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समाज

गोरखपुर में क्यों जाती है हर साल सैकड़ों बच्चों की जान?

समीरात्मज मिश्र
२० अगस्त २०१८

अगस्त 2017 में उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में 70 से अधिक बच्चों की मौत ने दुनिया भर का ध्यान आकर्षित किया. बच्चों की जान इंसेफेलाइटिस नाम की बीमारी से हुई. और ऐसा यहां पहली बार नहीं हुआ था.

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Indien Uttar Pradesh Krankenhaus Kind mit Sauerstoffmaske
तस्वीर: Imago/Hindustan Times/D. Gupta

गोरखपुर के बाबा राघवदास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में महज एक हफ्ते के भीतर सत्तर से ज्यादा बच्चों की मौत हुई. इन बच्चों की मौत का तात्कालिक कारण तो अचानक हुई ऑक्सीजन की कमी बताया गया लेकिन सच्चाई यह भी है कि बरसात के मौसम में यहां मरने वाले बच्चों की तादाद लगभग हर साल यही होती है. इस मौसम में यहां ज्यादातर बच्चे 'इंसेफेलाइटिस' नामक बीमारी यानी एक प्रकार के दिमागी बुखार से मौत के मुंह में समा जाते हैं.

इंसेफेलाइटिस का प्रकोप गोरखपुर और आस-पास के तराई इलाकों में करीब चालीस साल से अनवरत चला आ रहा है. वैसे तो इसका प्रभाव पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा जैसे करीब 14 राज्यों में है लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित गोरखपुर का तराई इलाका ही रहता है. हर साल यहां सैकड़ों की तादाद में बच्चों की मौत होती है लेकिन आज तक न तो इससे निपटने के लिए कोई कार्य योजना बनाई गई और न ही कोई गंभीर प्रयास हुआ.

Gorakhpur  Uttar Pradesh Indien
तस्वीर: DW/S. Mishra

यदि इस साल की बात की जाए तो अब तक सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सत्तर से ज्यादा बच्चे इंसेफालाइटिस से मौत के मुंह में समा चुके हैं. इस बीमारी के खिलाफ पिछले कई साल से संघर्ष कर रहे गोरखपुर के बाल चिकित्सा विशेषज्ञ डॉक्टर आरएन सिंह कहते हैं कि मौत के वास्तविक आंकड़े सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा हैं.

डॉक्टर सिंह का कहना है, "आस-पास के इलाकों में तो जब तक लोगों की समझ में आता है कि बच्चे को सामान्य बुखार है या इंसेफेलाइटिस, तब तक काफी देर हो चुकी होती है. दूसरे, बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भी महज कुछ सौ बच्चों को ही भर्ती करने की व्यवस्था है, जबकि मरीज यहां हजारों की संख्या में आते हैं. ऐसे में लोग मजबूरीवश दूसरे अस्पतालों में जाते हैं. वहां मरने वाले बच्चों का कोई रिकॉर्ड नहीं होता."

डॉक्टर सिंह का कहना है कि पिछले चालीस साल में इस बीमारी से कम से कम 15 हजार बच्चों की मौत हो चुकी है. उनका दावा है कि ये संख्या बढ़ भी सकती है. वे इस आंकड़े के पक्ष में सरकारी के साथ गैर सरकारी आंकड़ों को भी जोड़ते हैं.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब तक लोकसभा सदस्य रहे, वे लगातार संसद में इस मुद्दे को उठाते रहे लेकिन अब उनके मुख्यमंत्री बनने के बावजूद स्थिति जस की तस है. हालांकि पिछले साल हुई मौतों को गंभीरता से लेते हुए उन्होंने कई घोषणाएं की लेकिन जमीन पर उनका उतरना अभी बाकी है और बच्चों के मरने का सिलसिला कम नहीं हुआ है.

Gorakhpur  Uttar Pradesh Indien
गरीबी में जी रहे हैं लोग तस्वीर: DW/S. Mishra

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में न सिर्फ गोरखपुर और आस-पास के जिलों के बच्चे आते हैं, बल्कि नेपाल तक के बच्चों के लिए यही एक अस्पताल है जहां इंसेफेलाइटिस का इलाज हो पाता है. ये अलग बात है कि इस बीमारी का इलाज अभी यहां के डॉक्टरों के लिए भी अबूझ पहेली बना हुआ है.

