई. मुंबई पुलिस अब भी इन धमाकों की गुत्थी सुलझा नहीं पाई है. शक इंडियन मुजाहिदीन पर ही जताया जाता है. लेकिन इन धमाकों के बाद भारत के अलग अलग राज्यों की पुलिस ने इंडियन मुजाहिदीन के खिलाफ सख्त रुख अपनाया. दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया. लेकिन मोस्ट वांटेड आतंकवादी और इंडियन मुजाहिदीन का सरगना अब्दुल सुभान कुरैशी उर्फ तौकीर अब भी पकड़ से बाहर है.

लेकिन आठ सितंबर 2006 में महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए धमाकों ने पुलिस को चकरा दिया. मालेगांव मुस्लिम बहुल इलाका है. धमाका मस्जिद के बाहर हुआ. इसके बाद फरवरी 2007 में पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन समझौता एक्सप्रेस में धमाका हुआ. 68 लोग मारे गए. कुछ ही महीनों बाद आतंक के हाथ हैदराबाद पहुंचे. ऐतिहासिक मक्का मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान धमाका हुआ. अक्टूबर में अजमेर की पवित्र माने जाने वाली दरगाह में बम फटा.

लंबे अरसे तक भारतीय पुलिस यह मानती रही कि धमाकों के पीछे मुस्लिम चरमपंथियों का हाथ है लेकिन 2008 के बाद यह भ्रम टूटने लगा. जांच के बीच पुलिस ने कुछ हिंदू कट्टरपंथियों को गिरफ्तार किया. इसके बाद तो जैसे कड़ियां खुलती चली गईं. अभिनव भारत नाम का एक हिंदू आतंकवादी संगठन सामने आया. आरोप लगे कि मुसलमानों को निशाना बनाकर अभिनव भारत आतंकवादी हमले कर रहा है. समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव और मक्का मस्जिद के धमाके बदले की कार्रवाई थे.

यह पुलिस, नेताओं और प्रशासन की लापरवाही का नतीजा रहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में दो समुदायों के चुनिंदा कट्टरपंथी एक दूसरे पर आतंकवादी हमले करने पर उतारू हो गए.

Indien Dargah of Khwaja Moinuddin Chisti Mausoleum Ajmer
अजमेर शरीफ पर भी बुरी नजरतस्वीर: picture alliance / Dinodia Photo Library

धमाकों का सिलसिला सितंबर 2011 तक चला. कभी दिल्ली, कभी अहमदाबाद, कभी बैंगलोर तो कभी मालेगांव. जयपुर के अस्पताल को भी नहीं छोड़ा गया तो पुणे की जर्मन बेकरी भी घरेलू आतंकवाद की भेंट चढ़ीं. शहर बदलते रहे लेकिन घर में पैदा हुए आतंकवाद की कहानी जारी रही.

डरा, सहमा भारत

ऐसा नहीं कि गुजरात से पहले भारत में कभी दंगे नहीं हुए. लेकिन 1984, 1992 और गुजरात जैसे दंगे देश में तीन ही बार हुए. कहते हैं कि ये ऐसे दंगे थे जिन्हें राजनीतिक पार्टियों और सरकारों ने उकसाया. 84 के सिख विरोधी दंगों के बाद उत्तर भारत ने सिख आतंकवाद की भारी कीमत चुकाई. 92 के दंगों की कीमत पूरे भारत को चुकानी पड़ी. आए दिन होने वाले वाले धमाके देश की नियति बन चुके थे. पुलिस अपील करती रह गई कि 'सतर्कता ही बचाव है. बस की सीट के नीचे देखें. संदिग्ध वस्तु होने पर तुंरत पुलिस को जानकारी दें.' बसों से लेकर ट्रेनों तक में आतंकवाद का डर चेतावनी के नोटिसों की शक्ल में दिखाई पड़ने लगा.

