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कांग्रेस से डर रही हैं मायावती?

समीरात्मज मिश्र
५ अक्टूबर २०१८

आगामी विधानसभा चुनावों से पहले मायावती ने कांग्रेस से गठबंधन ना करने का एलान कर महागठबंधन की कोशिशों को झटका दिया है. लेकिन क्या आम चुनाव को लेकर भी उनका यही रुख़ कायम रहेगा?

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Indien Wahlen Archiv 2013 BSP
तस्वीर: DW/S. Waheed

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का कांग्रेस पर बीएसपी समेत छोटी पार्टियों को खत्म करने का आरोप लगाना और कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर देने से एनडीए सरकार के खिलाफ 2019 में बनने वाले कथित महागठबंधन को बड़ा झटका जरूर लगा है, लेकिन ये मामला सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता.

मायावती ने यह कठोर एलान मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस से गठबंधन बनने से पहले ही टूट जाने, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस छोड़ कांग्रेस से बागी हुए व्यक्ति की पार्टी से गठबंधन करने पर विवश होने और राजस्थान में इसकी कोई संभावना ही न दिखने के चलते किया.

माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन का रिहर्सल इन विधानसभा चुनावों में हो जाएगा लेकिन कांग्रेस पार्टी यहां गठबंधन के लिए उस स्तर से समझौते के मूड में कतई नहीं थी जिस स्तर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में उससे उम्मीद की जा रही है.

हालांकि संभावित महागठबंधन के एक अन्य बड़े साझीदार और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को ‘बड़ा दिल' दिखाने की सलाह दी लेकिन उनकी पार्टी खुद मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है और अखिलेश यादव वहां लगातार सभाएं कर रहे हैं.

जानकारों के मुताबिक इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी यदि इन तीनों पार्टियों, खासकर बीएसपी और कांग्रेस का गठबंधन होता तो चुनाव परिणाम काफी हद तक गठबंधन के पक्ष में होते, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन बीएसपी के उसके खिलाफ खड़े होने की स्थिति में नुकसान सिर्फ कांग्रेस का ही होगा, बीजेपी का नहीं, ऐसा कहना भी मुश्किल है.

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या मायावती की यह घोषणा साल 2019 के लोकसभा चुनाव पर भी लागू होती है और क्या गठबंधन छोड़ने की घोषणा के पीछे वही वजह है जो मायावती बता रही हैं, या कुछ और?

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार शरद प्रधान कहते हैं कि यह तो सही है कि न तो मायावती और न ही समाजवादी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन चाहते हैं, लेकिन इन ऐसा करना दोनों पार्टियों की ही विवशता है.

उनके मुताबिक, "दरअसल, दोनों ही पार्टियों को पता है कि यूपी में कांग्रेस की मजबूती का मतलब है, इन दोनों पार्टियों का कमजोर होना. खासकर मायावती के पास तो वही वोट बैंक है जो कभी कांग्रेस का हुआ करता था. लेकिन अभी इन तीनों दलों के सामने अस्तित्व का संकट है. इसलिए लोकसभा चुनाव में साथ आना इनकी मजबूरी है. दूसरे, ये उसका सीधा लाभ भी देख रहे हैं. लेकिन इन दोनों पार्टियों के नेता जिस कदर भ्रष्टाचार के आरोपों की जद में फँसे हैं, सत्तारूढ़ सरकार इनसे कुछ भी करा सकती है. ”

मायावती ने भी कांग्रेस से गठबंधन के खात्मे का एलान करते हुए राहुल गांधी और सोनिया गांधी के प्रति अपना नरम रवैया बरकरार रखते हुए संकेत दिया था कि आगे कुछ भी हो सकता है. शरद प्रधान कहते हैं कि इन राज्यों में बहुजन समाज पार्टी सीट जीतने के लिए कम, वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए ज्यादा चुनाव लड़ रही है. ऐसी स्थिति में उसे ज्यादा सीटें चाहिए और कांग्रेस यहां मजबूत है, तो ज्यादा सीटें वे कैसे दे सकती है.

वहीं दूसरी ओर, मायावती के इस रुख के पीछे यह भी तर्क दिया जा रहा है कि केंद्र सरकार और बीजेपी के दबाव में आकर मायावती गठबंधन को कमजोर करने वाला बयान दे रही हैं. मेरठ विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और दलित चिंतक सतीश प्रकाश कहते हैं कि दबाव तो जरूर है लेकिन मायावती को यह भली-भांति पता है कि इस समय उनके लिए क्या जरूरी है.

