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क्योटो प्रोटोकॉल के 15 साल बाद भी कुछ हासिल नहीं

१८ फ़रवरी २०२०

15 साल पहले क्योटो प्रोटोकॉल के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सीमित करने के लिए लक्ष्य तय किए गए. औद्योगिक देशों ने CO2 उत्सर्जन को कम करने का वादा किया. लेकिन पर्यावरण को बचाने के लिए अब यह नाकाफी साबित हो रहा है.

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Debatte um CO2-Preis
तस्वीर: picture-alliance/dpa/U. Anspach

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए रात भर चली उस बैठक को याद करते हुए पर्यावरण वैज्ञानिक हेरमन ऑट कहते हैं, "आखिरी पल तक हम कांप रहे थे कि कहीं यह विफल तो नहीं हो जाएगा." इस बैठक का जो नतीजा निकला उसने आठ साल बाद क्योटो प्रोटोकॉल की शक्ल ली. अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह पहली ऐसी संधि थी जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के मकसद से बनाई गई और जो अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण नीति में एक मील का पत्थर साबित होने वाली थी. इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट के निदेशक सलीमुल हक का कहना है कि इस एक संधि ने भविष्य में होने वाले पर्यावरण से जुड़े सभी फैसलों के लिए एक नींव रख दी थी.

शुरुआत हुई 1992 में रियो दे जनेरो में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएफसीसीसी की बैठक से. यहां अमीर देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अपनी जिम्मेदारी मानी. क्योटो प्रोटोकॉल ने निर्धारित किया कि ये बड़े उत्सर्जक किस तरह से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को धीमा करने के लिए कदम उठा सकते हैं. संधि के अनुसार 38 औद्योगिक देशों को 2012 तक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को औसतन 5.2 फीसदी तक घटाना था और उत्सर्जन के स्तर को 1990 वाले स्तर से भी नीचे लाना था. संधि पर हस्ताक्षर करने वालों में अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल थे. ईयू को उन दिनों यूरोपीय कमिटी के नाम से जाना जाता था. सलीमुल हक उस दौरान विकासशील देशों के लिए बातचीत कर रहे थे. वे बताते हैं, "पहली बार अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत कुछ ऐसा हो रहा था जो बाध्यकारी था. यह एक बड़ी सफलता थी." 

ऐतिहासिक रूप से CO2 उत्सर्जन के सबसे बड़े हिस्से की जिम्मेदारी अमेरिका की थी. लेकिन 2011 में वह समझौते से बाहर हो गया. अमेरिका के बाद जब कनाडा ने भी ऐसा ही किया तब लगने लगा कि क्योटो प्रोटोकॉल विफल हो गया. यूरोपीय संघ ने उत्सर्जन को 19 फीसदी घटाया. जर्मनी ने तो 23 फीसदी की कमी दर्ज की लेकिन वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन 38 फीसदी बढ़ चुका था. वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट के एंड्र्यू लाइट का कहना है कि यह समझौता लंबे समय तक जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए काफी नहीं है क्योंकि यह सिर्फ उन देशों पर केंद्रित है जो वैश्निक उत्सर्जन के सिर्फ एक चौथाई हिस्से के लिए ही जिम्मेदार हैं. लाइट का कहना है, "यह समस्या से निपटने के लिए बिलकुल भी काफी नहीं हैं. आपको ऐसे समझौते की जरूरत है जिसमें और भी हिस्सेदार हों."

इस समझौते ने सिर्फ उत्सर्जन को कम करने की ही बात नहीं की थी, बल्कि "क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म" की भी शुरुआत की. इसके तहत कार्बन प्वॉइंट को खरीदना और बेचना मुमकिन हो सका. यानी जो देश ज्यादा उत्सर्जन कर रहा हो, वह ऐसे देश से कार्बन प्वॉइंट खरीद सकता है जिसका उत्सर्जन कम रहा हो. इसे एमिशन ट्रेडिंग भी कहा जाता है. इस एमिशन ट्रेडिंग से होने वाली कमाई का एक फीसदी हिस्सा जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए होने वाली पहलकदमियों के लिए दिया गया. इसमें नए मैंग्रोव के जंगल लगाना, बांध बनाना और पहाड़ी इलाकों में जमीन के कटाव को रोकने के लिए उठाए गए कदम शामिल हैं. वर्ल्ड बैंक के अनुसार इन सब पर अब तक दस अरब डॉलर खर्च किए जा चुके हैं.

सलीमुल हक का कहना है कि एमिशन ट्रेडिंग का उतना फायदा नहीं हुआ जितना बातचीत के दौरान सोचा गया था. इस कदम के साथ साथ पहली बार CO2 की कीमत लगाई गई थी. अब दुनिया भर में सरकारें CO2 पर टैक्स लगाने के बारे में विचार कर रही हैं. कई जगह तो ऐसा शुरू भी हो चुका है. स्वीडन इसमें सबसे आगे है. वहां एक टन जैविक ईंधन के लिए 114 यूरो की कीमत चुकानी पड़ती है. जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इकनॉमिक रिसर्च के पर्यावरण नीति के अध्यक्ष कार्स्टन नॉयहोफ क्योटो प्रोटोकॉल को "गेम चेंजर" मानते हैं. उनका कहना है, "2007 में हर किसी का कहना था कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि 2020 तक यूरोप में ऊर्जा का 20 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा का हो. लेकिन आज यह हकीकत बन चुका है. क्योटो सिर्फ ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के रूप से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा प्रोत्साहन था."

जानकारों का कहना है कि क्योटो प्रोटोकॉल की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि विकासशील देशों ने तय किए गए लक्ष्यों का आदर ही नहीं किया. चीन, भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बढ़ी. इसी के साथ इनका ग्रीनहाउस उत्सर्जन भी बढ़ता गया. आज वैश्विक उत्सर्जन का करीब पचास फीसदी हिस्सा विकासशील देशों से ही आ रहा है. सलीमुल हक कहते हैं, "हम वैश्विक स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए कुछ नहीं कर रहे. हम सब को एकजुट हो कर कुछ करना होगा."

सैद्धांतिक रूप से आज भी क्योटो प्रोटोकॉल के तहत औद्योगिक देशों की कुछ जिम्मेदारियां हैं. लेकिन 2015 में तय हुआ पेरिस समझौता उस पर हावी हो गया है. पेरिस समझौते के अनुसार दुनिया भर के देशों ने वादा किया कि धरती के बढ़ते तापमान को औद्योगिकीकरण से पहले के तापमान के मुकाबले दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है. हस्ताक्षर करने वाले सभी पक्षों ने खुद ही CO2 उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तय किए और उन्हें पूरा करने का वादा भी किया. लेकिन अब तक शायद ही कोई देश अपने तय किए लक्ष्यों को पूरा कर पाया है.

1990 की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 41 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और यह स्तर लगातार बढ़ रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस सदी के अंत तक धरती का तापमान तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा. हेरमन ऑट का इस बारे में कहना है, "जीवाश्म ईंधन इस्तेमाल करने वाले देश जैसे कि सऊदी अरब, अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया कोई भी ठोस कदम उठाने में अड़चनें पैदा कर रहे हैं. इसलिए अब एक नए समझौते की जरूरत है ताकि जिन देशों की वाकई पर्यावरण को बचाने में रुचि है उनकी हिस्सेदारी बढ़ सके."

रिपोर्ट: टिम शाउअनबेर्ग/आईबी  

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