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समाज

इन सवालों से कैसे निपटेंगे चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट

शिवप्रसाद जोशी
२३ अप्रैल २०१९

पूर्व कर्मचारी के यौन उत्पीड़न के आरोपों को खारिज कर देने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस रंजन गोगोई सवालों में घिरे हैं. पूछा जा रहा है कि कोर्ट ने न्यायिक सदाशयता न दिखाकर क्या अपनी साख को ठेस नहीं पहुंचाई?

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Indien Neu Delhi Ranjan Gogoi
चीफ जस्टिस रंजन गोगोईतस्वीर: Imago Images/Hindustan Times

स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में ये पहला मौका है जब  देश के मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं. कोर्ट की ही एक पूर्व कर्मचारी के आरोपों को खारिज करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने इसे न्यायपालिका को अस्थिर और निष्क्रिय करने की साजिश करार दिया. आननफानन में एक बेंच बुलाकर मीडिया से संयम बरतने की अपील कर आलोचना का शिकार बने जस्टिस गोगोई ने इस मामले में अपने बाद सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश एसए बोबड़े को आगे की कार्यवाही के लिए कहा है. कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी ने जस्टिस गोगोई पर यौन उत्पीड़न और मानसिक यंत्रणा का आरोप लगाते हुए 22 जजों को एफिडेविट दिया था. इस एफिडेविट के आधार पर ही चार प्रमुख अंग्रेजी वेबसाइटों ने खबर प्रकाशित की थी.

देश के जानेमाने अधिवक्ताओं, कानून और संविधान के विशेषज्ञों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने गोगोई के  कदम को न्यायप्रियता और न्यायिक नैतिकता के विपरीत बताया है. सुप्रीम कोर्ट की सीनियर अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह का बयान है कि चीफ जस्टिस को बेंच का कतई भी हिस्सा नहीं होना चाहिए था. वरिष्ठ वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा है कि ‘फेयर प्ले' का बुनियादी नियम यही है कि अपने ही मामले में व्यक्ति जज नहीं हो सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि स्वयं प्रेरित या स्वतः संज्ञान वाली रिट पेटिशन पर ये मामला बेंच के सामने आया जिसमें उसने "अंतर्निहित अख्तियार” के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल किया है. इस बीच सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की शीर्ष संस्था- सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने भी एक प्रस्ताव पास कर इस मामले में हुई "प्रक्रियात्मक त्रुटि” के प्रति अपना असंतोष जाहिर करते हुए फुल कोर्ट बुलाने की मांग की है. उपयुक्त जांच और कार्रवाई के लिए एक आंतरिक कमेटी के गठन की मांग भी की गई है. कमोबेश ऐसी मांगों का प्रस्ताव अधिवक्ताओं की शीर्ष संस्था सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी किया है.

उधर ये आरोप भी जोर पकड़ रहे हैं कि चीफ जस्टिस को जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है ताकि उन्हें इस्तीफा देने पर विवश होना पड़े. जबकि कई महत्त्वपूर्ण मामलों की सुनवाई उनकी अध्यक्षता वाली बेंच के जरिए होनी है. इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के एक वकील का बयान भी मीडिया में आया है जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि इस मामले को प्रचारित करने के लिए उन्हें डेढ़ करोड़ रुपए की रिश्वत की पेशकश भी की गई थी.

चीफ जस्टिस द्वारा गठित विशेष बेंच ने यौन उत्पीड़न के आरोपों से जुड़े मामले की विशेष बेंच के जरिए सुनवाई की जिसमें जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस संजीव खन्ना के अलावा वो खुद भी थे. इस असाधारण मामले में लगता यही है कि सुप्रीम कोर्ट की अब तक की कार्यवाही एक तरह से अपनी शुद्धता का आवरण ढकाए रखने की कोशिश है और वो अपने अहम के खोल को उतारने में हिचक रहा है. अभी इस मामले में क्या सही है क्या गलत और कौन सही है और कौन गलत- कहना कठिन है- यौन उत्पीड़न के आरोपों की सच्चाई भी प्रमाणित नहीं है- लेकिन आरोप अगर सामने आए हैं तो जांच के लिए जेंडर सेंसिटाइजेशन कमेटी को तत्काल सक्रिय कर देने से शायद इतनी छीछालेदर न होती.

नहीं भूलना चाहिए कि जस्टिस गोगोई उन चार जजों में शामिल थे जिन्होंने पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल में रोस्टर प्रणाली पर सवाल उठाए थे और मीडिया से मुखातिब होते हुए आरोप लगाया था कि अन्य वरिष्ठ जजों को सुनवाई का मौका नहीं दिया जाता है. भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में वो अभूतपूर्व प्रेस कांफ्रेंस थी. और अब जब ये मामला सामने आया तो पूछा जा रहा है कि आखिर जस्टिस गोगोई इस बात को कैसे भूल गए और कैसे उन्होंने खुद को तो बेंच में रख लिया लेकिन अपने बाद वरिष्ठता में सबसे ऊपर आने वाले जजों को भूल गए. ये भी सवाल उठा है कि उन पर आरोप हैं तो वो कैसे बेंच में आ सकते हैं. जानकारों ने एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु को रेखांकित किया है कि बेंच में कोई महिला जज भी नहीं थीं. इस मामले की स्वतंत्र जांच में निहायत सावधानी, संयम और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता बरते जाने की जरूरत है. 

सुप्रीम कोर्ट ने ही तो महिलाओं के सम्मान और गरिमा से जुड़े इतने महत्त्वपूर्ण और दूरगामी फैसले सुनाए हैं और आज जब उसकी अपनी संस्था सवालों के ‘कटघरे' में है तो वो ये कहकर मामले से पल्ला नहीं झाड़ सकता कि न्यायपालिका पर साजिशी कुठाराघात हुआ है. पाठकों आपको ध्यान होगा इसी सुप्रीम कोर्ट पर अयोध्या मामले और सबरीमाला मामले पर दिए गये फैसलों की वजह से आरोपों और निंदाओं की झड़ी लगा दी गई थी. अदालत में विचाराधीन मामलों पर हिंदूवादी गुटों और नेताओं की ओर से कैसे कैसे उग्र बयान आए थे और कोर्ट को क्या क्या नहीं कहा गया था- ये सब पब्लिक डोमेन में है, लेकिन अदालत नहीं डगमगाई, तो क्या उसे अब अपने अंदरूनी संकट के समय अपनी कार्यवाहियों में ढिलमुल सा दिखना चाहिए? ये वक्त उसकी साख और ईमान के कड़े इम्तहान का है.

जस्टिस गोगोई ही थे जिन्होंने जुलाई 2018 में तीसरी रामनाथ गोयनका व्याख्यानमाला के तहत अपने भाषण में संवैधानिक नैतिकता की सर्वोच्चता पर बल देते हुए कहा था, "...एक संस्था के रूप में न्यायपालिका, सामाजिक भरोसे से संपन्न है. इसी तथ्य ने उसे विश्वसनीय बनाया है और इसी विश्वसनीयता से उसे वैधता दिलाई है....अगर न्यायपालिका अपनी नैतिक और संस्थागत पकड़ बनाए रखना चाहती है तो उसे असंक्रमित (स्वच्छ) बने रहना होगा. उसे हर वक्त स्वतंत्र और तीक्ष्ण बने रहना होगा. जंजीर की मजबूती अपनी सबसे कमजोर कड़ी पर ही निर्भर रहती है.”

 

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