सतीश प्रकाश के मुताबिक, "मायावती का यह कहना कि उन्हें कांग्रेस और बीजेपी दोनों से नुकसान है, ये बिल्कुल सही है. लेकिन इस समय तो उनके सामने अस्तित्व का संकट है और कांग्रेस के साथ अपेक्षाकृत उन्हें कम नुकसान है. मायावती को यह भी पता है कि वो अकेले दलित मतों के आधार पर एक सीट भी नहीं जीत सकतीं और अन्य समुदायों का वोट उनके पास तभी आएगा जब वो साथ लड़ेंगी.”

वहीं एक चर्चा यह भी काफी तेजी से चल रही है कि महागठबंधन की बजाय मायावती एक तीसरे मोर्चे के लिए प्रयासरत हैं. इस मोर्चे में अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार, लालू यादव, चंद्रबाबू नायडू जैसे उन नेताओं को शामिल किया जा सकता है जो कांग्रेस और बीजेपी दोनों से बराबर दूरी रखना चाहते हैं. लेकिन जानकारों का मुताबिक, मौजूदा परिस्थिति में ऐसे किसी मोर्चे के जरिए विपक्षी मतों का बिखराव होगा और बीजेपी को इसका सीधा फायदा होगा.

ताजमहल मुद्दे पर राजनीति तेज

यही नहीं, महागठबंधन की चर्चा और उसके महत्व का आकलन सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार में हो रहा है. बिहार में तो इसकी स्थिति लगभग स्पष्ट है. उत्तर प्रदेश में ही इसे लेकर दिक्कतें हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, पिछले दिनों हुए फूलपुर, गोरखपुर, कैराना और नूरपुर के चुनाव साफ दिखाते हैं कि गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में बीजेपी को आसानी से रोका जा सकता है. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सभी दलों को एक साथ आना, खासकर कांग्रेस का.

यदि 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो कांग्रेस भले ही यूपी में कमजोर दिखती हो लेकिन कई सीटों पर उसकी पकड़ मजबूत है. 2014 में बीजेपी ने अकेले दम पर 71 सीटों के साथ 42.63 फीसदी वोट हासिल किए थे, समाजवादी पार्टी को 22.35 फीसदी वोट और पांच सीटें मिली थीं लेकिन बीएसपी को 19.7 फीसदी वोट भले ही मिले हों, लेकिन सीट एक भी नहीं जीत पाई. वहीं कांग्रेस सिर्फ 7.53 फीसदी वोट के बावजूद दो सीटें जीतने में कामयाब रही थी. यही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर उसने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी.

बीएसपी से बीजेपी में गए एक वरिष्ठ नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि कांग्रेस से मायावती को हमेशा से ही खौफ रहा है कि कहीं वो उसके वोट बैंक पर दोबारा कब्जा न जमा ले. इनके मुताबिक मायावती कांग्रेस से गठबंधन से पहले सौ बार सोचेंगी लेकिन जानकारों का कहना है कि इस समय राजनीतिक सौदेबाजी और नफे-नुकसान से ज्यादा अस्तित्व का सवाल है. और ये सवाल बहुजन समाज पार्टी के सामने सबसे ज्यादा गंभीर होकर खड़ा है.

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता जीशान हैदर कहते हैं, "कांग्रेस से ज्यादा महागठबंधन की जरूरत सपा और बसपा के लिए है. साथ आने पर इन्हीं दलों का ज्यादा लाभ होगा क्योंकि कांग्रेस की वजह से विपक्षी मतों का बिखराव नहीं होगा. दूसरे, कांग्रेस तो अपनी कमी की भरपाई दूसरे राज्यों से भी कर सकती है, ये पार्टियां कहां से करेंगी.”

बहरहाल, राजनीतिक हलकों में मायावती के इस रुख को छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधान सभा चुनाव के संदर्भ में ही देखा जा रहा है, 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में नहीं. लेकिन जानकारों का कहना है कि यदि मायावती अपने इस रुख पर कायम रहीं तो गठबंधन बनने के बावजूद उसका अपने मक़सद में कामयाब हो पाना मुश्किल हो जाएगा.

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