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खुदमुख्तार मौत के अधिकार की वकालत

इंटरव्यू: फोल्कर वाग्नर/एमजे५ नवम्बर २०१४

29 वर्षीया ब्रिटनी मेनार्ड की आत्महत्या के बाद इच्छामृत्यु पर नई बहस छिड़ गई है. चिकित्सा नैतिकता के विशेषज्ञ प्रोफेसर योखन फॉलमन मौत का सामना कर रहे मरीजों के लिए मृत्यु का वरण करने के अधिकार का समर्थन करते हैं.

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तस्वीर: Fotolia/Direk Takmatcha

डॉयचे वेले: क्या इच्छा मृत्यु का अधिकार है ?

योखन फॉलमन: खुदमुख्तार जिंदगी का अधिकार होता है और इसका मतलब खुदमुख्तार मौत भी है. विवादास्पद सवाल यह है कि जीवन के अंत में इससे किस तरह के फैसलों का तात्पर्य है. इस समय डॉक्टरों की मदद से ऐसे मरीजों की मौत पर बहस हो रही है जो गंभीर रूप से बीमार हैं, जिनके जीने की संभावना नहीं है और जो अपार तकलीफ झेल रहे हैं. मेरी राय यह है कि मरीजों को इस नैतिक उलझन की स्थिति में खुद फैसला करने की संभावना होनी चाहिए और डॉक्टरों को स्पष्ट रूप से तय शर्तों पर मदद करने का हक होना चाहिए.

अब तक चिकित्सीय कारणों से आत्महत्या का मामला ऐसा मामला है जिसके बारे में सिर्फ बुजुर्ग लोग बात करते रहे हैं. क्या अब युवाओं में भी आत्महत्या की लहर फैलने की शंका है?

इसे मैं अत्यंत असंभव मानता हूं. अमेरिकी प्रांत ओरेगन से मिले 1997 के बाद के आंकड़े, जहां मरीज रहती थी, एकदम दूसरी तस्वीर दिखाते हैं. वहां इच्छा मृत्यु का वरण करने वाले बुजुर्ग, शारीरिक रूप से अत्यंत कमजोर और उच्च शिक्षा प्राप्त, उंची आर्थिक हैसियत वाले लोग हैं जिन्हें पैलियाटिव मेडिसिन सहित दूसरी चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध हैं.

Prof. Jochen Vollmann
प्रोफेसर योखन फॉलमनतस्वीर: Ruhr-Universität Bochum

कौन सीमा खींचेगा कि कोई कब मरणासन्न है?क्या आप बता सकते हैं कि सीमा कहां होनी चाहिए?

एक सीमा है, फैसला खुद का होना चाहिए, मरीज का जानबूझकर लिया गया स्वतंत्र फैसला. भयानक तकलीफ को बाहर से नहीं समझा जा सकता, क्योंकि तकलीफकर्ता के नजरिए से सहने लायक या नहीं सहने लायक होती है. लेकिन इसके लिए चिकित्सीय शर्तें तय की जा सकती हैं, मसलन ऐसी बीमारी जिसका अंत मौत है. निश्चित तौर पर बीमारी की गंभीरता तय करने की भी संभावना है. अमेरिकी मरीज के मामले में रोग के लक्षण इतने साफ थे कि उसका अंत मौत में ही हुआ होता. हालांकि यह कहना हमेशा मुश्किल है कि इसमें छह, आठ या दस महीने लगेंगे. लेकिन नैतिक फैसले में यह आकलन महत्वपूर्ण नहीं है.

क्या हमें नए कानूनों की जरूरत है, या फिर बीमारी और उससे होने वाली मौत पर कानूनों की?

यह अलग अलग देश में अलग है. जर्मनी में फौजदारी कानून में लंबी परंपरा है कि न तो आत्महत्या और न ही आत्महत्या में मदद अपराध है. इसलिए आपराधिक नजरिए से कानून साफ तौर पर उदार है. मौजूदा बहस की शुरुआत इस बात से हुई है कि डॉक्टरों के पेशेवर अधिकार के ढांचे में प्रांतीय चिकित्सक संगठनों ने प्रतिबंध के अलग अलग नियम बना रखे हैं. मेरे विचार से यह अत्यंत विवादास्पद है. पेशेवर अधिकार का नतीजा यह हुआ है कि समाज में कानून में संशोधन करने पर बहस छिड़ गई है. मरीजों और डॉक्टरों को इस मुश्किल नैतिक उलझन की स्थिति के लिए सुरक्षित कानूनी ढांचा चाहिए.

ठीक हो सकने वाली बीमारी में यदि आत्महत्या फैशन हो जाए तो क्या समाज और बीमा कंपनियों की ओर से खास मरीजों से उम्मीद की स्थिति पैदा नहीं होती कि वे इच्छामृत्यु चुनें?

मैं यह नहीं मानता कि आत्महत्या करना फैशन बन जाएगा. ओरेगन के आंकड़े दिखाते हैं कि मरीजों का छोटा सा तबका इसमें शामिल है. हजार मौतों में दो मामलों में मरीज इच्छामृत्यु का रास्ता चुनते हैं. लोगों में खुद को मारने की इच्छा बहुत कम होती है, इसलिए सिर्फ इस अमेरिकी मरीज जैसे मजबूत व्यक्तित्व वाले मरीज नैतिक उलझन की स्थिति में आने पर इस तरह का फैसला करते हैं. यह डर कि यह अनियंत्रित रूप से फिसलने लगेगा या जीन के अंत में खर्च बचाने का जरिया हो जाएगा, इसे मैं संभव नहीं मानता. समाज के लिए पैसे बचाने का सवाल आम तौर पर जीवन के अंत में इलाज रोकने या इलाज न करवाने जैसे नैतिक रूप से कम विवादास्पद फैसलों पर उठता है.

प्रोफेसर योखन फॉलमन बोखुम के रुअर यूनिवर्सिटी में चिकित्सीय नैतिकता और चिकित्सा इतिहास संस्थान के डायरेक्टर हैं.