गुजरात दंगों के बाद तो हालात और ज्यादा बुरे हो गए. दोतरफा आतंकवाद पनपा. दक्षिण एशिया में सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा पर कई दशकों से काम कर रहे जाने माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता असगर अली इंजीनियर कहते हैं, "गुजरात के दंगे या मुंबई में जो 1992 और 1993 में हुआ, उसका एक मनोवैज्ञानिक असर हुआ. कातिल पकड़े नहीं गए, वह मूंछों पर ताव देकर कहते रहे कि हमारा कौन क्या बिगाड़ेगा. इसकी वजह से कुछ नौजवान आतंकवादी बने. उन्होंने बम रखे. बम विस्फोटों की संख्या भी बढ़ी. आतंकवाद का एक सिलसिला जो मुंबई दंगों के बाद शुरू हुआ, वह कुछ साल बाद थम गया था. लेकिन गुजरात के बाद यह फिर बड़े पैमाने पर शुरू हुआ. अगर यह दंगे न होते तो मैं नहीं समझता हूं कि इस तरह के धमाके होते."

Bombenanschläge in Indien
मालेगांव में धमाके ने चौंकायातस्वीर: AP

कम्युनल हारमोनी अवॉर्ड और राइट लाइलीहुड जैसे अवॉर्ड से सम्मानित इंजीनियर ने दंगों के बाद गुजरात का दौरा भी किया. उन्होंने पीड़ितों और दंगाइयों से बातचीत भी की. वह कहते हैं, "गुजरात दंगों के बाद वहां के ज्यातर पीड़ित युवाओं ने कहा कि हम खून खराबा नहीं चाहते. जो हुआ, सो हुआ. वहीं दंगों के लिए भड़काए गए दलित बच्चों का जब मैंने इंटरव्यू किया तो उन्होंने कहा कि अगर हमें पहले पता होता कि इसके ऐसे नतीजे होंगे तो हम यह कभी नहीं करते. विश्व हिंदू परिषद में शामिल होकर उन्होंने दंगों के दौरान लूट पाट की थी. हमें गलत तौर पर इस्तेमाल किया गया." हालांकि पुलिस की जांच में गुजरात के दर्जनों युवा बम धमाकों की साजिश के चलते गिरफ्तार हुए. कई ने कबूल किया कि उनके जेहन में अब भी दंगे उबल रहे हैं.

गुजरात में सरकारी तंत्र की मदद से हुए नरसंहार ने लोगों को न सिर्फ बांटा बल्कि कट्टरपंथी ताकतों को युवाओं को गुमराह करने का एक मौका दे दिया, "बहुत से भारतीय जो दुबई में काम करते हैं, उन्हें वहां भड़काया गया. उन्हें बार बार गुजरात दंगों के वीडियो दिखाए गए. इसमें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसएसआई का भी हाथ रहा. लोगों को प्रक्षिशण दिया गया. चंद लोगों की आड़ में नफरत के खेल को जारी रखा गया."

आगे क्या

लेकिन इंजीनियर मानते हैं कि हर घाव की तरह गुजरात दंगों का घाव भी अब धीरे धीरे भर रहा है. वह मानते हैं कि आने वाले पांच छह साल में कम से कम गुजरात जैसी कोई घटना नहीं होगी. कई दंगों की छान बीन कर चुके इंजीनियर कहते हैं कि पहले दंगे औद्योगिक इलाकों में होते थे. उनके पीछे कामगारों को दो गुटों में बांटे रखना हुआ करता था. लेकिन 1992 और गुजरात के राजनीतिक दंगों ने साबित कर दिया कि इससे फायदा कम और नुकसान बेतहाशा होता है. ऐसा नुकसान जिसकी कीमत बाजार में बाप की गोद में बैठे बच्चे से लेकर सब्जी खरीदने या मंदिर या मस्जिद गए आम इंसान को चुकानी होती है. मृतकों के परिवारजन सालों तक इस अफसोस में जीते है कि उनके अपने ने किसी का क्या बिगाड़ा था.

रिपोर्टः ओंकार सिंह जनौटी

संपादनः अनवर जे अशरफ

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें