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समाज

क्या वर्चस्व और उन्माद की भाषा बन गई है हिंदी

शिवप्रसाद जोशी
१४ सितम्बर २०२०

बतौर राजभाषा हिंदी को हासिल हुई मान्यता को याद करने और सम्मान जताने के लिए हिंदी दिवस मनाया जाता है. लेकिन तमाम आयोजनों के बीच आज मुख्य चिंता यही है कि हिंदी सत्ता और वर्चस्व की भाषा बन कर न रह जाए.

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तस्वीर: Fotolia/Dmitry Chernobrov

महामारी की वजह से हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा छिटपुट तौर पर ही मनाया जा रहा है. लेकिन वेब पटल पर इस भाषायी हलचल को हिंदी दिवस का इंतजार करने की जरूरत नहीं थीं. वहां तो सक्रियता इतनी तीव्र और वेगभरी रहती आई है कि इस दौरान हिंदी में विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक मुद्दों पर जोरशोर से वेबिनार भी होने लगे. हिंदी की पत्रकारिता के सवाल हों या हिंदी साहित्य की स्थिति, वेबिनार में साहित्यकार, समीक्षक, जानकार पाठक और श्रोता खूब जुटे. कविता पाठ हुए, भाषण हुए, परिचर्चाएं तो जो हुई सो हुई, विवाद भी कम नहीं हुए.

14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था. पहली बार 1953 में हिंदी दिवस मनाया गया था. 2011 की भाषायी जनगणना का आंकड़ा 2018 में जारी किया गया था. मीडिया में प्रकाशित इन आंकड़ों के मुताबिक 43.63 प्रतिशत आबादी की मातृभाषा हिंदी है. इसी तरह कुल 35 में से 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लोगों के बीच आपसी व्यवहार और रोजमर्रा के संचार की पहली भाषा हिंदी है. लेकिन ये आंकड़ा भी गौरतलब है कि 2001 से 2011 के दरमियान 25 प्रतिशत की दर से हिंदी का विस्तार हुआ है और उक्त अवधि में इसे बोलने वाले करीब दस करोड़ लोग और जुड़े हैं.

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आज तो ये आंकड़ा और अधिक बढ़ चुका होगा. देश की 10 सबसे बड़ी भाषाओं में एक हिंदी ही है जिसके बोलने वालों के अनुपात में बढ़ोत्तरी देखी गई है. जिन राज्यों और क्षेत्रों में हिंदी बोली जाती है उनकी आबादी की दर भी गैर हिंदीभाषी क्षेत्रों की तुलना में तेजी से बढ़ी है, हिंदी बोलने वालों की संख्या में उछाल का बड़ा कारण तो यही है. 1971-2011 की अवधि में हिंदी 161 प्रतिशत की दर से बढ़ी तो चार सबसे बड़ी द्रविड़ भाषाएं इसी अवधि में लगभग आधा, 81 प्रतिशत की दर से ही बढ़ पाईं.

हिंदीभाषी राज्यों से दक्षिण के राज्यों की ओर अधिक माइग्रेशन देखा गया है. इसका असर पांच दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी की अधिक उपस्थिति पर पड़ा है. तमिलनाडु में 2001 से 2011 के दौरान हिंदी बोलने वालों का अनुपात करीब दोगुना हो चुका था. उत्तर भारत की पट्टी में उर्दू भाषा का दायरा सिकुड़ा है. इसकी एक प्रमुख वजह ये बताई जाती है कि उर्दूभाषी समुदाय की नई पीढ़ी शिक्षा-दीक्षा में हिंदी का रुख कर रही है. क्या ये भी भाषायी वर्चस्व का उदाहरण नहीं है?

हिंदी का एक विशाल बाजार भी बना है. अखबार, पत्रिकाएं, शैक्षणिक साहित्यिक किताबें, साहित्य, सिनेमा, टीवी और ऑनलाइन- हिंदी सर्वत्र उपस्थित है. जनसंचार माध्यमों की वो एक प्रमुख भाषा है, कमोबेश सभी उद्योगों और व्यापारिक गतिविधियों में हिंदी का बोलबाला है. एक ओर उसका ये सफल साम्राज्य है तो दूसरी ओर हिंदीप्रेमियों की कुछ चिंताएं भी ध्यान खींचती हैं. मिसाल के लिए सुप्रसिद्ध जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर हिंदी दिवस के लिए कुलपति महोदय की अपील देखी जा सकती है जो कुछ इन शब्दों के साथ खत्म होती है, "मुझे पूरा यकीन, विश्वास एवं भरोसा है कि हमारे सम्मिल्लित एवं सार्थक प्रयासों से राजभाषा हिंदी को वह मुकाम मिलेगा जिसकी वह हकदार है.” भाषा के प्रति यह ‘अनुराग' गौरतलब है लेकिन ये प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से बनता है कि आखिर राजभाषा हो जाने के बाद भी हिंदी को कौनसा मुकाम और कौनसा हक मिलना बाकी रह गया है? उसकी महिमा और ताकत में तो निरंतर वृद्धि हो ही रही है. जाहिर है इस सवाल में ही हिंदी दिवस से जुड़े अंतर्विरोधों और समस्याओं को समझने का रास्ता खुल सकता है.

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भाषा, भूगोल और संस्कृति की विविधता वाले देश के गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को थोपने की कोशिशें राजनीतिक और सामाजिक तनाव का कारण बनती रही हैं. खासतौर पर दक्षिण भारत के राज्य हिंदी के जरिए केंद्र की सरकारों पर विस्तारवाद का आरोप लगाते रहे हैं. इसी वर्ष मई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसविदे में गैर हिंदीभाषी राज्यों के स्कूलों में हिंदी पढ़ाने का बिंदु भी रखा गया था. लेकिन जब फीडबैक लेने की एक्सरसाइज़ हुई तो उस दौरान भारी विरोध हुआ और सरकार को इसे हटाना पड़ा.

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असल में, राजभाषा के रूप में ही हिंदी को नमन करते रहेंगे तो सांस्कृतिक हेजेमनी और पितृसत्तात्मकता से हिंदी को छुड़ा नहीं पाएंगें. राजभाषा के रूप में हिंदी किस रूप में सरकारी कार्यालयों, बैंकों, विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों में इस्तेमाल की जा रही है- सिर्फ इसी पर गौर किए जाने की जरूरत नहीं है. हाल के वर्षों में देखना चाहिए कि किस तरह टीवी जैसे जनसंचार माध्यमों में ये भाषा हाहाकार और गर्जना की तरह प्रस्तुत की जा रही है, किस तरह वो मॉब लिंचिंग की, नफरत, दंभ और द्वेष की भाषा भी बन रही है. हिंदी ही क्या दुनिया की कोई भी भाषा सिरफिरों, दंगाइयों और उपद्रवियों की भाषा नहीं हो सकती. सोचना चाहिए कि बुनियादी प्रश्नों और सरोकारों से मुंह मोड़कर एक ओर वर्तनी और व्याकरण के शुद्धतावाद का विंडबनापूर्ण अतिरेक है और भाषायी उत्सवधर्मिता है तो दूसरी ओर हिंदी पट्टी में अपराध, हिंसा, दबंगई, दुर्व्यवहार, सोशल मीडिया ट्रोलिंग और भ्रष्टाचार की  भयानकता भी किसी से छिपी नहीं है. हिंदी को ऐसा किसने बनाया.

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हिंदी में विद्वता की श्रेष्ठता ग्रंथि के साथ साथ जाति और वर्ग की श्रेष्ठता भी एक प्रमुख मुद्दा रहा है. भाषा के आग्रह से ज्यादा जब भाषा का आतंक हो, किताबों से ज्यादा विवादों की चर्चा, लेखकों से ज्यादा सेलेब्रिटीज की धमक, कला की जगह सनसनी, शब्द भीड़ में गुम होने लगें और भीड़ भटकावों में या सेल्फियों में तो ऐसी भाषा की और उसके आयोजनों की राजनीतिक सांस्कृतिक दिशा समझी जा सकती है.

प्रसिद्ध हिंदी कवि रघुबीर सहाय की एक कविता चार पंक्तियों में बहुत कुछ कह जाती है- पुरस्कारों के नाम हिन्दी में हैं / हथियारों के अंग्रेज़ी में / युद्ध की भाषा अंग्रेज़ी है / विजय की हिन्दी. इसीलिए हिंदी दिवस की बधाई लेते और देते हुए यह भी याद रखना चाहिए कि शक्ति के उन्माद वाली हिंदी नहीं, एक सौम्य, सहज और सबके प्रति दया, प्रेम और करुणा रखने वाली भाषा ही आखिरकार हमारे काम आ सकती है. जाहिर है ये जिम्मेदारी भाषा को बरतने वाले हमी लोगों पर आती है.

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