इस बीमारी में रोगी में तेज बुखार, झटके, गले में दिक्कत जैसे लक्षण नजर आने लगते हैं और यदि समुचित इलाज न हो सके तो तीन से सात दिन में मौत हो जाती है. साल 2006 तक तो इस रोग से हुई मौतों का जिम्मेदार अकेले मच्छरों को ही माना जाता था, लेकिन बाद में हुए परीक्षणों से पता चला कि कई मामलों में जलजनित एंटेरो वायरस की मौजूदगी पाई गई. वैज्ञानिकों ने इसे एईएस यानी एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का नाम दिया.

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गोरखपुर का बीआरडी मेडिकल कॉलेज तस्वीर: DW/S. Mishra

जानकारों के मुताबिक बीते कुछ सालों में दिमागी बुखार के मामलों में तो कमी आई है लेकिन एईएस के मामले तेजी से बढ़े हैं और इसके लक्षण भी दिमागी बुखार जैसे ही होते हैं. इस बीमारी की सबसे बड़ी वजह गंदगी और संक्रमित जल को माना जाता है.

डॉक्टरों के अनुसार इंसेफेलाइटिस का सबसे ज्यादा असर एक से पंद्रह साल के बच्चों पर पड़ता है. अगर शुरुआती दिनों में ही बच्चे का इलाज शुरू हो जाता है, तब उसके बचने की संभावना ज्यादा होती है. देर होने पर बच्चे की मौत हो जाती है. यही नहीं, अगर कोई बच्चा गंभीर हालात के बाद भी बच जाता है, तो वह या तो मानसिक तौर पर कमजोर हो जाता है या फिर शारीरिक तौर पर विकलांगता का शिकार हो जाता है.

साल 2000 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में नेशनल वायरोलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की एक शाखा स्थापित की गई थी. इसका मकसद बीमारी के वायरस की जांच करना था. लगभग दो दशक होने को हैं लेकिन यह रिसर्च इंस्टीट्यूट अब तक किसी वायरस की पहचान नहीं कर सका है.

साल 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ. टेस्ट किट उपलब्ध होने के चलते दिमागी बुखार की पहचान अब मुश्किल नहीं रही, लेकिन इस वायरस की प्रकृति और प्रभाव की पहचान करने की टेस्ट किट अभी विकसित नहीं हो सकी है. इस बीमारी के कारणों और इनके निदान के अध्ययन के लिए कई विदेशी डॉक्टरों और शोधकर्ताओं का भी दौरा हो चुका है लेकिन अभी तक इसमें कामयाबी नहीं मिल पाई है.

डॉक्टर आरएन सिंह का कहना है कि इस बीमारी को पोलियो की तरह एक अभियान चलाकर खत्म करना होगा और इसके लिए न सिर्फ सरकार और डॉक्टरों को काम करना होगा, बल्कि लोगों को भी जागरूक करना जरूरी है. डॉक्टर सिंह खुद लोगों को जाकरूक करने के अभियान में लगे रहते हैं.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य रहे डॉक्टर केपी कुशवाहा दो दशक से ज्यादा समय से बतौर बाल रोग विशेषज्ञ इस महामारी पर नजर रखते रहे हैं. डॉक्टर कुशवाहा इस बात पर तो संतोष जताते हैं कि साफ सफाई, शौचालय और शुद्ध पेयजल को लेकर जागरूकता और सरकारी सक्रियता बढ़ने से खतरा कम हुआ है, लेकिन उनका यह भी कहना है कि गांवों में अब भी मरीजों को सही वक्त पर चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती, जिससे मौतों का आंकड़ा बढ़ जाता है.

जानकारों के मुताबिक, इंसेफेलाइटिस का अब तक कोई कारगर इलाज तो नहीं है लेकिन यह बीमारी सावधानी बरत कर काफी हद तक रोकी जा सकती है. इस बीमारी की मृत्युदर सबसे ज्यादा 35 प्रतिशत है. डॉक्टरों की सलाह है कि प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा सावधानी बरती जाए.

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