1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

'गांव बंद' कर सड़कों पर लड़ते भिड़ते किसान

शिवप्रसाद जोशी
४ जून २०१८

किसानों की आठ राज्यों में हड़ताल जारी है. फल-सब्जी, दूध, दाल आदि की कीमतें बढ़ रही हैं, तो उधर मंत्रियों और नेताओं के अटपट और असंवेदनशील बयान भी. किसानों को रह रह कर आंदोलनों के लिए क्यों विवश होना पड़ रहा है?

https://p.dw.com/p/2yu6o
Indien Dürre Trockenheit Hyderabad Bauer
तस्वीर: AP

पिछले एक डेढ़ साल के दरम्यान देश में अभूतपूर्व किसान एकजुटता देखने को मिली है. दिल्ली के जंतरमंतर पर तमिलनाडु के किसानों का धरना प्रदर्शन हो, या मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों का आंदोलन और उन पर हुई गोलीबारी, राजस्थान के किसानों का उग्र प्रदर्शन हो या महाराष्ट्र के किसानों का लॉन्ग मार्च- किसान संघर्ष के ऐसे निराले दृश्य इससे पहले इतने बड़े पैमाने पर आजाद भारत में नहीं दिखे थे. आखिर कोई तो वजह होगी कि किसान अब सड़कों पर उतर रहे हैं, मुखर हो रहे हैं, अपने अधिकारों के प्रति सजग और लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं. हालांकि इस आंदोलनधर्मिता के साए में नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की मौतों की दुखद दास्तानें भी हैं, चाहे वो पुलिस की हिंसा हो या भीषण विवशता में फांसी लगा लेने या जहर खा लेने या कुएं में गिर कर जान दे देने जैसी दिल दहलाने वाली घटनाएं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2014 से 2015 के बीच किसानों की आत्महत्या के मामले 40 फीसदी बढ़ गए. 2014 में 5650 तो 2015 में ये आंकड़ा 8000 को पार कर गया. सबसे ज्यादा मौतें क्रमशः महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और मध्यप्रदेश में दर्ज की गईं. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके की दास्तान तो हिला देने वाली है, जहां 2016 में पहले चार महीनों में ही 400 से ज्यादा किसानों ने फसल की बरबादी, सूखे और कर्ज की बेइंताही में मौत को गले लगा लिया. 80 फीसदी आत्महत्या के मामले कर्जे न चुका पाने से जुड़े थे. ज़्यादातर किसान बैंकों के कर्जदार थे. और ये सिलसिला पिछले दो या तीन साल का नहीं है. 2012 में 13,754, 2011 में 14,207 और 2010 में 15,963 किसानों ने आत्महत्याएं की. 1993 से 2013 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने अपनी जान ली. रही हिंसा की बात, तो इन्हीं दिनों पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर में छह किसान पुलिस गोलीबारी में मारे गए थे.

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा और छत्तीसगढ़ के किसानों की ताजा हड़ताल यूं तो दस दिन के लिए है लेकिन पहले चार दिनों में ही उत्तर और मध्य भारत में कीमतों और कमी का हाहाकार मच गया है. फल-सब्जियों और दूध की किल्लत होने लगी है. हड़ताल की अगुवाई इस बार राष्ट्रीय किसान महासंघ कर रहा है, जिसका दावा है कि उसे 130 किसान संगठनों का समर्थन हासिल है और ये आंदोलन सिर्फ आठ राज्यों तक सीमित नहीं, बल्कि देश के कई राज्यों में फैल चुका है. दस जून को आधे दिन का भारत बंद करने का ऐलान भी किया जा चुका है. वैसे, ये भी सच है कि आरएसएस समर्थित भारतीय किसान संघ इस हड़ताल से अलग है. वाम दलों के समर्थन वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति भी इस आंदोलन में शामिल नहीं है लेकिन उसने नैतिक समर्थन कहा है.

कृषि की बदहाली का ठीकरा सिर्फ और सिर्फ खराब मौसम स्थितियों पर फोड़ा गया है. अब हालत ये है कि आर्थिक वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के चलते कृषि और सहयोगी सेक्टरो का जीडीपी में योगदान 2004-05 में 19 फीसदी से घटकर 2013-14 में 14 फीसदी रह गया. और इसमें भी अगर फॉरेस्ट्री और फिशरी को हटा दें, तो कृषि का राष्ट्रीय जीडीपी में करीब 12 फीसदी का योगदान ही रह गया है. दिलचस्प बात ये भी है कि 13 राज्यों में कृषि का जीडीपी योगदान 20 फीसदी से ज्यादा का है. जानेमाने कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में 2004 में बने आयोग ने 2006 में अपनी पांचवी और आखिरी रिपोर्ट में किसानों के लिए फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य, आंकी गई उत्पादन की औसत लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा के स्तर पर तय करने की सिफारिश की थी. मजे की बात है कि 2014 में बीजेपी ने इसे अपने चुनावी घोषणापत्र में जगह भी दी थी लेकिन ये समर्थन मूल्य अब भी दूर की कौड़ी बना हुआ है. जबकि आयोग ने कहा था कि किसानों के पास उतनी टेकहोम राशि आनी चाहिए जितना किसी सिविल सर्वेंट को मिलती है.

औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, सेवा क्षेत्र का विस्तार आदि बेशक नई आर्थिकी की अनिवार्यताएं बनती जा रही हैं लेकिन उस बड़ी वर्कफोर्स का क्या होगा जो कृषि में लगी है? गरीबी दूर करने के लिए किसानी छुड़ाने के विकल्प से पहले वर्ल्ड डेवलेपमेंट रिपोर्ट के उस आंकड़े को भी देख लेना चाहिए जो कहता है कि कृषि में एक प्रतिशत की वृद्धि भी गरीबी मिटाने में, गैर कृषि सेक्टरों में समान वृद्धि से कम से कम दो या तीन गुना ज़्यादा असरदार है. अगर सरकार आठ फीसदी ग्रोथ वाली जीडीपी में कम से कम चार फीसदी की ग्रोथ कृषि सेक्टर में नहीं बनाए रख सकती तो कुल वृद्धि बेमानी है. यानी सार्वजनिक नीति में कहीं कोई गड़बड़ है. वो किसान केंद्रित होने से परहेज कर रही है. आप खराब मौसम, बेतहाशा मॉनसून को ही कब तक जिम्मेदार ठहराते रहेंगे? सिंचाई के उन्नत साधनों, जल प्रबंधन, कृषि बीमा, कृषि बाजार, फसल का बेहतर मूल्य, गांवों मे सड़क और बिजली आदि की समुचित व्यवस्था, कृषि तकनीक का विकास, बेहतर उर्वरक और ऋण सुविधा और अदायगी की आसान शर्तें, ये सब बातें एक प्रभावी नीति के लिए जरूरी हैं.

किसानों की मांगों को विनम्रतापूर्वक सुलझाने के बजाय हम सरकारों का क्या रवैया देख रहे हैं? उनके मंत्री और नेता भड़काऊ और विवादास्पद बयान दे रहे हैं. किसानों के आंदोलन और हड़ताल को नकली कहा जा रहा है. उन्हें भ्रमित और किसी के हाथ का खिलौना बताया जा रहा है और जब कुछ नहीं सूझा तो उन्हें प्रचार का भूखा करार दिया गया है कि वे मीडिया का ध्यान खींचना चाहते हैं. सोचिए खेतों को सींचने वाले किसानों की लड़ाई क्या ध्यान खींचने तक सीमित है? उन्हें कहा जा रहा है कि वे अपने खेतों और घरों को लौट जाएं और अपनी सब्जी, फल, दूध बरबाद न करें, गांव बंदी न करें यानी शहरों को जाने वाला उत्पादन न रोकें. लेकिन अगर वे "गांव बंद" न करें, जैसा कि इस आंदोलन को नाम दिया गया है, तो कैसे अपनी उपस्थिति और अपने आक्रोश का अहसास तमाम राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को कराएं? अपने मानवाधिकारों की हिफाजत के लिए इससे बेहतर उनके पास भला क्या रास्ता होता? क्योंकि बातचीत, समझौते, नियम कायदे, वादे दावे सब हो गए,- किसानों के हाथ कुछ नहीं आया. वे ठगा महसूस कर रहे हैं और इसलिए बार बार आंदोलन की एक कठिन और कभी खत्म न होने वाली डगर पर उतर रहे हैं.

हड़ताल से किसान भारी नुकसान उठा रहे हैं. दूध विक्रेता और डेयरी किसानों को हड़ताल के पहले तीन दिन में दो से ढाई करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. जाहिर है किसान डटे हुए हैं, बेशक वे टूटे नहीं हैं लेकिन वे मरते दम तक यूं ही खड़े रहेंगे- ये कहना भी सच्चाई की अनदेखी करना होगा. ऐसे वक्त में जहां समर्थन और विरोध में पहले नफा नुकसान देख लिया जाता हो, वहां इस स्वतःस्फूर्त आंदोलन की दीर्घजीविता के बारे में क्या सोचना या कहना? हो सकता है कि वे हार मान लें या कुछ समझौते पर राजी हो जाएं या हताश लौट जाएं. लेकिन नैतिक तौर पर प्रखर और पॉलिटिक्ली मजबूत समुदाय के रूप में उन्होंने अपने निशान तो छोड़ ही दिए हैं. उन्हें नजरअंदाज करने की भूल सरकारें और राजनीतिक दल अपने अस्तित्व की कीमत पर करते रह सकते हैं.

दरअसल दूर फलक पर देखा जाए तो ये इस देश में कृषि बनाम कॉरपोरेट की दूरगामी लड़ाई भी है. कॉरपोरेट परस्त सरकारें, सारा अफसर अमला, सारे सरकारी बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री और विशाल जबड़े वाला निजी क्षेत्र एक तरफ और ये किसान अपनी अपनी विभिन्नताओं और अपने अपने संघर्षों में दूसरी तरफ. अगर आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को खेत विहीन, कृषि विहीन और कृषक विहीन देश चाहिए तो फिर किस्सा यहीं खत्म समझिए. लेकिन आंदोलन और प्रतिरोध की आवाज़ें ऐसे यथास्थितिवाद के सामने खनकती रहती हैं. इतिहास के सबक ये बताते हैं. किसानों की ताजा हड़ताल भी यही बताती है.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी