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क्या होती है इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग

Jamal, Anwar Ashraf२० मई २०११

आईएमएफ के पूर्व प्रमुख डोमिनिक स्ट्रॉस कान को जमानत तो मिल गई पर इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग के जरिए उन पर हर वक्त पुलिस की नजर होगी. क्या होती है इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग और कैसे काम करता है यह करामाती उपकरण.

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तस्वीर: DW/K. Mellander

इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग को बदनामी का ब्रेसलेट भी कहा जा सकता है. यह ऐसा अत्याधुनिक उपकरण है जिसे किसी आरोपी को पहना दिया जाता है. यह ऐसे बेल्ट से जुड़ा होता है, जिसे बांधा तो जा सकता है लेकिन खोला नहीं जा सकता. इस तरह उस शख्स पर ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) के जरिए नजर रखी जा सकती है. उसकी जानकारी जीपीएस से मॉनिटरिंग स्टेशन तक पहुंचती है. इस तरह की टैगिंग के आरोपी को सीमित दायरे में रखा जाता है. अगर वह सीमा से बाहर जाता है, तो मॉनिटरिंग स्टेशन को उसकी जानकारी मिलती है और वहां खतरे की घंटी बजने लगती है. हाई प्रोफाइल कैदियों को जेल में रखने का खर्च बहुत ज्यादा होता है. ऐसे में उन्हें काबू में रखने के लिए उनकी इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग कर दी जाती है. उन्हें या तो उनके घर में नजरबंद कर दिया जाता है या सीमित दायरे तक आने जाने की इजाजत होती है. इलेक्ट्रॉनिक टैग या रेडियो कॉलर को पैर या हाथ में बांधा जाता है. बेल्ट के साथ एक छोटी सी इलेक्ट्रॉनिक चिप लगाई जाती है. जिससे 24 घंटे आरोपी की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है. अगर इसे जबरन खोलने की कोशिश की जाए तो यह क्षतिग्रस्त हो जाता है और इसे जारी करने वाली एजेंसी के मुख्यालय में खतरे की घंटी बजने लगती है. अगर बेल्ट को काट दिया जाए, तो आरोपी की गिरफ्तारी पक्की है. इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग को अलग अलग देशों में अलग अलग नाम दिए गए हैं. न्यूजीलैंड में इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग को होम डिटेनशन कहा जाता है. वहीं उत्तरी अमेरिका में इसे इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग भी कहा जाता है. इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग समय के साथ कोर्ट और अस्पताल में या फिर परिसर के बाहर व्यक्तियों पर नजर रखने में कारगार साबित होती है. इसी तरह की तकनीक का इस्तेमाल गाड़ियों को ट्रैक करने के लिए होता है लेकिन उसे टैगिंग न कह कर ट्रैकिंग कहा जाता है. बैंकों की भारी भरकम रकम लेकर जाने वाली गाड़ियां चौबीसों घंटे ऐसी सिस्टम से जुड़ी होती हैं.

कैसे हुई शुरुआत

द्वितीय विश्व युद्ध और हवाई उड़ानों ने दुनिया को बहुत पहले ही जीपीएस यानी ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम की पहचान करा दी थी. लेकिन छोटे स्तर पर इसे इस्तेमाल करने का प्रयोग 1960 के दशक में राल्फ किर्कलैंड श्वित्सगैबल ने किया. 1970 के दशक में कैदियों पर इसका एकाध प्रयोग शुरू भी हो गया और 1980 से किस्से कहानियों में तो यह आम हो गया. हॉलीवुड की कई फिल्मों में इलेक्ट्रॉनिक मॉनिटरिंग भी दिखाया गया है.

हाल में अमेरिका में भारतीय छात्रों की इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग से खासा विवाद हुआ. हालांकि इससे पहले पेरिस हिल्टन और लिंडसे लोहान जैसी शख्सियतों को भी इस टैगिंग के दायरे में रहना पड़ चुका है. अब जब तक मुकदमा चलेगा, 62 साल के स्ट्रॉस कान को भी इस टैग के साथ ही दिन गुजारने होंगे.

रिपोर्टः आमिर अंसारी

संपादनः ए जमाल

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